Home Articles सरेआम हो रहा है कश्मीर में लोकतंत्र का खून

सरेआम हो रहा है कश्मीर में लोकतंत्र का खून

अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net

मीडिया का काम दबे-कुचलों की आवाज़ बनना है, लेकिन जब मीडिया खुद ही दबा दिया जाता है तो लोकतंत्र के लिए इससे ‘काला दिन’ और क्या हो सकता है? मीडिया को दबाने का काम कश्मीर में सरेआम हो रहा है. जम्मू-कश्मीर की हुकूमत केन्द्र सरकार के इशारों पर आम कश्मीरियों के दुख-दर्द को समझने के बजाय उस दुख-दर्द को बढ़ाने वाली हर आवाज़ को दफ्न कर देने पर आमादा है.

मोबाइल सेवाएं और मोबाइल इंटरनेट सेवा बंद करने और अखबार पर पाबंदी के बाद अब सरकार उन 268 वेबसाईटों पर प्रतिबंध लगाने की तैयारी में है, जो कश्मीर की सच्चाई को देश की आम जनता के सामने रख रही हैं.

J&K

गृह मंत्रालय ने खुफ़िया विभाग द्वारा तैयार की गयी उन वेबसाइटों की सूची पर प्रतिबंध लगाने की सहमति दी है, जिन वेबसाइटों के ज़रिए सुरक्षा बलों को खलनायक बनाने की कोशिश की जा रही है. इन सभी वेबसाइटों के यूआरएल ब्लॉक कर दिए जाएंगे, जिससे सभी वेबसाइटें भारत में नहीं देखी जा सकेंगी. इतना ही नहीं, ट्विटर हैंडल पर भी आपत्तिजनक सामग्री की निगरानी करके सूची तैयार की जा रही है. ऐसे तमाम ट्विटर हैंडल्स को ब्लॉक करवाने के लिए सरकार से पहल करने को कहा जाएगा.

सच तो यह है कि बुरहान वानी के क़त्ल के बाद घाटी में जो हालात पनपे हैं, उनका सही जायज़ा लेने के लिए मीडिया को भी इजाज़त नहीं दी जा रही है. सरकार सिर्फ़ अपने ही प्रचार-तंत्र को आगे बढ़ाना चाहती है. यही वजह है कि कश्मीरी आवाम की मुश्किलें-दिक्कतें, उनका दर्द, उनके संघर्ष कुछ भी सामने नहीं आ पा रहे हैं. ऐसे में पहले से ही आर्मी और राज्य पुलिस की बूटों के तले दबे लोग अपने इन हालातों में और भी छटपटा उठे हैं. अगर यही हालात रहे तो घाटी में आपातकाल की यह स्थिति घाटी के हालात और भी ख़राब कर सकती है.

इन सबके दरम्यान जो बात समझ से परे है, वह यह है कि आख़िर मानवाधिकार की दुहाई देने वालों की नज़र कश्मीर के इन ताज़ा हालातों पर क्यों नहीं पड़ रही है? आखिर भारत के मानवाधिकार संगठन इस पूरे मसले पर खामोश क्यों हैं? आप अगर कश्मीर को अपना अभिन्न अंग मानते हैं तो फिर यह अत्याचार क्यों? बल्कि आपको तो उनके साथ प्रेम से पेश आना चाहिए. यक़ीन मानिए कि यदि हम उनसे मुहब्बत से पेश आए तो वे आज़ादी का ख्याल अपने दिल से निकाल देंगे. और अगर मुहब्बत से पेश नहीं आ सकते हैं तो कम से कम उन्हें चैन से तो जीने दीजिए.

सबसे हैरानी की बात तो यह है कि देश का मेनस्ट्रीम मीडिया हाथ पर हाथ धरे इस क़दर ख़ामोशी से बैठा है, गोया कश्मीर इस मुल्क का हिस्सा ही न हो.

बात-बात पर मीडिया की आज़ादी के लिए कोहराम मचा देने वाले मेनस्ट्रीम मीडिया में कहीं इस बात पर चर्चा तक नहीं है. कश्मीर की घटना इमरजेंसी के दौर के बाद से अब तक किए गए मीडिया पर सबसे बड़े हमलों में एक है, मगर मेनस्ट्रीम मीडिया में न तो कोई चर्चा है, न कोई विमर्श है और न ही कोई सुगबुगाहट. ऐसा लग रहा है कि मानो मीडिया भी सरकार और सिस्टम का हिस्सा बन गया हो, कश्मीर के स्थानीय मीडिया को अलगाववाद मान लिया गया हो, यह मान लिया गया हो कि उनकी नीयत और नीति दोनों पर यक़ीन नहीं किया जा सकता है. यह स्थिति बताती है कि किस तरह से अविश्वास की परतें दिन-ब-दिन गहरी होती जा रही हैं.

जिस दौर में गृहमंत्री ट्विटर ज़रिए शांति की अपील करते हैं और वह भी तब जब कश्मीर में सोशल मीडिया ही बैन है, इसी से सरकार की नीयत का पता चल जाता है. आज हालत यह है कि कश्मीरी आवाम को अपनी बातों को सामने रखने का एक भी मंच बाकी नहीं रह गया है. न वो सरकार की बातें सुन पा रहे हैं और न ही उनकी बातें सरकार तक पहुंच पा रही हैं. यह दोनों ही ओर से बढ़ता जा रहा एक बड़ा कम्यूनिकेशन गैप है. यह स्थिति अगर दबी-कुचली जनता को उग्रवाद का झंडा बुलंद करने वालों के हाथों की कठपुतली बना दे तो इसमें कोई हैरानी नहीं होनी चाहिए.