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दिल्ली: बस्तियों में बदतर ज़िन्दगी

फ़हमिना हुसैन, TwoCircles.net

दिल्ली: इस शहर में जहां एक तरफ़ मेट्रो की रफ़्तार से भी तेज़ ज़िन्दगी भागती है, जहां बड़े-बड़े आलीशान मकान और कोठियां हैं. वहीं दूसरी तरफ़ वज़ीरपुर, आज़ादपुर, खजूरी, झिलमिल जैसी अनेक बस्तियां भी हैं, जहां लोग अपनी बद से बदतर ज़िंदगी जीने को मजबूर हैं.

झिलमिल के झुग्गियों में ज़िन्दगी गुज़ारना अपने आपमें एक चुनौती है. यहां छोटे कमरे हैं जहां रोशनी भी ठीक से नहीं पहुंचती, गन्दी नालियों का पानी है जो बारिश के समय झुग्गियों में आ जाता है, कूड़े के ढेर हैं, फैक्ट्रियों का कचरा और शौचालय की कमी है. इन सब मुसीबतों के बाद भी ये झुग्गियां इनमें रहने वालों के लिए आराम करने और सिर छुपाने का एकमात्र साधन है.

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शहरी गरीबी उन्मूलन और आवास मंत्रालय के 2011 के आंकड़ों के अनुसार देश में 6.5 करोड़ लोग झुग्गियों में रहते हैं. 1981में झुग्गीवासियों का यह आंकड़ा 2.79 करोड़ था और यह संख्या साल दर साल बढ़ती जा रही है.

दशक दर दशक बदलने के बावजूद इन झुग्गीवासियों की जीवनशैली में कोई परिवर्तन नहीं आया है. यहां के लोग जीवन की मूलभूत सुविधाओं से भी वंचित हैं. उन्हें न तो रहने की पर्याप्त जगह मिल पाती है और न ही उन्हें पीने का स्वच्छ पानी मिल पाता है. स्थिति इतनी विकट है कि आधी से अधिक बस्तियों में शौचालय और लगभग एक तिहाई में जल-मल निकास की सुविधाओं का व्यापक अभाव है. इन बस्तियों में प्रतिदिन निकलने वाले कूड़े-करकट को हटाने और ठिकाने लगाने की व्यवस्था नहीं है. इन बस्तियों के आधे से अधिक बच्चे कुपोषण के शिकार हैं.

इस इलाके में यूपी से आकर रहने वाली सुमन कहती हैं, ‘गर्मी हो या बरसात, यहां की गलियों में हर मौसम में पानी भरा रहता है. बरसात के दिनों में तो हालत और भी ख़राब होती है. घर में भी पानी भरा रहता है. तब ज़िन्दगी गुज़ारना वाक़ई मुश्किल हो जाता है.’

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45 साल की खदीजा कहती हैं, ‘गांव से हम यहां इसलिए आए कि दिल्ली में कुछ काम-धंधा करके ज़िन्दगी अच्छे से गुज़ार लेंगे. यहां ज़िन्दगी जहन्नुम से भी बदतर है. इससे अच्छा तो हमारा गांव ही था.’

इस इलाक़े के लोगों का कहना है कि यहां स्वास्थ्य सुविधा के नाम पर कुछ भी नहीं है. यह अलग बात है कि सरकारी सुविधा के नाम पर कभी किसी महीने में कोई आ गया तो आ गया. लेकिन वो भी कागज़ों पर ही अपना काम करके लौट जाते हैं.

शिक्षा और सफाई तो मुद्दा है ही, साथ ही साथ ये बस्तियां यौन-हिंसा का अड्डा भी बनती जा रही हैं. इसी झिलमिल के झुग्गी में रहने वाली आशा कहती हैं कि एक दिन रात को कुछ लड़के उनका दरवाज़ा पीटने लगे. तबसे उनके माता-पिता बहुत डरते हैं और खोली से बाहर क़दम नहीं रखने देते.

न्यू फ्रेंड्स कॉलोनी के पास बसे तैमूर नगर में रहने वाली 14 साल की मुस्कान बताती हैं कि यहां कल कूड़े के ढेर पर किसी को रात में जला दिया गया था. उनकी बातों में कितनी सचाई है, इसकी तस्दीक करने का कोई पुख्ता रास्ता नहीं है, लेकिन इन इलाकों में सुरक्षा भी एक बड़ा मुद्दा है.

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इस इलाक़े के लोगों का साफ़ तौर पर कहना है कि पुलिस यहां कभी आती भी है तो सिर्फ़ परेशान करने के लिए. जबकि यहां कई अवांछित तत्व रहते हैं, जो कई तरह के वारदातों में लिप्त हैं.

देश को स्लम मुक्त बनाने की योजना के तहत सरकार ने केंद्र प्रायोजित ‘राजीव आवास योजना’ की शुरूआत की थी. अब इस योजना और ‘जवाहरलाल नेहरू नेशनल अर्बन रिन्यूएबल मिशन’ को मिलाकर केंद्र सरकार ने ‘प्रधानमंत्री आवास योजना’ की शुरुआत की है. इसके तहत सरकार ने दो करोड़ सस्ते मकान बनाने का लक्ष्य रखा है. इसमें 14 लाख स्लम री-डेवेलपमेंट वाले मकान होंगे.

इस योजना के तहत मौजूदा स्लम बस्तियों को औपचारिक प्रक्रिया के दायरे में लाना तथा देश के अन्य शहरों की भांति उन्हें बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध कराना पहला मक़सद है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी इस संबंध में कह चुके हैं कि सरकार 2022 तक सबके लिए मकान देने को प्रतिबद्ध है.

रोचक बात यह है कि इन झुग्गीवालों को भी नहीं पता कि कोई योजना उनके लिए चल रही है और उनके भी कभी अच्छे दिन आएंगे. उन्हें तो बस इतना पता है कि फिर अगले साल एमसीडी के चुनाव होंगे. उनसे बड़े-बड़े वादे किए जाएंगे और उन सबसे अधिक चुनाव के दिन की पहली वाली रात को नोटों का एक छोटा पैकेट उनके घरों में पहुंचा दिया जाएगा, जिससे उनकी कम से कम एक हफ़्ते की समस्या दूर हो जाएगी. इससे अधिक दिल्ली के इन झुग्गी वालों को कुछ भी नहीं मालूम.