बाबरी मस्जिद की शहादत : अभी ज़रुरत है निर्णय की

मुदस्सिर अहमद

6 दिसंबर की तारीख हिंदुस्तानी मुसलमानों के लिए एक डरावने सपने की तरह है क्योंकि इसी दिन शांति के दुश्मन हिंदू कट्टरपंथियों ने सदियों से खड़ी उज्ज्वल इतिहास की गवाह बाबरी मस्जिद को शहीद कर डाला था और यही वह दिन था जब महान भारत में हिंदू और मुसलमानों के बीच नफरत की मज़बूत दीवार खड़ी कर दी गई थी. इसलिए विचारक और बुद्धिजीवी उसी दिन को मौजूदा सांप्रदायिक दंगों बुनियाद मानते हैं.


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जब कानून के रखवाले ही कानून की सर्वोच्चता को चुनौती देने लगें तो फिर इन्साफ की उम्मीद करना रेत से प्यास बुझाने के बराबर हो जाता है. बाबरी मस्जिद और राम जन्मभूमि मंदिर के हवाले से न्यायालय के विवादास्पद फैसले के बाद एक बार फिर से बाबरी मस्जिद का मुद्दा अदालत में है और अंतिम फैसला आना अभी बाकी है लेकिन इसके बावजूद आरएसएस और उसके हमनवा हिंदू संगठनों के साथ-साथ भाजपा के कुछ नेता भी सुप्रीम कोर्ट में लंबित मामले को पीछे डालकर अयोध्या में मंदिर निर्माण को लेकर आए दिन भड़काऊ बयान जारी करते रहते हैं.

हालांकि बाबरी मस्जिद के बारे में बहुत कुछ लिखा जा चुका है लेकिन जब भी इस मामले को अलोकतांत्रिक रुख देने की कोशिश की जाती है तो यह जरूरी हो जाता है कि छवि की सही दिशा दिखाई जाए ताकि हममें से कोई भी निरक्षर न रह जाए.

सवाल यह है कि आखिर संघ परिवार के लोग न्यायालय पर भरोसा न करते हुए क्यों मामले को अपने हाथ में लेना चाहते हैं? वास्तव में उसके दो कारण हैं. एक तो यह कि उन लोगों को न्यायपालिका पर भरोसा नहीं है और वे कार्य योजना से न्यायपालिका की सर्वोच्चता को स्वीकार नहीं करते हैं. और उसकी दूसरा और महत्वपूर्ण कारण यह है कि उन्हें यह विश्वास हो चला है कि कभी भी फ़ासिस्ट ताकतों के पक्ष में अदालत का फैसला नहीं आ सकता क्योंकि फिर से अगर मज़हबी भावनाओं को निर्णय का आधार न बनाया गया तो सबूत न होने के आधार पर उम्मीद है कि यह फैसला मुसलमानों के पक्ष में होगा.

आम भारतीय नागरिक के लिए फ़िक्र और परेशानी की बात यह है कि बाबरी मस्जिद को लेकर संघ परिवार न्यायालय की प्रतिष्ठा को आहत करते फिर रहते हैं. क्या जनतंत्र के इतिहास में कोई और उदाहरण है कि अदालत में चल रहे मामले को अलोकतांत्रिक तरीके से खुद को हल करने की कोशिश की गई हो. एक ज़रूरी सवाल यह उठता है कि क्या हमारे देश की न्यायपालिका इतनी कमजोर है कि वह इस तरह के संवेदनशील मामले पर स्वतः निर्णय लेने में सक्षम नहीं है? अगर मामला ऐसा नहीं है तो फिर क्यों सरेआम अदालत की अवमानना करने वालों को पकड़ में नहीं लाया जाता?

24th anniversary of the babri Mosque demolition

तथ्य की अगर समीक्षा की जाए तो हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि लगभग 25 वर्ष का समय किसी मामले को हल करने के लिए अपर्याप्त नहीं हैं. आखिर फिर न्यायपालिका बाबरी मस्जिद मामले में निर्णायक निष्कर्ष पर पहुंचने में असमर्थ क्यों है? दो ही बात हो सकती है. एक यह कि राम जन्मभूमि के अस्तित्व का सबूत होगा या कि बाबरी मस्जिद किसी मंदिर को तोड़कर नहीं बनाई गई. तीसरी कोई और शक्ल नहीं हो सकती और यह कि अगर विरोधी पार्टी बाबरी मस्जिद की जगह राम जन्मभूमि को साक्ष्य के आधार पर साबित नहीं कर पा रहे हैं तो फैसला बाबरी मस्जिद के पक्ष में हो जा ना चाहिए. कहीं ऐसा तो नहीं कि शीर्ष अदालत को अज्ञात कारणों के आधार पर निर्णय लेने में देरी हो रही है?

बाबरी मस्जिद के मामले में मुसलमानों के दो स्पष्ट मत हैं. एक धार्मिक दृष्टि से और एक बतौर भारतीय होने के. धार्मिक दृष्टि से मत यह है कि ऐतिहासिक साक्ष्य के आधार पर मस्जिद कब्जे की भूमि पर निर्मित नहीं हुई है इसीलिए बाबरी मस्जिद मस्जिद ही रहेगी क्योंकि मस्जिद की शरई हैसियत यह है कि वह नींव के बाद से क़यामत तक मस्जिद ही रहती है, चाहे लम्बा वक़्त गुजरने की वजह से कमज़ोर हो जाए या किसी हमले की शिकार बन जाए, चाहे दुश्मनों के कब्जे में चली जाए या सुरक्षा के नाम पर इसे बंद कर दिया जाए. और बतौर भारतीय मुसलमानों को न्याय प्रणाली पर पूरा भरोसा है इसलिए मुसलमान अदालत के फैसले के इंतजार में हैं. यह अदालत की जिम्मेदारी है कि वह अपने निर्णय का आधार सबूत को बनाए न कि धार्मिक भावनाओं या आस्था को. यहाँ यह स्पष्ट रहे कि भारतीय संविधान के संदर्भ में भी मुसलमानों का हक बनता है कि उन्हें अपनी इबादतगाहों से वंचित न किया जाए क्योंकि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 30 के तहत मुसलमानों को पूर्ण धार्मिक स्वतंत्रता प्राप्त है.

यह एक ऐतिहासिक सत्य है कि जिस धरती पर न्याय की सर्वोच्चता स्थापित करना एक सपना बन जाता है उस धरती पर शांति के लिए किए गए प्रयासों का जनाज़ा निकल जाता है. जिस धरती के रहने वाले शक्तिशाली लोग न्यायपालिका के निर्णय को गलत तरीके से प्रभावित करने की कोशिश करते हैं, उस धरती पर निर्बलों को न्याय मिलना एक असंभव प्रक्रिया बन जाती है. ऐसे कितने ही मामले हैं जिसमें राजनीति की आड़ लेकर अपराधी सम्मानजनक नागरिक बने फिर रहे हैं और ऐसे भी कितने मामले हैं जिसमें कमजोर लोग सलाखों के पीछे अपने आंसुओं को सुखा चुके हैं.

अगर दर्दनाक कहानी को बयान कर दिया जाए तो बात खासतौर से 1989 के भागलपुर सांप्रदायिक दंगे और 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद की शहादत से शुरू होकर 2002 के गुजरात दंगे, 2013 के मुजफ्फरनगर दंगे और 2015 के दादरी हादसे से होकर बेगुनाहों के फर्जी एनकाउंटर तक पहुंच जाती है.

देश के इतिहास को एक भयानक मोड़ देने वाली इन घटनाओं की तह में जाकर अगर समीक्षा की जाए तो यह कड़वी बात सामने आती है कि इन सभी मामलों की कड़ी दो तरह के लोगों से जाकर मिलती है. उनमें से एक नेताओं का वर्ग है और दूसरा वर्ग पुलिस सेवा से जुड़े लोगों का. चूंकि इन दोनों वर्गों से निबटना जनता की पहुंच से बिल्कुल बाहर है इसलिए न्यायपालिका का दखल वक़्त की एक बड़ी ज़रूरत है ताकि असल मुजरिमों तक पहुंचकर उन्हें उनके अपराध के बदले सजा देकर न्याय किया जा सके. इसी के साथ बाबरी मस्जिद के शहादत की 24वीं वर्षगांठ पर हम भारत के सर्वोच्च न्यायालय से जल्द निर्णय सुनाने की अपील करते हैं, ताकि राजनीतिक माफियाओं को धर्म के नाम पर लोगों की भावनाओं के साथ खेल खेलने से रोक जा सके.

[लेखक मरकज़ुल मआरिफ़ एजुकेशन एंड रिसर्च सेन्टर मुम्बई में लेक्चरर और ‘ईस्टर्न क्रिसेंट’ मैगज़ीन के असिस्टेंट एडिटर हैं. उनसे [email protected] पर संपर्क किया जा सकता है.]

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