गोमांस के साथ भैंसों की नयी प्रजाति का आगमन

By सिद्धांत मोहन, TwoCircles.net,

एक गणराज्य है, जहां तारीखें प्रतिबंधों और नए-नए किस्म के फैसलों के नाम से जानी जाती हैं. जहां कभी-कभी किसी हफ्ते का हरेक दिन किसी न किसी किस्म के प्रतिबंध को समर्पित होता है. प्रतिबंधों की चली आ रही इस अंतहीन कतार को हम अक्सर ‘विकास’ का नाम देते हैं. ऐसा विकास जो लोकतंत्र द्वारा परिभाषित और पोषित है. यहां न असहमति की गुंजाइश है, न प्रोटेस्ट की और कई हद तक ज़िंदा न रहने की.


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गोमांस पर हुई बहस अब नई और सिमटी हुई नहीं रही. यह अपने आकार और आयाम, दोनों में, भयभीत कर देने वाली हद तक बढ़ी है. उसकी हद तब पता चली जब बीते दिन पूर्वी उत्तर प्रदेश के दादरी में एक मुस्लिम पुरुष की हत्या महज़ इस शक पर कर दी गयी कि उसने अपने घर में गोमांस रखा हुआ था.

(Courtesy: indianexpress)

ग्रेटर नोएडा देश की राजधानी दिल्ली से दूर नहीं है. यहां अलग किस्म के विकास पुरुष अखिलेश यादव का राज चलता है. जिन पर अब आरोप लगते हैं कि उत्तर प्रदेश में विकास को स्थापित करने के लिए वे वही दमनकारी तरीके अपना रहे हैं, जिनके लिए राजस्थान, गुजरात और हरियाणा की सरकारों पर आरोप लगते रहे हैं. ग्रेटर नोएडा की करीबी को बहाना बनाते हुए लिखें तो कहेंगे कि दादरी का बिसाहड़ा गांव भी दिल्ली से कहीं दूर नहीं है. यह वही बिसाहड़ा है जहां 50 साल का मोहम्मद अखलाक़ तीन रोज़ पहले मार दिया गया.

अखलाक़ को सिर्फ इसलिए मारा गया कि मंदिर से लाउडस्पीकर पर किसी ने कह दिया था उनके घर में गोमांस पड़ा है. बस पल भर में हज़ारों की भीड़ बिसाहड़ा के उस घर पर टूट पड़ी, जो अखलाक़ का रिहाईश था. उसे घर से खींचकर पीट-पीटकर मार दिया गया. अखलाक़ का 22 साल का बेटा भी इतना पिटा कि उसके खड़े होने की गुंज़ाइश बेहद कम है. अखलाक़ की सोलह साल की बेटी से दुर्व्यवहार किया गया. हां, हम पत्रकारों के पास किसी लिंगविशेष के साथ किए गए बुरे बर्ताव को ‘दुर्व्यवहार’ शब्द ही मिलता है. मीडिया ने हमें भावनाओं से विपन्न किया ही है, शब्दों से भी किया है.
एक तथ्य यह कि अखलाक़ का बेटा भारतीय सेना में कार्यरत है.

अखलाक़ की हत्या के बाद भीड़ गायब हो जाती है. भीड़ नहीं हुजूम गायब हो जाता है. हज़ार से भी ऊपर लोगों की भीड़ गायब हो जाती है. लोग ऐसे गायब होते हैं कि पता नहीं चलता कि वे कैसे आये थे. इसके साथ लोकतंत्र का सबसे बड़ा झूठ जन्म लेता है, जिसे कहते हैं ‘भीड़ में इस गांव के लोग नहीं थे’. लोकतंत्र के सबसे बड़े झूठ में गांव का प्रधान भी एनडीटीवी के रवीश कुमार से कहता है कि उनका घर गांव से ढाई किलोमीटर की दूरी पर है, लिहाज़ा उसे आने में वक़्त लगा. इस सुनियोजित काण्ड के लिए सब जिम्मेदार हैं. मैं, आप, गांव का प्रधान, पूरा मीडिया, पूरा महक़मा और समाज का सबसे भरा-पूरा हिस्सा भी.

लेकिन इस जिम्मेदारी के साथ यह प्रश्न उठाना लाज़िम है कि हम इस ह्त्या को किस नज़रिए से देखें? प्रशासनिक या जांच का पहलू जो भी हो और जिस भी दिशा में जाए, यहां एक ऐसे व्यक्ति की मौत हुई है, जो पिछले एक साल से साम्प्रदायिक ताकतों के राडार पर है. उसे मारने वाले भी वही लोग हैं जिनकी चाभी हमारी साम्प्रदायिक शक्तियों के बीच ही घूमती रहती है. यानी, यहां हिन्दू बनाम मुसलमान बाद में है, यहां बुद्धिमान बनाम बददिमाग की बहस पहले है. यानी, यह बहस पहले सुनियोजित हत्या की है, उन्मादस्वरूप हत्या की बाद में.

उत्तर प्रदेश में पंचायत चुनाव ज़ोरों पर हैं. बनारस के छपाई कारखाने इस बात का जीता-जागता गवाह हैं कि पंचायत चुनाव में प्रदेश की सक्रिय और मुख्यधारा की राजनीति की चाभी है. यहां पैसा बहुत लगता है. रोज़ दस ट्रकों से भी ज्यादा पोस्टर बैनर और तमाम चीज़ें शहर से बाहर और गांवों-गिरातों की ओर जाती हैं.

ऐसे में एक दूकान पर बिसाहड़ा की इस घटना की चर्चा के दौरान मालिक ने पक्ष दिया, ‘आपको पता है कि यह सब पंचायत चुनाव के लिए हुआ है?’ यह बात कहने के बाद उसने उन्मादी हमले और सुनियोजित हमले के बीच का सबसे बड़ा फ़र्क बताया. बकौल दुकानदार, यह घटनाएं शहर में नहीं होती हैं, यह गांवों में होती हैं. यहां चार-पांच लोग मिलकर किसी एक को नहीं मारते, यहां किसी एक को मारने के लिए मिनटों में हज़ार से भी ज्यादा लोगों की भीड़ जमा हो जाती है. यहां आप मंदिरों-मस्जिदों के इन्फ्रास्ट्रक्चर का बखूबी उपयोग कर सकते हैं, लोगों को भड़का सकते हैं, माइक पर चढ़कर कुछ भी बोल सकते हैं. यह ग्रेटर नोएडा में मुमकिन नहीं. यहां आप बड़े काण्ड नहीं कर सकते, यहां छोटे काण्ड ही वोट को बड़ा फायदा दे जाते हैं.
यह थोड़ा सही आंकलन हो सकता है दादरी में हुए इस काण्ड का.

इलाके के पूर्व सांसद सुरेन्द्र नागर बसपा छोड़कर अबी समाजवादी पार्टी में चले गए हैं. वे पार्टी की ही भाषा बोलते हैं. वे बताते हैं कि अब उनका और उनके लोगों का काम गांव में घूम-घूमकर लोगों को इस तरह से समझाना है कि वहां का सामाजिक-साम्प्रदायिक सौहार्द्र बना रहे. सुरेन्द्र नागर का यह कहना ही बेईमानी है क्योंकि यदि सम्प्रदाय का सौहार्द्र बलि न चढ़ा होता तो इस पूरी रपट और मोहम्मद अखलाक़ के मौत की कोई ज़रुरत नहीं होती. वह सौहार्द्र अब बलि चढ़ चुका है, पूरी कोशिश उस पर ठंडा पानी डालने की है.

बिसाहड़ा गांव के साम्प्रदायिक माहौल के बारे में नागर जी का तर्क है कि यहां के अधिकतर मुस्लिम धर्म-परिवर्तन के बाद इस्लाम में आए, पहले वे लोग राजपूत थे. इसलिए वे पुरानी बिरादरी के लोगों के सामने वे सलीके से पेश आते हैं और वे यह जताते हैं कि क्या हुआ है जो धर्म बदला है, संस्कार तो उनके साथ ही रहेंगे. इसके साथ वह दलील आती है जहां कहा जाता है कि यही कारण है कि बिसाहड़ा गांव इस घटना के ऐन पहले खुशहाल था.

सुरेन्द्र नागर कहते हैं कि लड़की से छेड़छाड़ के बारे में उन्हें नहीं पता.

सुरेन्द्र यह साफ़-साफ़ नहीं बता पाते कि मुज़फ्फरनगर, शामली और मेरठ के स्याह इतिहास के बावजूद समाजवादी पार्टी एक सेकुलर फ्रंट पर नाकामयाब क्यों है? क्या समाजवाद सच में इतनी बुरी तरह से धराशायी हो गया है या सच में दक्षिणपंथ इतना ज़्यादा मजबूत होता जा रहा है, कि वह आपके बेडरूम तक चला आए? दोनों ही बातें संभव हैं. भाजपा के खेमे से विधायक रह चुके नवाब सिंह नागर कहते हैं कि यदि मामला गौहत्या का है तो ज़ाहिर है कि अखलाक़ का परिवार जिम्मेदार है. इसके साथ-साथ नवाब सिंह नागर कहते हैं कि ठाकुरों ने इस घिनौनी हरक़त को अंजाम दिया है, तो उन्हें भी उत्तर के लिए तैयार रहना होगा.

यह ‘तैयार होना’ एक संदेह की भाषा है.

हत्या एक बड़ा काम है. राह चलते गाड़ी लड़ जाने पर गाली देने में डर लगता है कि कहीं कुछ ज्यादा बुरा न हो. यहां फिर भी एक हत्या हुई है. प्रदेश के तथाकथित मुस्लिम रहनुमा आज़म खां कहते हैं कि भाजपा इसके लिए जिम्मेदार है. योगी आदित्यनाथ ने जवाब दिया है कि आज़म सपा सरकार की नाकामी का दोष भाजपा पर मढ़ रहे हैं. दोनों ही इस वाक्युद्ध में अपनी-अपनी जगह सही हैं.

दस लाख की धनराशि अखलाक़ के परिजनों को मिलेगी. यह समाजवादी पार्टी उन्हें देगी. उनका दावा है कि प्रशासन अखलाक़ के बेटे का इलाज करवा रहा है और करवाएगा.

इन तमाम कार्रवाईयों में हम मानवता का सबसे अहम् पहलू नज़रंदाज़ कर जाते हैं, वह पहलू एक सवाल है कि हम हर बार साम्प्रदायिक शक्तियों के सामने चुक कैसे जाते हैं? क्यों एक ऐसे निकाय में तब्दील हो जाते हैं जिसका कोई भविष्य नहीं है? क्यों हम दिनोंदिन उस भैंस में तब्दील होते जा रहे हैं, जिसके बारे में कहा जाता है कि ‘भैंस के आगे बीन बजाए, भैंस खड़ी पहुराए’.

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