शेख़ गुलाब : गुमनामी में गायब अंग्रेजों से लोहा लेनेवाला शख्स

अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net

आज़ादी के इतने सालों बाद शेख़ गुलाब को याद करना बेहद ख़ास है. मुझे यह समझ नहीं आ रहा है कि इस सच्चे देशभक्त किसान नेता को न सिर्फ़ इस देश ने बल्कि उसकी क़ौम और उस समाज ने भी भुला दिया, जिनके लिए वे अपनी आख़िरी सांस तक लड़ते रहे.


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शेख़ गुलाब एक ऐसे शख़्स का नाम है, जिसने मोहनदास करमचंद गांधी के महात्मा गांधी होने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई, मगर वह खुद गुमनामी के अंधेरों में सिमट गया. एक ऐसा शख़्स, जो जीवन भर किसानों की समस्याओं और उनके इंसाफ़ की ख़ातिर लड़ता रहा और बदले में उसे सिर्फ़ ज़ुल्म और गुमनामी ही नसीब हुई. ऐसा शख्स, जिसने चम्पारण के किसानों की दर्द को उस फ़लक तक पहुंचा दिया कि जिसने आज़ादी की लड़ाई की रूप-रेखा तय कर दी. ऐसा शख़्स, जिसने एक साधारण-सी ज़मीन से एक ऐसा आन्दोलन शुरू किया कि वह ज़मीन और उसका इतिहास दोनों ही असाधारण हो गएं. शेख़ गुलाब चम्पारण की धरती के असली गौरव हैं. चम्पारण के किसानों ने ‘तनकठिया’ का जो दंश झेला, उससे सबसे पहले शेख़ गुलाब ने महसूस किया. सिर्फ़ महसूस ही नहीं बल्कि अंग्रेज़ों समेत उस समय की कांग्रेस के अगली सफ़ के नेताओं को भी महसूस करा दिया.

Shaikh Gulab

एक कड़वी हक़ीक़त यह है कि गांधी का चम्पारण आना यूं ही नहीं था. दरअसल, शेख़ गुलाब ने चम्पारण के गुमनाम मज़लूम किसानों की समस्याओं को इतना विस्तार दे दिया कि उस दौरान कांग्रेस पूरे लावा-लश्कर के साथ इस मुहिम में शरीक हो गई. यक़ीनन यह काम महात्मा गांधी की अगुवाई में हुआ और इसी चम्पारण सत्याग्रह से गांधी को पूरे देश में असली पहचान मिली. मगर शेख़ गुलाब की पहचान इतिहास के पन्नों में दफ्न हो गई. उन्हें ढ़ूढ़ना और तलाश करना अभी भी बाक़ी है.

1857 में चम्पारण के साठी थाना के चांदबरवा गांव में जन्मे शेख़ गुलाब किसान थे. किसानों के लिए उठे. किसानों के लड़े और किसानों के लिए ही मिट गए. शिक्षा-दीक्षा अधिक नहीं हो पाई थी, बावजूद इसके वे बुद्धि से तेज़ थे और राष्ट्रभक्ति उनकी धमनियों में बाल्यावस्था से ही प्रवाहित हो रही थी. गांधी जी से पहले, 1905 के काल से ही, चम्पारण के किसान शेख़ गुलाब के नेतृत्त्व में अंग्रेज़ निलहों(यानी अंग्रेज़ ज़मींदारों) के विरूद्ध लड़ाई लड़ रहे थे. उस लड़ाई में चम्पारण के किसानों पर घोर अत्याचार हुआ. किसानों के संघर्षों को अंग्रेजों ने दमनात्मक कार्रवाईयों से दबा देने की पूरी कोशिश की.

इसके बाद 1907 के मार्च महीने में शेख़ गुलाब के नेतृत्त्व में किसानों ने मोतिहारी मजिस्ट्रेट को एक दरख़ास्त दी. इस दरखास्त की जो मुख्य बातें थीं, वे हैं – छह या सात साल से साठी कोठी रैयतों को तरह-तरह से तंग कर रही है; वह हम लोगों से अधिक मालगुज़ारी ले रही है और बेगार का काम करवाती है; ज़बरदस्ती नील बोवाती है और उसका पूरा दाम नहीं देती और हम लोगों के विरुद्ध फौजदारी का झूठा मुक़दमा लाकर नील बोने का सट्टा लिखने के लिए हमको बाध्य करती है.

स्थिति जब और बिगड़ने लगी और गोरे निलहे अधिकार का दुरुपयोग करने लगे तो साठी कोठी के रैयतों ने शेख गुलाब के नेतृत्त्व में एक और आवेदन चम्पारण के कलेक्टर के पास 14 अगस्त, 1907 को प्रेषित किया. इस आवेदन में रैयतों के दुख-दर्द की कहानी थी.

इस दरख़ास्त पर तत्कालीन जिला मजिस्ट्रेट टी.एस. मैक्फर्सन ने मिस्टर टैनर को जांच का हुक्म दिया. लेकिन मिस्टर टैनर ने सन्तोषजनक जांच नहीं की. शेख गुलाब इस जांच से संतुष्ट नहीं हुए. अपने दोस्तों के साथ मिलकर इस संबंध में फिर से एक मेमोरियल छोटे साहब के पास भेजा, उसमें उन्होंने इस जांच के विषय में लिखा था –‘बेतिया के मजिस्ट्रेट ने कुल तीन ही मौजों में हम लोगों से कुछ जांच की, और फिर जांच पूरी किए बिना ही चले गए.’

12 सितम्बर 1907 को एक केस में शेख गुलाब को गिरफ़्तार कर जेल भेज दिया गया. हालांकि इस केस में 162 लोगों को सज़ा मिली थी. लेकिन बताया जाता है कि अंग्रेज़ों ने जेल के अंदर सबसे अधिक प्रताड़ित शेख़ गुलाब को ही किया.

1907-08 में साठी कोठी के रैयतों ने नील बोना छोड़ दिया. यह बात आसपास के लोगों को भी मालूम हो गई. वे कब तक नील बुवाई के बन्धन में जकड़े रह सकते थे. एक-एक करके उन लोगों ने नील बोना बंद करना शुरू कर दिया. साठी कोठी में नील बुवाई बन्द करने में शेख गुलाब ने बड़ा भाग लिया था. उनके उदाहरण से लोगों के दिल में और भी साहस व उत्साह भर गया. इसके साथ शेख गुलाब को बड़ी भारी आर्थिक क्षति उठानी पड़ी, किन्तु रैयतों की आंखों में उनका मान बहुत ही बढ़ गया. उनको वे अपना आदर्श तथा सच्चा हितैषी समझने लगे.

1909 के आसपास शेख गुलाब के नेतृत्त्व में सारे रैयत निलहों के ख़िलाफ़ एकजुट हो गए. किसानों की एकजुटता पर निलहे भौचक्के रह गए. शेख गुलाब समेत दो सौ लोगों को अंग्रेज़ों ने सिपाही में नौकरी देने का प्रलोभन दिया. उन लोगों ने आरक्षी बनने से साफ़ इनकार कर दिया. सरकार ने सभी आंदोलनकारियों पर आदेश उल्लंघन का मुक़दमा चलाया. सभी नेताओं को गिरफ़्तार कर लिया गया. किसानों की यह लड़ाई बाद में चलकर आज़ादी की लड़ाई के रूप में फ़ैली.

विरोध और विद्रोह की आग की लपटें गांव-गांव में फैलने लगीं. सतवरिया के राजकुमार शुक्ल, साठी गांव के शेख़ गुलाब और मठिया गांव के शीतल राय ने गांव-गांव घूमना शुरू कर दिया, संगठन बनाए और निलहों के अत्याचार से लोहा लेने के लिए किसानों को जगाया. शेख गुलाब के नेतृत्त्व में मुसलमान रैयत ने मीटिंग की और नील की खेती करना छोड़ दिया.


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शेख़ गुलाब के पोते एडवोकेट परवेज़ आलम

शेख़ गुलाब के संघर्षों की दास्तान काफी लम्बी है. लेकिन हैरानी की बात यह है कि आज शेख गुलाब को चम्पारण के लोग ही भुला बैठे हैं. शहर में उनके नाम पर ‘गुलाब मेमोरियल कॉलेज’ ज़रूर है, लेकिन यहां के छात्र व शिक्षक शायद ही शेख़ गुलाब के कारनामों से रूबरू हैं.

इस ‘गुलाब मेमोरियल कॉलेज’ के संस्थापक व शेख़ गुलाब के पोतों में से एक फ़खरे आलम बताते हैं कि शेख़ गुलाब को लेकर उन्होंने कई पत्र सरकारों को लिखे हैं. विधानसभा में एक विधायक इस संबंध कई प्रश्न भी कर चुके हैं. बावजूद इसके कभी किसी सरकार ने इस महान स्वतंत्रता सेनानी को कभी भी याद नहीं किया.

वे कहते हैं, ‘आज जब भारत व बिहार सरकार चम्पारण सत्याग्रह का शताब्दी वर्ष मना रही है, ज़रूरत इस बात की है कि शेख़ गुलाब जैसे लोगों को याद किया जाए, क्योंकि यदि शेख़ गुलाब न होते तो यक़ीनन चम्पारण सत्याग्रह नहीं होता और शायद गांधी जी को इतनी ख्याति नहीं मिलती. सच पूछे तो गांधी जी जिस फ़सल को काटकर पूरे दुनिया में प्रसिद्ध हुए, दरअसल वह फ़सल शेख गुलाब की लगाई हुई थी.’

शेख़ गुलाब की विरासत आज भी चम्पारण के चप्पे-चप्पे में बिखरी हुई है. सच तो यह है कि महापुरूषों के ‘ग्लैमराईजेशन’ के इस दौर में हम देश के उन सच्चे सपूतों को भूल चुके हैं, जिन्होंने नाम की परवाह किए बग़ैर ग़रीब व मज़लूमों के लिए अपना सबकुछ न्यौछावर किया. लेकिन सवाल यह है कि आज़ाद मुल्क के नेताओं ने शेख़ गुलाब कभी याद क्यों नहीं किया. क्यों हमारी स्कूली किताबों में उनका ज़िक्र नहीं होता है? क्यों उनकी विरासत को संजोने के लिए उनके नाम पर स्कूल, लाईब्रेरी, अस्पताल या किसान सेन्टर नहीं खोले गए? क्या यह सुनियोजित साज़िश का हिस्सा था, जिसके तहत ज़मीन से जुड़े इस सच्चे देशभक्त को दरकिनार कर दिया गया और देश की आज़ादी और उसकी तरक़्क़ी का सेहरा चंद चेहरों के सिर पर बांध दिया गया? इस सवाल का जवाब ढ़ूढ़ना बेहद ही ज़रूरी है. शेख़ गुलाब हमारी आज़ादी का आईना हैं, जिसमें हमें अपनी सूरत देखने की ज़रूरत है.

[लेखक इन दिनों शेख़ गुलाब पर शोध कर रहे हैं. वे जल्द ही शेख़ गुलाब के सम्पूर्ण जीवन पर एकाग्र पुस्तक लाने की तैयारी में हैं.]

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