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राष्ट्रगान : क्या ये अनिवार्यता सिर्फ़ आमजन के लिए है?

नैय्यर इमाम सिद्दीक़ी

सुप्रीम कोर्ट ने सिनेमाघरों में फ़िल्म से पहले राष्ट्रगान के संबंध में एक विशेष निर्देश जारी किया है कि पूरे देश के सिनेमाघरों में फ़िल्म शुरू होने से पहले राष्ट्रगान बजाना अनिवार्य होगा. इसके तहत राष्ट्रगान के दौरान स्क्रीन पर राष्ट्रीय ध्वज भी दिखाना होगा. निर्देश में कहा गया है कि राष्ट्रगान का किसी भी तरह का नाट्यरूपांतरण नही होना चाहिए और सिनेमाघर में राष्ट्रगान और तिरंगे के सम्मान में हर व्यक्ति को खड़ा होना चाहिए. सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश दिया है कि राष्ट्रगान बजाने के लिए कोई व्यक्ति आर्थिक लाभ नहीं कमा सकता. साथ ही ‘जन गण मन’ को किसी अवांछित चीज पर दिखाने या प्रिंट करने पर भी रोक लगाई गई है. केंद्र सरकार ने भी सुप्रीम कोर्ट के इस निर्देश पर सहमति जताई है.

सुप्रीम कोर्ट में अटर्नी जनरल मुकुल रोहतगी ने कहा कि केंद्र सरकार यह आदेश 10 दिन में लागू करने का इंतज़ाम करे. कोर्ट का यह आदेश सारे राज्यों तथा केंद्र शासित प्रदेश में जारी होगा और इसके बारे में इलेक्ट्रानिक और प्रिंट मीडिया द्वारा व्यापक जागरुकता भी फैलाई जाएगी. जस्टिस दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली बेंच ने कहा कि “राष्ट्रगान का सम्मान करना हर भारतीय का कर्तव्य है, भारतीयों को ये एहसास होना चाहिए कि राष्ट्रगान देश की एकता का प्रतीक है और अब वो दौर आ चुका है जब भारतीय इस बात का अहसास करें कि भारत मेरा अपना देश है और राष्ट्रगान के सम्मान के लिए खड़ा होना हमारी अनिवार्यता.” कोर्ट ने केंद्र सरकार से कहा कि संविधान के अनुसार राष्ट्र गान 52 सेकंड में ही गाया जाना चाहिए.

राष्ट्रगान किसी भी राष्ट्र का गौरव और सम्मान होता है और सभी देशवासियों को अपने राष्ट्रगान का सम्मान दिल से करना चाहिए लेकिन आप किसी से भी ज़बरदस्ती राष्ट्रगान का सम्मान नहीं करा सकते. राष्ट्रप्रेम और राष्ट्रीय प्रतीकों के प्रति सम्मान स्वतःस्फूर्त होता है, इसे ज़बरदस्ती नहीं जगाया जा सकता. भारतीय संविधान के अनुच्छेद 51A भी ‘मूल कर्तव्यों’ के तहत अपने देश के नागरिकों को यह निर्देश देता है कि वे राष्ट्र प्रतीकों (राष्ट्रध्वज और राष्ट्रगान सहित) का सम्मान करें लेकिन संविधान ने इसके लिए किसी को बाध्य नहीं किया है.

जिस देश के सर्वोच्च नयायालय ने सिनेमाघरों में राष्ट्रगान अनिवार्य करने वाला फ़रमान जारी किया है उसी देश में 52 सेकण्ड के राष्ट्रगान को तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता ने शुभ मुहूर्त में शपथ लेने के लिए बीच में रुकवा दिया तो उत्तर प्रदेश के राज्यपाल राम नाईक ने एकता का संदेश पढ़ने के लिए. मुख्यमंत्री और राज्यपाल जैसे संवैधानिक पदों पर बैठे लोग जब राष्ट्रगान का अपमान करते हैं तब आपकी देशभक्ति कहां चली जाती है? तब आपका ख़ून उबाल नहीं मारता? राष्ट्रप्रेम अब धर्म के लिटमस टेस्ट और राजनीतिक रिएजेंट का मोहताज हो गया है. क्या माननीय अदालत ने जब राष्ट्रगान की अनिवार्यता का हुक्म सुनाया तब उपरोक्त घटना को संज्ञान में लिया गया था या नहीं? अगर लिया गया था तो राष्ट्रगान का अपमान करने वालों पर कार्रवाई क्यों नहीं की गई और अगर नहीं लिया गया था तो फिर अनिवार्यता का क्या औचित्य? क्या ये अनिवार्यता सिर्फ़ आमजन के लिए है? क्या अतिविशिष्ट लोगों को इस अनिवार्यता से छूट दी गई है?

मद्रास हाईकोर्ट ने 10 साल पहले यानी 2005 में ही कह दिया था कि बन्द कमरे में राष्ट्रगान नहीं बजाया जा सकता और अगर बजता है तो राष्ट्रगान के सम्मान में खड़े होने की कोई अनिवार्यता नहीं है. ये फैसला 1971 एक्ट और 2002 के नेशनल फ़्लैग कोड के नियम अनुसार दिया गया था तो अब सुप्रीम कोर्ट ने जो फ़रमान जारी किया है क्या वो संविधान से परे जाकर सुनाया है? ‘जन गण मन’ भारत का आधिकारिक राष्ट्रगान है और राष्ट्रगान बजने पर देश के नागरिकों से अपेक्षा की जाती है कि वे सावधान की मुद्रा में खड़े होकर राष्ट्रध्वज और राष्ट्रगान का सम्मान करें. प्रिवेंशन ऑफ इंसल्ट्स टू नेशनल ऑनर एक्ट, यानी राष्ट्रीय सम्मान अधिनियम 1971 के सेक्शन तीन के अनुसार ‘जान-बूझकर जो कोई भी किसी को राष्ट्रगान गाने से रोकने की कोशिश करेगा या इसे गा रहे किसी समूह को किसी भी तरह से बाधा पहुंचाएगा, उसे तीन साल तक कैद या जुर्माना (या दोनों) भरना पड़ सकता है.’ हालांकि इस कानून में राष्ट्रगान गाने या बजाने के दौरान बैठे रहने या खड़े होने के बारे में कुछ नहीं कहा गया है. सुप्रीम कोर्ट भी पहले इस मामले पर कह चुका है कि ऐसा कोई क़ानूनी प्रावधान नहीं है कि किसी को राष्ट्रगान गाने के लिए बाध्य किया जाए फिर इस बार उसी सुप्रीम कोर्ट ने अनिवार्यता का नियम किस क़ानून के तहत लागू किया है, यह आम अमझ से परे है.

5 जनवरी 2015 को भारत सरकार द्वारा जारी किए गए आदेशों के जनरल प्रावधान में कहा गया है कि जब भी राष्ट्रीय गान गाया या बजाया जाता है, दर्शकों को सावधान की मुद्रा में खड़ा होना चाहिए. हालांकि अगर राष्ट्रगान किसी प्रदर्शनी, डाक्यूमेंट्री या फ़िल्म के एक भाग के रूप में बजाया जाता है तो दर्शक खड़े हो कर विकार या भ्रम पैदा करने या उसे बाध्य करने की बजाय राष्ट्रगान के सम्मान में बैठे रह सकते हैं. इसके अलावा, सिनेमेटोग्राफ़ नियम 1983 के अनुसार यदि कोई फ़ीचर फिल्म जो 35 मिमी या संबंधित अन्य गेज में फ़िल्माई गयी हो या 2000 मीटर से अधिक लंबाई वाली काल्पनिक कहानी जिसे फ़िल्म के रूप में परिभाषित किया गया है वो इस राष्ट्रगान की अनिवार्यता वाले नियम के दायरे में नहीं आतीं ऐसे में इस अनिवार्यता वाले क़ानून का क्या होगा? क्या सरकार एक बार फिर ‘U-टर्न’ लेगी या बंद कमरे के दौरान बजाए जा रहे राष्ट्रगान पर खड़े न होने की आज़ादी के हक़ पर अनिवार्यता के दमन का दौर जारी रहेगा?

[नैय्यर इमाम स्कॉलर और स्वतंत्र पत्रकार हैं. उनसे [email protected] पर संपर्क किया जा सकता है.]