मज़हब की राजनीति में गायब होते मुस्लिमों और दलितों के सवाल

आसिफ़ इक़बाल

यह अजीब मज़ाक़ है कि राजनीतिक नेता न केवल विभिन्न धर्म के मानने वालों के मार्गदर्शक बने हुए हैं बल्कि समाज भी आमतौर पर उन्हें इसी रूप में देखता है. इसके बावजूद कि उनका व्यावहारिक जीवन धर्म से दूरी का बहुत बड़ा सबूत है. कुछ यही बात आजकल देश की बहुसंख्य आबादी हिन्दुओं के संबंध में है. वहीं अल्पसंख्यकों की स्थिति भी कुछ अलग नहीं है.


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मौजूदा सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी हिंदुओं के एक बड़े वर्ग का सभी स्तरों पर मार्गदर्शन करती नज़र आती है. और हिन्दू भी उन्हें अपना मसीहा मानते हैं. हिंदू धर्म व संस्कृति की सुरक्षा एवं संरक्षण और उसका गठन इस विशेष पार्टी से जुड़कर रह गया. दूसरी ओर समाज का कमज़ोर वर्ग, जिसे आमतौर पर दलित कहा जाता है, वह भी अपनी अवधारणा और विचारधारा की पदोन्नति, अस्तित्व और सुरक्षा के लिए बहुजन समाज पार्टी की ओर नज़रें उठाए नज़र आता है. तीसरी ओर देश के मुसलमान, जो हालांकि अपने अस्तित्व और सुरक्षा के लिए किसी एक विशेष राजनीतिक दल की ओर आकर्षित नहीं हैं, इस कोशिश और सुबहे में रहते हैं कि उन्होएँ राजनीतिक पार्टी से जो अपना संबंध जोड़ा है, उसका उद्देश्य केवल यही है कि केवल मुसलमानों की समस्याओं को हल किया जाए और उन्हें सुरक्षा मिले.

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यहां भी देखा जाए तो इस पृष्ठभूमि में इन मुस्लिम नेताओं को देखने का रिवाज आम हो गया है. यही कारण है कि मुसलमान उन्हें सफल करते हैं और अपना राजनीतिक व धार्मिक मसीहा समझते हैं. शायद वह इसलिए भी उन्हें अपना मसीहा समझते हैं कि उनका मानना है कि राज्य की नीतियां और कानून जो अवसर प्रदान करता है, उस पर पालन किए जाने में वह नेता मददगार होंगे. साथ ही जो मौजूद अवसर हैं, उन्हें प्राप्त करने में भी सहायक होंगे. परन्तु घटना यह है कि जो धारणा इन राजनीतिक नेताओं और दलों के संबंध में स्थापित की गयी है, वह सच्ची नहीं है. इन राजनीतिक दलों और दलप्रमुखों की कथनी और करनी में विरोधाभास है और धर्म और धार्मिक विश्वासों व विचारों से वे बहुत दूर हैं.

फिलहाल देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में अगले साल चुनाव होने वाले हैं इसलिए उत्तर प्रदेश की सामाजिक व धार्मिक स्थिति को सामने रखते हुए देश में घटित विभिन्न दुर्घटनाओं और परिस्थितियों पर राजनेता अपनी प्रतिक्रिया सामने ला रहे हैं. आप कह सकते कि चूंकि वे विभिन्न वर्गों के प्रतिनिधि हैं, इसलिए उनकी जिम्मेदारी है कि वह अपनी प्रतिक्रिया सामने लाएं. लेकिन हमारे विचार में यह बात इसलिए सही नहीं है कि जिस योजना के साथ आजकल राजनीतिक गतिविधियां जारी हैं, वे इससे पहले, पिछले साल की घटनाओं के बाद, अपनी प्रतिक्रिया इस तरह नहीं दे रहे थे जिस तरह आज दलित समाज ने संगठित रूप में गुजरात घटना के बाद अपनी भावनाओं को व्यक्त किया.

हमें इससे सरोकार नहीं कि कौन किस समय किस मुद्दे पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करता है. सरोकार इस बात से है कि इस वर्ग (दलित वर्ग) के अधिकांश नेता जो जीवन के सबसे अच्छे काल, जवानी में, वर्ग की समस्याओं के लिए संघर्ष करते नज़र आते हैं, अपनी विचारधारा, समस्या और सामाजिक ताने-बाने के खिलाफ मौजूद शक्तियों को ज़बानी और कहीं-कहीं व्यावहारिक भी कोशिश करते नज़र आते हैं, वे आखिरकार क्यों जीवन के अंतिम काल में प्रवेश करते समय, अपनी विचारधारा, समस्या और सामाजिक ताने-बाने के खिलाफ संगठित और सुनियोजित संघर्ष करने वालों के मददगार बन जाते हैं? जिस तरह बुढ़ापे की हालत में इंसान की मांसपेशियां कमज़ोर हो जाती हैं, ठीक उसी तरह राजनीतिक और सामाजिक स्तर पर वह ज़िन्दगी के उस आखिरी काल में कमजोर क्यों दिखते हैं? और यह तब होता है जबकि वह राजनीतिक और सामाजिक स्तर पर एक बड़ा स्थान हासिल कर लेते हैं?

तथ्य यह है कि राजनीतिक और सामाजिक दोनों ही स्तरों पर भाजपा और बसपा एक दूसरे के प्रतिद्वंद्वी हैं. इसके बावजूद बहुजन समाज पार्टी के नेता या वह लोग जो इस समुदाय का प्रतिनिधित्व करते हैं, जीवन के अंतिम दौर में उसी प्रतिद्वंद्वी के साथ खड़े नज़र आते हैं जिनके खिलाफ जीवन भर वह आवाज उठाते आए हैं? क्या वे समझते हैं कि राजनीतिक सत्ता ही सब कुछ है? या उनका मानना है कि समाज में अपमानजनक ज़िन्दगी से निकलकर सम्मानित जीवन केवल राजनीतिक स्तर पर नज़र आने वाली कामयाबी से ही प्राप्त किया जा सकता? क्या इज़्ज़त की ज़िन्दगी राजनीतिक स्तर पर ही कुछ कामयाबी पा लेना है? या सम्मान यह है कि इंसान जिस विश्वास और सिद्धांत से जुड़ा है उस पर प्रतिबद्ध रहते हुए समस्याओं का धैर्य के साथ प्रतिस्पर्धा करते हुए इस परिमित दुन्या से विदा हो जाए? संभव है आपके मन में यह सवाल उठ रहा हो कि इस लेख में यह समस्याएं व प्रश्न क्यों पूछे जा रहे हैं? यदि आप ऐसा सोच रहे हैं तो मैं समझता हूँ कि मेरी कोशिश बेकार नहीं जाएगी और उपयोगी साबित होगी.क्योंकि संबोधित आप और हम ही हैं, यानी वे लोग जो दिन रात और ज़िन्दगी के बड़े हिस्से में इन समस्याओं से प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष प्रभावित होते हैं. सही बात यह है की यह समस्याएं हमारी ही हैं, नही तो देश के नेता और राजनीतिक दलों के लोगों को तो सिर्फ वोट से मतलब है, हम और आप एक बार वोट दे दें और वह जीत जाएं, उसके बाद उनको हमारी कोई समस्या नज़र ही नहीं आती. इन हालात में इन प्रश्नों को छेड़ कर अगर हम और आप इस पर नही सोचेंगे तो बताइए कौन सोचेगा?

बहुजन समाज पार्टी की प्रमुख मायावती ने कहा है कि समाज जागरूक हो जाए तो वह करोड़ों लोगों के साथ बौद्ध धर्म अपना लेंगी. मायावती ने कहा है कि बाबा साहेब अंबेडकर ने भी बौद्ध धर्म अपनाने में जल्दबाज़ी नहीं की थी और जीवन के अंतिम समय में बौद्ध धर्म अपनाया था. मायावती का यह बयान महाराष्ट्र के दलित नेता अठावले के बयान के बाद आया था जिसमें अठावले ने अंबेडकर के नाम पर मायावती पर राजनीति करने का आरोप लगाया था और कहा था कि वह अंबेडकर के नाम पर राजनीति तो करती हैं लेकिन उनके विचारों को नहीं मानती. जवाब में मायावती ने पलटवार करते हुए कहा कि रामदास अठावले भाजपा की गुलामी में बाबा साहेब अंबेडकर के आंदोलन को आघात पहुंचा रहे हैं. साथ ही यह भी कहा कि अठावले दलितों को गुलाम बनाने की मानसिकता रखने वाले भाजपा के एजेंडे पर काम करना बंद करें और दलित गठबंधन को न तोड़ें. वह यह भी कहती सुनी गयीं कि वह खुद सच्ची अंबेडकरवादी हैं और उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में अपनी हार के डर से भाजपा धर्म की आड़ में राजनीति कर रही है. इसी उद्देश्य से भाजपा ने हाल में बौद्ध धर्म यात्रा शुरू की है. साथ ही आरोप लगाया कि संघ और नरेंद्र मोदी ने अपने राजनीतिक हित के मद्देनज़र ही बौद्ध धर्म की प्रशंसा शुरू की है, इसके विपरीत वह बौद्ध धर्म की शिक्षाओं को नहीं मानते और उनके मानने वालों पर अत्याचार करने वालों को सुरक्षा प्रदान करते हैं.

मायावती और अठावले के बयान-दर-बयान और इस पूरी बातचीत की पृष्ठभूमि में क्या यह राजनीतिक नेता हमारे धार्मिक राहनुमा हो सकते हैं? क्या इन नेताओं को कामयाब और नाकाम करने में हम इसलिए अपनी भूमिका निभाते हैं क्योंकि ये हमारे मार्गदर्शक हैं? क्या आप इन राजनीतिक दलों और उनके नेताओं को धार्मिक मार्गदर्शक मानने को तैयार हैं? अगर नही, तो फिर हम और आप धर्म के नाम पर इन नेताओं, उनकी राजनीतिक पार्टियों और पार्टियों के मंच से होने वाले भड़काऊ भाषणों से इतने भावुक क्यों हो जाते हैं? क्या कभी आपने सोचा है कि इस देश में धर्म के नाम पर राजनीति करने वालों के साथ, हम और आप कब तक हिस्सेदारी निभाते रहेंगे.

[आसिफ इक़बाल स्वतंत्र लेखक हैं. वे दिल्ली में रहते हैं. उनसे [email protected] पर संपर्क किया जा सकता है.]

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