Home Articles संघवाद से आज़ादी की नयी संभावनाएं

संघवाद से आज़ादी की नयी संभावनाएं

जावेद अनीस

विश्वविद्यालयों का काम क्रिटिकल सोच को बढ़ावा देना है. इस मानी में विश्वविद्यालय विचारधाराओं की नर्सरी होते हैं. आज देश के कुछ चुनिन्दा संस्थान और उनकी यह विचार की विकास प्रक्रिया निशाने पर है. मामला केवल जेएनयू या हैदराबाद सेंट्रल यूनिवर्सिटी(एचसीयू) का नहीं है, इस सूची में अभी तक आधा दर्जन से अधिक संस्थान शामिल किए जा चुके हैं.

इस पूरी कवायद का मकसद इन शैक्षणिक संस्थानों की वैचारिक स्वायत्तता पर काबू पाना और इन पर भगवाकरण थोपना जान पड़ता है. जेएनयू और एचसीयू ऐसे संस्थान हैं जहां वाम, अम्बेडकरवादी और प्रगतिशील विचारों को मानने वालों का दबदबा रहा है और तमाम कोशिशों के बावजूद संघ परिवार अपनी विचारधारा को यहां जमा नहीं पाया है. वैचारिक स्तर पर संघ को जिस तरह की खुली चुनौती इन संस्थानों से मिलती है वह देश का कोई दूसरा संस्थान दे नहीं पाता है.

जेएनयू के नाम पर उठा ‘राष्ट्रवादी हंगामा’ अभी थोड़ा शांत हुआ ही था कि हैदराबाद विश्वविद्यालय कैंपस की शांति एक बार फिर भंग हो गयी. इसकी वजह थी रोहित वेमुला की आत्महत्या के बाद अनिश्चितकालीन अवकाश पर भेज दिए गए कुलपति अप्पाराव पोडिले को वापस बुला लिया जाना. अप्पाराव को बुलाए जाने के विरोध में छात्र भड़क गये और कथित रूप से उन्होंने कुलपति के दफ़्तर में तोड़फोड़ किया. जवाब में पुलिस द्वारा छात्रों की जमकर पिटाई की गयी और 25 छात्रों सहित कुछ संकाय सदस्यों को गिरफ्त में ले लिया गया. विश्वविद्यालय में बिजली, पानी, खाने और इंटरनेट की सुविधाएं बंद करने की भी खबरें आयीं. मीडियाकर्मियों को पीटा गया और उन्हें अन्दर नहीं घुसने दिया गया. इससे पहले हैदराबाद यूनिवर्सिटी में रोहित वेमुला की आत्महत्या के बाद इसका जोरदार प्रतिरोध हुआ, रोहित ने जाति के सवाल को एजेंडे पर ला दिया था. सरकार और विश्वविद्यालय प्रशासन दोनों दबाव में आ गए थे, लेकिन जेएनयू प्रकरण ने सरकार और संघ परिवार को एक ऐसा मौका दे दिया, जिससे वे एजेंडे पर आये जाति के सवाल को बायपास करते हुए ‘राष्ट्रवाद’ की पसंदीदा पिच पर वापस लौट सकें.

जेएनयू विवाद की शुरुआत 9 फरवरी को हुई थी, जब वाम संगठन डीएसयू के पूर्व सदस्यों द्वारा जेएनयू परिसर में अफजल गुरू की फांसी के विरोध में आयोजित कार्यक्रम को लेकर कुछ टीवी चैनलों द्वारा दावा किया गया कि इसमें कथित रूप से भारत-विरोधी नारे लगाये गये हैं. बाद में ऑल इंडिया स्टूडेंट्स फेडरेशन से जुड़े जेएनयू छात्रसंघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार को देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया. कुछ दिनों बाद उमर खालिद और अनिर्बन भट्टाचार्य की भी गिरफ्तारी हुई.


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इसके साथ ही पूरे देश में एक खास तरह का माहौल बनाया गया और वामपंथियों, बुद्धिजीवियों व इसके खिलाफ आवाज उठाने वाले दूसरे विचारों, आवाजों को देशद्रोही साबित करने की होड़ मच गयी. जेएनयू जैसे संस्थान को देशद्रोह का अड्डा साबित करने की कोशिश की गयी, गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने तो यह दावा कर डाला कि जेएनयू की घटना को हाफिज सईद का समर्थन था. जिस मसले को यूनिवर्सिटी के स्तर पर ही सुलझाया जा सकता था, उसे एक राष्ट्रीय संकट के तौर पर पेश किया गया. इस मामले को लेकर जेएनयू की एक उच्च स्तरीय इंटरनल कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि कार्यक्रम में बाहरी लोगों ने देशविरोधी नारे लगाये थे.

शैक्षणिक संस्थानों में जो कुछ भी हो रहा है उसे सामान्य नहीं कहा जा सकता. इसका असर देशव्यापी है. कुछ लोग इसे संघ परिवार की नयी परियोजना बता रहे हैं जो संघ के राष्ट्रवाद के परिभाषा के आधार पर जनमत तैयार करने की उसकी लम्बी रणनीति का एक हिस्सा है. इतिहासकार रोमिला थापर इसे धार्मिक राष्ट्रवाद और सेकुलर राष्ट्रवाद के बीच की लड़ाई मानती हैं. कुछ भी हो इन सबके बीच आज राष्ट्रवाद ध्रुवीकरण का नया हथियार है, जिसका इस्तेमाल वैचारिक राजनीति और आने वाले चुनावों दोनों में देखने को मिलेगा. 19 और 20 मार्च को हुए को भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में जिस तरह से राष्ट्रवाद पर राजनीतिक संकल्प पारित किया गया उससे यह स्पष्ट हो गया है कि पांच राज्यों में हो रहे विधानसभा चुनाव में भाजपा इसे प्रमुख मुद्दा मानती है. इससे पहले 11-13 मार्च को नागौर में हुए आरएसएस की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा की बैठक में भी सरकार्यवाह द्वारा ‘राष्ट्रीय परिदृश्य’ पर जो रिपोर्ट पेश की गई थी उसमें भी जेएनयू और हैदराबाद विश्वविद्यालय के बारे में चर्चा करते हुए कहा गया था कि ‘यहां योजनापूर्वक देशविरोधी गतिविधि चलानेवाले व्यक्ति एवं संस्थाओं के प्रति समाज सजग हो और प्रशासन कठोर कार्रवाई करें.’ सोसायटी अगेंस्ट कनफ्लिक्ट एंड हेट(सच) नाम की संघ की एक करीबी संस्था है, ‘सच’ का कहना है कि वह देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों में मोदी सरकार के खिलाफ तैयार किए जा रहे माहौल के खिलाफ अभियान चलाएगी और इस काम में देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों में राष्ट्रवादी सोच रखने वाले छात्रों, शिक्षकों व बुद्धिजीवियों को जोड़ा जाएगा. सरकार में बैठे लोग भी इसे वैचारिक लड़ाई मान रहे हैं. वित्तमंत्री अरूण जेटली का कहना है कि राष्ट्रवाद की ‘वैचारिक लड़ाई’ का पहला दौर हमने जीत लिया है. इससे पहले भारतीय जनता युवा मोर्चा के दो दिवसीय राष्ट्रीय अधिवेशन के समापन भाषण में भी उन्होंने कहा था कि जेएनयू मामले में हमारी वैचारिक जीत हुई है.

अरूण जेटली इसे भले ही अपनी वैचारिक जीत बता रहे हों लेकिन बेबुनियादी रूप से कन्हैया कुमार को जेल में डालने से उनका वैचारिक पक्ष बैकफुट पर चला गया है. जेल से वापिस आने के बाद कन्हैया कुमार ने कहा भी था कि जब लड़ाई विचारधारा की हो तो व्यक्ति को बिना मतलब का पब्लिसिटी नहीं देनी चाहिए. कन्हैया के मामले में भाजपा ने यही गलती की है. ज़मानत के बाद जिस तरह से कन्हैया कुमार ने अपना पक्ष रखते हुए लगातार संघ परिवार और मोदी सरकार को वैचारिक रूप से निशाना बनाया है, उससे सभी हैरान है और उनकी गिरफ्तारी को बड़ी भूल बता रहे हैं. अपनी रिहाई के कुछ घंटों बाद ही उन्होंने जेएनयू कैम्पस में जो भाषण दिया था, वह कुछ ही घंटों में पूरे मुल्क में जंगल की आग की तरह फ़ैल गया. भाषण इतना असरदार था कि टी.वी. चैनलों द्वारा इसका कई बार प्रसारण किया गया जिसकी वजह से उनकी बातों को देश के सभी हिस्सों में सुना-समझा गया. इसके बाद लोग कहने लगे कि जोरदार भाषण देने के मामले में प्रधानमंत्री मोदी को इस जोशीले छात्र के रूप में अपना जोड़ीदार मिल गया है. अब उन्हें एक उभरते हुए रहनुमा के तौर पर देखा जा रहा है, जो लिबरल सोच और मार्क्सवाद का हामी है. एक अंग्रेजी अखबार ने तो उन्हें भारत का सुर्ख सितारा करार दिया. अपनी रिहाई के पहले हफ्ते में उन्होंने 50 से ज्यादा इंटरव्यू दिए. वे लगातार जिस आक्रमकता और तीखे तरीके से मोदी सहित पूरे संघ परिवार की विचारधारा पर हमला बोल रहे हैं, उसने उन्हें मोदी और संघ विरोधियों का चहेता बना दिया और वे हिन्दुतत्ववादी राजनीति के खिलाफ एक चेहरा बन कर उभरे हैं.

जेएनयू से लेकर हैदराबाद यूनिवर्सिटी तक जो प्रतिरोध हो रहा है उसमें ‘नीले’ और ‘लाल’ में मेल और इसे एक नए राजनीतिक प्रतीक में बदलने की ध्वनि सुनाई पड़ रही है, यही इसका नयापन है. देखना यह है कि इस प्रतीक को धरातल पर उतारने के लिए दोनों तरफ से क्या प्रयास किये जाते हैं. भविष्य में अगर वामपंथ भारतीय समाज को देखने–समझने के अपने पुराने आर्थिक नज़रिए व रणनीति में बदलाव ला सका और बहुजन संगठन वामपंथ के प्रति अपने दृष्टिकोण को व्यापक कर सके तो आने वाले सालों में हमें एक नया राजनीतिक प्रयोग देखने को मिल सकता है. यह भारत में ब्राह्मणवाद और पूँजीवाद के खिलाफ साझी लडाई होगी, जिसके प्रतीक बाबा साहेब अम्बेडकर और शहीद भगत सिंह होंगें. फिलहाल रोहित वेमुला और कन्हैया नई उम्मीद, अपेक्षाओं और संघर्षों के प्रतीक बन चुके हैं लेकिन क्या भारत की वामपंथी और अंबेडकरवादी ताकतें खुद को इतना बदल पाएंगी कि वहां कन्हैया और रोहित को एक साथ अपने में समा सकें? यह विलय का एक ऐसा प्रश्न है जिसका जवाब नितांत लोकतांत्रिक प्रक्रिया से ढूंढना होगा.

[जावेद पत्रकार हैं और भोपाल में रहते हैं. उनसे [email protected] पर संपर्क किया जा सकता है. ये उनके अपने विचार हैं.]