मेहसी: सरकार की मार झेलता ‘बिहार का मोती’

अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net

मेहसी (बिहार) : एक ज़माने में ‘बिहार का मोती’ कहा जाने वाला मेहसी अब बस एक नाम बनकर रह गया है. बिहार के भीतर चम्पारण के मेहसी की स्थिति सीप के भीतर बनने वाले मोती की तरह थी. मेहसी की कारीगरी सारी दुनिया में मशहूर थी. यहां बने सीप के बटन चीन और जापान तक अपनी सफलता के झंडा बुलंद कर चुके थे. बदलते वक़्त ने मेहसी की तक़दीर ही बदल डाली. सरकार की उपेक्षा और भीषण लापरवाही ने मेहसी की कारीगरी को कहीं का नहीं छोड़ा.


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बीते कई सालों से मेहसी में पनपा यह बटन का कारोबार अब धूल फांकने की कगार पर है. ज्यादा बदहाली यहां बीते दो सालों में आ गयी है. यहां बटन बनाने के कारखाने बंद होते दिख रहे हैं, और लोग दूसरे कामों की तलाश में ज़्यादा संभावनाएं देख रहे हैं.

पिछले दो सालों बिहार की इस धरोहर के हालात और भी बुरे साबित हुए हैं. केन्द्र सरकार के ज़रिए यहां जिस सार्वजनिक सुविधा केंद्र (कॉमन फैसिलिटी सेन्टर) की नींव रखी गई, उसका ताला आज तक नहीं खुला. हालांकि इस सेन्टर की स्थापना मेहसी की बटन की कारीगरी को नई ऊंचाई देने के मक़सद से की गयी थी, मगर बदहाली इस बात की गवाही दे रही है कि केन्द्र सरकार ने इस ओर पलट कर भी नहीं देखा.

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मेहसी के चकलालू इलाक़े में रहने वाले 58 वर्षीय नूर आलम अंसारी का का परिवार 1905 से सीप बटन के इस धंधे से जुड़ा हुआ है. लेकिन उनका कहना है कि अब आगे यह जुड़ाव कितने दिनों तक रहेगा, कहना मुश्किल है. उन्होंने अपने बच्चों को तो इससे दूर ही रखा है.

नूर बताते हैं, ‘1995 तक इस इलाक़े में 400 से अधिक सीप बटन की फैक्ट्रियां थीं पर अब 60 से 65 फैक्ट्रियां ही बची होंगी. कभी खुद मेरी फैक्ट्री में अच्छे-खासे लोग काम करते थे. अब सिर्फ 7-8 लोग ही काम करते हैं. इसके बावजूद दाल-रोटी चलाना मुश्किल ही हो रहा है.’

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गाँव में बनाए गए फैसिलिटी सेंटर के बारे में नूर आलम बताते हैं, ‘क़रीब ढाई-तीन साल पहले केन्द्र सरकार की स्फूर्ति योजना के तहत एक सेन्टर बनाया गया ताकि उसमें अच्छी तकनीक का इस्तेमाल करके बटन को अच्छी फिनिशिंग दीजा सके, लेकिन सेन्टर बिजली के अभाव में आज तक नहीं खुल पाया है.’

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‘चम्पारण एसोसियशन ऑफ रूरल डेवलपमेंट’ नामक संस्था के सचिव मो. इरशाद का कहना है, ‘1995 में इस सीप बटन इंडस्ट्री में चीन भी कूद पड़ा. उसने नई तकनीक का उपयोग करके मेहसी के बटन से भी सस्ते बटन बाज़ार में उतार दिये. मेहसी के बटन के मुक़ाबले चीन के बटन की क्वालिटी ज़्यादा बेहतर है. बस इसी को टक्कर देने के लिए केन्द्र सरकार की स्फूर्ति योजना के तहत एक कॉमन फैसिलिटी सेन्टर का निर्माण किया गया. यहां कई आधुनिक मशीनों को मंगाया गया है, ताकि यहां के बटन की क्वालिटी को बेहतर बनाकर पूरी दुनिया में फिर से भेजा जा सके.’

कहानी यहीं ख़त्म नहीं होती. केन्द्र सरकार ने यदि मेहसी को ज़ख़्म दिए हैं तो राज्य सरकार ने इस ज़ख़्म पर नमक लगाने का ही काम किया है. राज्य की ज़िम्मेदारी मेहसी को बिजली की सुविधा देनी थी, मगर मेहसी की हालत यह है कि बिजली के तार तो हर तरफ़ नज़र आते हैं. लेकिन इन तारों में बिजली की सिहरन का एहसास करने के लिए भी घंटों और कई बार दिनों का इंतज़ार करना पड़ता है. जबकि चम्पारण के इसी क्षेत्र में अन्य जगहों पर बिजली 18 से 20 घंटों तक रहती है.

यहां रहने वाले महमूद अंसारी व सतेन्द्र कुमार बताते हैं कि मेहसी में बिजली मुश्किल से 7-8 घंटे रहती है, लेकिन बिजली 7-8 घंटों के लिए कब आएगी, किसी को पता नहीं. अब वे रात में तो काम कर नहीं सकते.

36 साल के शम्सुद्दीन बताते हैं, ‘20 साल से इस काम में लगा हूं. 6 लोगों का परिवार है और पूरे दिन काम करने के बाद कमाई सिर्फ़ 200 रूपये ही हो पाती है. अब आप ही बताइये कि महंगाई के इस दौर में बच्चों का पेट कैसे पालूं?’ शम्सुद्दीन यह भी बताते हैं कि अब मेहसी के मजदूर बिहार से पलायन कर रहे हैं, ताकि वे बाहर कुछ ज़्यादा कमाकर अपने परिवार का पेट पाल सकें.

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26 साल के यादव लाल शाह बचपन से ही बटन बनाने का काम करते हैं. वे बताते हैं कि 8 लोगों का परिवार है. पूरे दिन काम करके 140 रूपये की कमाई होती है. पत्नी भी यही काम करती है. उन्हें110 रूपये ही मिलते हैं. बस इसी में किसी तरह से पेट पाल रहे हैं.

मो. शब्बीर के भीतर नेताओं व खासतौर पर मीडिया के लोगों के प्रति काफी नाराज़गी है. गुस्से में कहते हैं, ‘अगली बार कोई मीडियावाला आया तो उसका कैमरा ही फोड़ दूंगा. सिर्फ़ आते हैं और हमारा फोटो खींचकर चले जाते हैं. उनकी तक़दीर तो बदल जाती है, लेकिन हम अभी भी वहीं के वहीं हैं.’

25 साल के सफ़रोज़ भी पिछले 6-7 सालों से यही काम कर रहे हैं. वे बताते हैं. ‘सिर्फ़ मुख्य मेहसी गांव में ही 5 साल पहले तक 60-70 कारखाने थे, पर अब सिर्फ़ 10 कारखाने बचे हैं. अगर ऐसा ही चलता रहा तो कारखाने ढूंढ़ने से भी नहीं मिलेंगे.’ सफ़रोज़ को महीने में सिर्फ़ ढाई हज़ार रूपये ही मिल पाते हैं. उमरजीत और व्यास राम की भी यही कहानी है.

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कड़वी हक़ीक़त यह है कि मेहसी के इस उद्योग को लेकर सबने खूब सियासत की है लेकिन इसे बचाने की चिन्ता शायद किसी को भी नहीं है. 2012 में खुद मुख्यमंत्री नीतिश कुमार ने अपनी ‘सेवा यात्रा’ के दौरान मेहसी के लोगों से वादा किया था कि वे इस उद्योग का कायाकल्प कर देंगे, लेकिन उसके बाद वो या उनके अधिकारी आज तक यहां कभी झांकने भी नहीं आएं.

पूर्व उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी ने भी कभी इस इंडस्ट्री में रूचि दिखाई थी. यहां के लोगों से कई वादे किए थे, पर उन्होंने भी यहां के लोगों को धोखा देने का ही काम किया.

इस मेहसी में जहां एक ओर बिजली से चलने वाली छोटी-मोटी मशीने हैं, वहीं मंजन छपरा व बथना में आज भी लोग हाथ से चलने वाले मशीनों पर ही काम करते हैं. हाथ से चलने वाले एक फैक्ट्री के मालिक श्रीनाथ प्रसाद बताते हैं, ‘1985 से यह फैक्ट्री चला रहा हूं. सुबह 6 बजे से लेकर शाम 6 बजे तक काम होता है. लेकिन बड़ी मुश्किल से महीने के 13-14 हज़ार रूपये ही बच पाते हैं. वो भी अगर काम हुआ तो. सावन-भादो में तो पूरे दिन बैठना ही पड़ता है.’

वो आगे बताते हैं, ‘ऐसा नहीं है कि मेहसी के बटन की मांग नहीं है. बाज़ार में खूब मांग है. लेकिन सारा फ़ायदा बिचौलिए को हो रहा है. वे हमसे खरीदकर इसी बटन को दोगुनी-तिगुनी क़ीमत पर दिल्ली व मुम्बई के बाज़ार में बेचते हैं. फिर वहां उसकी थोड़ी और फिनिशिंग करके फिर उसे भारी क़ीमत पर भारत से बाहर दूसरे मुल्कों में बेच दिया जाता है.’

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नूर आलम बताते हैं, ‘1728 बटन का एक ग्रेड होता है और एक ग्रेड की क़ीमत 250 रूपये से लेकर 700 रूपये तक है पर बड़े शहर में वह दोगुनी क़ीमत पर बिकता है.’

‘चम्पारण एसोसियशन ऑफ रूरल डेवलपमेंट’ के मो. इरशाद इस सीप बटन उद्योग का इतिहास काफी बेहतर ढंग से बताते हैं. उनके मुताबिक़, ‘1905 में मेहसी का यह सीप उद्योग शुरू हुआ. मेहसी के राय भुलावन लाल सबसे पहले गंडक नदी से सीप लेकर आए और उसे हाथ से तराश कर बटन बनाया. फिर वह इसके लिए जापान गए. वहां के सीप बटन के कारखानों को देखा और फिर लौटकर अपने एक मित्र अंबिका चरण के मदद से यहां हाथ से चलने वाली मशीनों को बनाया. फिर बाद में महमूद आलम और अलाउद्दीन अंसारी नाम के दो भाईयों ने डीजल इंजन से चलने वाली मशीनों को बनाया.’

मो. इरशाद आगे बताते हैं, ‘1980 का दौर इस इस धंधे का गोल्डेन एरा माना जाता है. यहां के बटन की पूरे दुनिया में खूब धूम मची. यहां के बटन जापान व चीन तक गए. हालांकि आज के बटन की मांग है. यूरोप के देशों में आज भी यहां का बटन जाता है और आपको बता दूं कि पूरे भारत में सीप के बटन सिर्फ़ चम्पारण के मेहसी में ही बनते हैं.’

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मेहसी के सीप बटन 1985 तक विश्वपटल पर चीन व जापान को टक्कर देते थे. लेकिन अपने देश में अत्याधुनिक मशीनों का विकास नहीं होने के कारण परंपरागत मशीनों से बने बटन की मांग घटती गई. रही-सही कसर प्लास्टिक के बनने वाले बटनों ने पूरी कर दी.

मेहसी में सीप के बटन के साथ-साथ सीप के आभूषण भी बनाए जाते हैं. साड़ी के पिन से लेकर माला व आईने की साज सज्जा भी की जाती है. और यहां के बने ये सामान भारी क़ीमत पर गोवा और मुम्बई के समुद्र तटों पर बिकते हैं. हर तरह की प्रदर्शनियों में यहीं से सारे सामान जाते हैं, जिनकी रईसों के बीच काफी पूछ है लेकिन इन गरीबों की क़दर की आज तक किसी ने कोई परवाह नहीं की.

मेहसी की बदहाली बिहार के छोटे व कुटीर उद्योग-धंधों के वजूद पर घातक चोट की तरह से है. रोज़गार के इन साधनों से लाखों गरीब-गुरबों की ज़िन्दगी सीधे तौर पर जुड़ी हुई है. केन्द्र व राज्य सरकारों के लिए यह मुद्दा शायद ग़ौर करने के क़ाबिल ही नहीं है. ऐसे में गरीब और लाचार कारीगर अपनी क़िस्मत के सहारे भूख और बेरोज़गारी के मुश्किल दिनों को जैसे-तैसे एक करने में लगे हुए हैं.

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