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ख़ामोशी से घरों में घुसता क्रूर रंगभेद

फ़हमिना हुसैन, TwoCircles.net

देश में गर्मी बढ़ने के साथ-साथ टेलीविज़न पर गोरापन बढ़ाने की क्रीमों के विज्ञापन भी बढ़ गए हैं. देश में रंग एक समस्या की तरह सामने आ रहा है. देश में काला होना एक बड़ी समस्या है.

लड़कियों को धूप में अपने काला पड़ने की चिंता यूं ही नहीं है. भारत का विकासशील समाज अभी इतना ही विकसित हुआ है कि यहां से रंगभेद अभी ख़त्म नहीं हुआ. समाज का चलन इन लड़कियों को अपने रंग के ढलते जाने के प्रति सोचने पर मजबूर कर रहा है. रंगभेद के खिलाफ़ महात्मा गांधी, मंडेला और मार्टिन लूथर ने एड़ी-चोटी का ज़ोर लगाकर संघर्ष किया था. इसके खिलाफ दुनिया का सबसे बड़ा अश्वेत आंदोलन आधारभूत हुआ. अमरीका में सिविल वार का अध्याय सामने आया. हमारे देश में रंगभेद और अस्पृश्यता के लिए अम्बेडकर भी प्रमुख रूप से सामने आए. लेकिन भारतीय कॉस्मेटिक इंडस्ट्री को देखकर लगता है कि वही रंगभेद अभी भी एक व्यापक और बाज़ारू रूप में हमारे बीच उपस्थित है, जिसे चमक-धमक के बीच हम लक्षित नहीं कर पा रहे हैं.

यह मामला जितना समाज और पूंजी से निर्धारित हो रहा है, उतना ही यह राजनीतिक रूप से भी प्रभावित है. बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि राजनीति में रंगभेद का दखल होने से कहीं न कहीं दक्षिणपंथ को मजबूती मिलने की आशा बनी रहती है. यहां याद करना चाहिए कि भाजपा के केन्द्रीय मंत्री गिरिराज सिंह ने क्या कहा था? उन्होंने अपने बयान में कहा था, ‘राजीव गांधी यदि किसी सांवली या काले रंग की नाइजीरियन से विवाह करते तो कांग्रेस उसे अपने नेता के रूप में स्वीकार ही नहीं करती.’

इतना ही नहीं, कुछ समय पहले गोवा के मुख्यमंत्री लक्ष्मीकांत पारसेकर ने हड़ताल कर रहीं नर्सों को कहा था कि वे धूप में बैठकर हड़ताल न करें, क्योंकि इससे उनका रंग ‘डार्क‘ होगा. जिसकी वजह से उनकी वैवाहिक संभावनाएं बिगड़ेंगी.’ यह बात भी है कि इन बयानों के कारण इन नेताओं को काफी आलोचना का सामना करना पड़ा था. लेकिन इन आलोचनाओं और दिनोंदिन विकसित हो रहे हमारे ज्ञान के बावजूद रंगभेद का यह ताकतवर और बाज़ारू स्वरुप और गहराता जा रहा है.

देश में शादियां तय कराने के नाम पर कई वेबसाइटें और अखबार के परिशिष्ट निकलते हैं. लेकिन उनमें यह देखना लगभग मुश्किल है कि यह लिखा हो – हमें काले रंग की वधू चाहिए.

सचाई यह है कि रंगभेद की परिभाषा के आईने में अब सभी जगहों पर गोरी बहुओं की तलाश विकसित हुई है. कम से कम भारतीय समाज के बारे में पुख्ता तरीके से यह कहा जा सकता है. अपने घर में सिर्फ़ रविवार के दिन अख़बार का ख़ास अंक देख लीजिए. यहां मोटे शब्दों में लिखा होता है – मल्टीनेशनल कंपनी में कार्यरत्त लड़के को गोरी सुंदर लड़की चाहिए या चाहिए एक गोरी वधू. ऐसे सैकड़ों विज्ञापनों से वैवाहिक अंक भरे रहते हैं. चूंकि भारतीय समाज की पहचान अभी भी एक पितृसत्तात्मक समाज के तौर पर होती है और लड़की यहां घर सम्हालने का ही साधन है, ऐसे में इन विज्ञापनों को देखकर साफ़ ज़ाहिर होता है कि अपने बेटे के लिए हम जिस लक्ष्मी का चुनाव कर रहे हैं, उसमें घर चलाने के गुण भले ही न हो, लेकिन उसे श्वेत वर्ण का ही होना चाहिए. देश में ‘फेयर एंड लवली’ की बिक्री असाधारण रूप से बढ़ी है क्योंकि यह क्रीम काले या सांवले रंग वाले व्यक्ति को गोरा बना देने का दावा करती है.

सोनाली कश्यप पटना महिला महाविद्यालय में बीए की छात्रा हैं. उन्हें न जाने कितनी बार अपने साँवले रंग के लिए ताने सुनने पड़ते हैं. सोनाली कहती हैं, ‘रिश्तेदार कहते है कि कितना भी पढ़ लो लेकिन तुम्हारे साँवले रंग के कारण लड़का ढूढ़ना मुश्किल होगा.’

रंग को शिक्षा से ख़त्म करने की जद्दोज़हद में लगी हुई शबनम परवीन डेहरी के जगजीवन कॉलेज की छात्रा हैं. बकौल शबनम, ‘मेरे दिमाग में यह बैठा था कि बी.एससी. या एम.एससी. करने के बाद मेरा उद्धार संभव है. बचपन से ही मैं उपेक्षा का शिकार हूं. पिताजी शादी की बात चलने पर चिंतित हो जाते हैं.’

यहीं पर प्रियंका और जागृति जैसी कई लड़कियां हैं जो साफ़ कहती हैं गोरा होना मतलब खूबसूरत होना है. इन जैसी कई लड़कियों ने टीवी पर आने वाले हर प्रोडक्ट को एक बार ज़रूर परख कर देखा है ताकि वे और खूबसूरत दिखने लगें.

यदि आंकड़ों की बात करें तो भारत में सौंदर्य उत्पादों का बाज़ार 9,000 करोड़ रुपयों से भी अधिक का है. वर्ण को लेकर बाज़ार के झुकाव का अंदाज़ कॉस्मैटिक बाज़ार से लग जाता है. इसमें फेयरनेस क्रीम, ब्लीच का हिस्सा 3,000 करोड़ से ज्यादा का है. यही वजह है कि लॉरियल या नीविया जैसी बड़ी विदेशी कंपनियां जब भारत आती हैं, तो वे भी यहां के मार्केट के अनुसार अपनी गोरेपन की डिब्बियां दुकानों में सजा देती हैं. आज बाज़ार में रंग निखारने के लिए फेस क्रीम, बॉडी लोशन, फेस वॉश के साथ ही अंडर-आर्म को गोरा बनाने के औजार मौजूद हैं. जाड़ों का निखार और गर्मियों का निखार, इसमें विज्ञापन उलझे रहते हैं.

सबसे बड़ा मसला तो यह है कि आज भी हमारे देश में लाखों लड़कियां रंगभेद के कारण हीन भावना से जूझ रही हैं. शादी के बाज़ार में रिजेक्ट हो रही इन लड़कियों को गोरा करने की एक क्रीम की ट्यूब में ही निदान दिखाई देता है.

लड़कियों ने अपनी चमड़ी के रंग के तनाव में सर्जरी तक का सहारा लिया है और ऐसी कई अभी निर्णयरत हैं. यह दुखद है कि सांवले रंग की लड़की के जन्म पर किसी गोरे रंग की बच्ची से ज्यादा दुख और अफ़सोस जताया जाता है. विवाह के समय ज्यादा दहेज देकर लड़की के सांवले रंग के ‘अवगुण’ की भरपाई करने की कोशिश की जाती है. यह रंगभेदी समाज नहीं तो क्या है. मुद्दा तो यह है कि भारत में रंगभेद एक बड़े रूप में मौजूद है. अमरीका में हुई रंगभेद की लड़ाई रंगभेद से बढ़कर रेस की थी, जहां अफ्रीका से आए मजदूरों ने अपने हक में बिगुल बजाया था. लेकिन रंगभेद का अध्याय कुछ-कुछ दलित-सवर्ण के बीच पसरे अंतर जैसा ही है, लेकिन रोचक यह है कि कार्यकर्ताओं और एक्टिविस्टों ने अभी तक इस मामले में चुप्पी साध रखी है.