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जानिए, क्या सोचते हैं बनारस के हिन्दू रमज़ान और ईद के बारे में?

सिद्धांत मोहन, TwoCircles.net

वाराणसी: रमज़ान अब ख़त्म हो रहा है. बस एक या दो रोज़ और. फिर ईद. फिर इबादत का यह माह एक साल बाद ही मिलेगा. इसकी महत्ता को लेकर नेताओं और मुस्लिम समुदाय के लोगों ने बहुत बातें की हैं. इसकी पवित्रता को लेकर कई बातें हुई हैं, जिनमें से अधिकतर बात करने वाले मुस्लिम हैं. लेकिन स्वाद बदलने के लिए और जनता का हाल जानने के लिए हमने धर्म की नगरी काशी के हिन्दुओं से बात की और जानना चाहा कि रमज़ान के बारे मने उनकी समझ और उनका रवैया क्या और कैसा है?


Banaras Ramadan Representational

55 वर्षीय अपर्णा जितेन्द्र पेशे से टीचर हैं. रमजान के बारे में उनका कहना है कि यह हिन्दुओं के नवरात्र सरीखा है. उतना ही पवित्र और उतना ही पर्व से भरा हुआ. वे कहती हैं, ‘इसे एक महीना मानकर आगे बढ़ जाना तो बेवकूफी है. आप सोचिए कि इस एक महीने में क्या-क्या होता है? खाने-खिलाने का पूरा मज़मा लग जाता है और इसे मनाने वाले लोगों को देखिए. उनकी खुशियों को देखिए. इस त्यौहार को मनाने की उनकी ज़िद और जिम्मेदारी को देखिए, देखकर ही लगता है कि कितनी शिद्दत और इबादत छिपी हुई है इस एक त्यौहार में.’

वे त्यौहार के महत्त्व पर पेशेवर तरीके से बात नहीं करती हैं. वे कहती हैं, ‘लोग कहते हैं कि इबादत का महीना है या अल्लाह का महीना है. वह सब ठीक है. लेकिन सबसे ज़रूरी बात तो यह है कि ये ऐसा महीना है जिसमें आपको शुद्धता दिखती है. हिन्दुओं में मन में इस्लाम को लेकर जो गलत धारणा बनी हुई है, वह धारणा इसी महीने में टूटती है. ऐसे में त्यौहार होने के साथ-साथ यह महीना एक धर्म और उसके लोगों को सही तरीके से समझने का भी पर्व है.’

केशव कुमार वकील हैं. वे कहते हैं, ‘सबसे पहले इस पर्व को समझना और समझाना होगा कि इसका महत्त्व क्या है? आप आए हैं, मुझसे बतियाकर एक स्टोरी लिख देंगे. लेकिन उसके आगे की जिम्मेदारी कौन लेगा? किसी को तो आगे आना होगा कि लोगों को सही तरीके से समझाए कि ये बस सेंवई खाने का त्यौहार नहीं है, या खाने या न खाने का त्यौहार नहीं है. ये उससे आगे की बात है. मानता हूं कि इबादत और पवित्रता का त्यौहार है लेकिन इसे लोगों को समझाना होगा. नहीं तो इसका मतलब आधा दिन भूखा रहने और भोर में उठकर कुछ खा लेने में सीमित होता जा रहा है, और ऐसे ही सिमटते अर्थों के साथ त्यौहार भी ख़त्म होते जा रहे हैं.’

सुवर्णा मिश्रा भी शिक्षिका हैं. वे साफ़-साफ़ कहती हैं, ‘मेरे लिए बस कह देना आसान है कि ये इबादत का और कठिन परिश्रम का त्यौहार है, लेकिन इसे साबित करना ज़रूरी हैं.’ वे आगे कहती हैं, ‘इसके लिए हम हिन्दुओं को आगे आना होगा और रोज़े को समझना होगा. रोजा करवा चौथ का व्रत तो है नहीं. इसे रखकर ही समझा जा सकता है. और ऐसा है कि बनारस के कई हिन्दुओं को हमने देखा है कि वे रमज़ान में कम से कम चार रोज़े ज़रूर रखते हैं.’ सुवर्णा कहती हैं, ‘आपको भी रख लेना चाहिए था, लेकिन अब दो दिन बाद तो ईद ही है. अब क्या रखेंगे?’

यह दावे सच हैं कि बनारस में मुस्लिम समुदाय के लोग रोजा रखते हैं, लेकिन उनके साथ-साथ हिन्दू समुदाय के कई लोग ऐसे हैं जिन्होंने हाल-फिलहाल रोजा रखना शुरू किया है. ऐसे लोग बेहद ढूंढने से मिलते हैं और मिलते हैं तो शहर के पक्के महाल में, जिसे असल बनारस कहा जाता है.

पान की दुकान पर हमसे मिले वैभव शर्मा बेहद युवा हैं और हर रमज़ान में हर हफ्ते एक रोज़ा ज़रूर रखते हैं. वे फ़िल्में देखते हैं और पढ़ते हैं. वे बताते हैं, ‘आपको पता ही होगा कि गीतकार गुलज़ार मूलतः पंजाबी हैं. उनका असली नाम सम्पूरन सिंह कालरा है. एक बार उन्होंने किसी इंटरव्यू में कहा था कि वे साल भर हफ्ते में एक दिन कुछ भी नहीं खाते हैं. उनकी उम्र देखिए, वे इस उम्र में भी रोज़ टेनिस खेलने जाते हैं.’

अब अपने बारे में बताते हुए वैभव कहते हैं, ‘मैं गुलज़ार के गीतों का मुरीद हूं. वहीँ से मुझे लगा कि ऐसा करने में क्या हर्ज़ है. यहां मैं जहां रहता हूं, चारों ओर मुस्लिम लोग रहते हैं. तो मैंने पड़ोसियों से पूछा कि रोज़ा रहूं तो कोई दिक्कत तो नहीं होगी? तो एक ने हंसते हुए मुझसे कहा कि दिक्कत किसको, आपको, मुझे या अल्लाह को? तभी मैं समझ गया कि रोज़ा रहने में कोई हर्ज़ नहीं है. मेरे घरवाले शुरुआत में सकपका गए थे, बाद में वे भी थोड़ा सहज हो गए.’ वे आगे बताते हैं, ‘कुल मिलाकर मुझे ये समझ में आया कि इस त्यौहार में खाने या भूखा रहने से बढ़कर बहुत कुछ है. यह पूरी तरह से वैज्ञानिक है. आप गूगल खोलिए और फास्टिंग(भूखा रहने) के फायदों को जानिए. आप सचाई जानकर दंग रह जाएंगे.’

बनारस में यूं ही नहीं तमाम सभ्यताओं का एक साझा निष्कर्ष तैयार होता है. हर जगह के उलाट यहां चीज़ों के बारे में राय बनाने के पहले उसे देखा-परखा और समझा जाता है. सियासी कलाबाज़ियों से दूर जब एक बनारसी आदमी सोचता है तो सियासत भी शर्म से दोहरी हो जाती है.