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“लाइब्रेरी का मुद्दा प्रायोजित, आन्दोलन भड़का रहे पॉलिटिकल लोग” – बीएचयू के कुलपति से बातचीत

सिद्धांत मोहन, TwoCircles.net

वाराणसी: नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र बनारस स्थित देश के अग्रणी संस्थान काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में ताजा उठा विवाद और भी बड़ा होता जा रहा है. बीएचयू में यह पूरा विवाद साइबर लाइब्रेरी को चौबीस घंटे खोलने को लेकर उठा था जो अब कुलपति प्रो. गिरीशचंद्र त्रिपाठी की बर्खास्तगी की मांग तक चला गया है. इस बीच सोचल मीडिया में बीएचयू के कुलपति के कई विवादित बयान सामने आए, जिनकी वजह से कुलपति कटघरे में है. लोकल मीडिया में यह खबरें और कुलपति के बयान लगभग गायब हैं. हमने कुलपति से मुलाक़ात की और इस मामले पर उनका सही रुख जानना चाहा. कुलपति ने उन प्रश्नों के जवाब भी खुद से दे दिए, जो हमने उनसे पूछे ही नहीं. कुलपति ने साफ़ कह दिया कि लाइब्रेरी नहीं खोली जाएगी. उन्होंने साइबर लाइब्रेरी में बैठने वाले छात्रों पर चोरी के आरोप लगाए. बातचीत में एकाध दफ़ा ‘देश’ का ज़िक्र आया, जिससे मुद्दे की दिशा बदलती दिखी. इसके अलावा इस इंटरव्यू में और भी बहुत कुछ विवादित है, जिसे नीचे पढ़ा जा सकता है. विवाद का संक्षिप्त रूप यहां पर

काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में इतना सब कुछ हो रहा है. विश्वविद्यालय के फैसलों के खिलाफ़ छात्र खड़े हो गए हैं, लेकिन क्या ऐसा नहीं लग रहा है कि कुलपति और मीडिया व कुलपति और छात्रों में संवाद की कमी है?
कहाँ है कमी? कौन ऐसा कह रहा है? कहीं कोई कमी नहीं है. बल्कि मैं तो ऐसा कह रहा हूं कि इस विश्वविद्यालय में अब तक सबसे ज्यादा संवाद रखने वाले कुलपतियों में मैं हूं. आप लोग अखबारों के लिए काम करते हैं, बताओ कहीं कि संवादहीनता हो.

छात्रों की मांग को कैसे देखते हैं, वह जायज़ है या नाजायज़ है?
पहली बात तो यह है कि वह विद्यार्थियों की मांग नहीं है. आपको यदि जानकारी होगी तो पता होगा कि जो लोग अनशन पर बैठे हैं, वे वर्ष भर एक दिन भी लाईब्रेरी नहीं गए. वे ऐसे विद्यार्थी हैं, जो कभी लाइब्रेरी गए ही नहीं. ये पॉलिटिकल लोग हैं जो इस आन्दोलन को भड़का रहे हैं, कैंपस का माहौल खराब कर रहे हैं. मुझे तो लगता है कि इस बारे में आप मुझसे अधिक जानते होंगे. वरना बताईये कि ‘आम आदमी पार्टी’ के लोगों को कैम्पस में आने की क्या ज़रुरत थी? आपको अपना राजनीतिक आन्दोलन चलाना है तो सड़क पर चलाईये. आप अन्दर आकर कैम्पस का माहौल क्यों खराब कर रहे हैं? फिर संजय सिंह भी प्रकट हो गए? मीडिया के लोग भी हैं. मैं आपसे भी कह रहा हूं कि यह मीडिया की स्वतंत्रता है, उस स्वतंत्रता का आनंद उठाना चाहिए. लेकिन मीडिया देश के अन्दर है, जब देश ही नहीं बचेगा तो न बचेगी मीडिया न उसकी स्वतंत्रता.

यहां पर ये प्रश्न उठता है कि यहां आपने देश की बात क्यों की? छात्रों के मुद्दे में देश कहां से आ गया?
क्यों नहीं देश की बात करेंगे?

सवाल ये है कि लाइब्रेरी का मुद्दा है. ये मुद्दा जितना राजनीतिक होता जा रहा है, उतना ही अराजनीतिक और कुराजनीतिक भी. आपका यह कहना कि देश ही नहीं बचेगा, इससे क्या मतलब निकलेगा?
इसमें देश की बात इसलिए आयी क्योंकि इसमें पॉलिटिकल पार्टियों के लोग कूदे. इसलिए इसमें देश की बात मैं लेकर आया. ये विश्वविद्यालय का मुद्दा था. विश्वविद्यालय इसे अपने ढंग से हल कर रहा था, बातचीत हो रही थी. लड़कों से हमारे डीन और डायरेक्टर मिल रहे थे, यहां राजनीतिक पार्टियों को कूदने की ज़रुरत ही नहीं थी.

इसका मतलब कैम्पस में राजनीतिक हस्तक्षेप आप रोकना चाहते हैं, ये आप कैसे रोकेंगे?
पहले ये बताइये कि ये महिलाएं और लोग टोपी-बैनर पहनकर झंडा लेकर कैम्पस में क्यों घुस रहे थे? क्या साबित करना चाह रहे थे? संजय सिंह हमको बताएं. ये ठीक बात है क्या? और ये भी बताइये कि आप लोग भी इसका समर्थन करते हैं क्या? आप लोगों ने इसे बड़े गौरवपूर्ण ढंग से छापा. आप लोगों की खबरों को देखकर लग रहा था कि विश्वविद्यालय सुरक्षा के लोगों ने जैसे कोई अपराध कर दिया हो.

एक और सवाल है….
सुनिए, एक बात और बताएं! (मालवीय की तस्वीर दिखाते हुए) ये सामान्य विश्वविद्यालय नहीं है, ये एक महापुरुष की तपस्थली है. इसे लिख सकते हैं तो लिखिए. मैं देशभर के विश्वविद्यालयों में जाता रहा हूं, हमने यहां जैसे लड़के कहीं नहीं देखे. यहां के छात्रों के मन में विश्वविद्यालय के प्रति मंदिर का भाव है. ये कहना गलत है कि मुख्यद्वार पर लड़ाई करने वाले लड़के आरएसएस और बीजेपी के लड़के थे. सौ फीसदी गलत है. हमें भी जानकारी है. हमारा भी इंटेलिजेंस सक्रिय था. वे लड़के आम छात्र थे. उन्होंने देखा कि महिलाएं सिक्योरिटी अफसर को मार रही थीं, उनके कपड़े फाड़ रही थीं. उस पर वे आक्रोशित हुए. हाउ डेयर यू? हमारे कैम्पस के अन्दर आप हमारे लोगों को मार रहे हैं. जब लड़के उस सिक्योरिटी अफसर को बचाने के लिए गए तो उनको भी मारा गया. तब तमाम लड़कों ने मिलकर उन लोगों की पिटाई की.

यानी वे लड़के कहीं से भी एबीवीपी या संघ के नहीं हैं?
अरे भाई फ़ोटोग्राफ़ हैं. आप पहचानिए कि वे आरएसएस के लड़के हैं या नहीं? विद्यार्थी परिषद् के हैं या नहीं?

आप लड़कों द्वारा की गयी इस मारपीट का समर्थन करते हैं?
नहीं, समर्थन तो नहीं करता. लेकिन इस समर्थन के पहले मैं इस बात का विरोध करता हूं कि ‘आप’ के लोग झंडा-टोपी लगाए कैम्पस के अन्दर घुसे. वैसे भी ये सब इस लेवल के सवाल नहीं हैं कि इसका जवाब कुलपति देगा. मैं साफ़ कहता हूं कि विश्वविद्यालय को पॉलिटिक्स की प्रैक्टिसिंग का प्लेटफॉर्म नहीं बनाना चाहिए. ये तो उम्मीद सभी करते हैं कि संस्थाएं विद्यार्थियों की अच्छी खेप तैयार करेंगी. संस्थाएं ये तभी कर सकेंगी जब पक्षधर विचारों का दखल कम से कम होगा. आप आइये, चरित्र पैरों के नीचे कुचलिए और फिर लोग कहेंगे कि संस्थाएं अच्छे लोग तैयार नहीं कर रही हैं. आप मीडिया से हैं, मैं गलत कह रहा हूं तो बताइये. आप मेरी मदद करिए. ईश्वर साक्षी है कि यदि मैं कोई भी पार्टी पॉलिटिक्स कर रहा हूं तो मैं यहां एक मिनट भी न रहूं.

मीडिया तो अपना काम – जिस भी तरीके से – कर ही रहा है.
लेकिन सुनिए, अगर आपको छापना है तो छापिए. मैं संजय सिंह को जानता हूं कि संजय सिंह का बैकग्राउंड क्या है? वो इलाहाबाद के हैं, इसलिए मैं जानता हूं. संजय सिंह मुझसे ज्यादा उलझें न. मैं ये सब छोड़कर संजय सिंह से बहस करने को तैयार हूं. उनका चरित्र क्या है? मुझे नैतिकता न सिखाएं.

अब तो अरविन्द केजरीवाल आ रहे हैं…
केजरीवाल आ रहे हैं, तीस्ता सीतलवाड़ आ रही हैं. आप कह रहे हैं कि ये मुद्दा बड़ा छोटा था. ये मुद्दा प्रायोजित है. विकास सिंह यहां अनशन पर बैठा है. उसको पढ़ाई-लिखाई से कोई मतलब नहीं है. पांच-छः साल से शोध कर रहा है. वो एनएसयूआई का पदाधिकारी है. वह पूरे वर्ष में सिर्फ एक दिन 10 बजकर 45 मिनट पर लाईब्रेरी गया है, वह भी उस दिन जिस दिन आन्दोलन शुरू हुआ. विद्यार्थियों के आने-जाने का समय वहां लिखा जाता है. विकास सिंह के साथ जो लड़के अनशन पर बैठे हैं, वे बी.ए. के छात्र हैं. आप बताइए कि बी.ए के छात्रों को चौबीस घंटे लाईब्रेरी की ज़रुरत होती है. साइबर लाइब्रेरी में आप आधे-एक घंटे बैठिये, आपके सारे काम हो जाएंगे. वहां रात भर क्या होगा? मेरा कहना है कि इस आन्दोलन के पीछे इन लड़कों का मस्तिष्क नहीं है. विश्वविद्यालय को अशांत करने की सोची-समझी रणनीति है.

पूरे आंदोलन के प्रायोजित होने की बात जो आप अभी कह रहे हैं, वह बात पहले नहीं आयी. अभी ही क्यों आ रही है? यानी कहीं न कहीं कम्यूनिकेशन गैप हो रहा है?
छात्रों को रोजाना विश्वविद्यालय अपनी बात समझा रहा था, उन्हें हम कह रहे थे कि यह जो तुम मुद्दा उठा रहे हो, वह कोई मुद्दा है ही नहीं. मेरे ऊपर यह आरोप है कि मैं लोगों से ज्यादा मिलता हूं. आप पहले यदि आते होंगे तो आप जानते होंगे कि बीएचयू का वाइस-चांसलर कभी किसी से नहीं मिलता है. मैंने छात्रों तक को अलग समय दिया हुआ है. अब भी कोई कह रहा है कि कम्यूनिकेशन गैप हो रहा है तो मैं क्या कहूं?

आपके 18 महीनों के अब तक के कार्यकाम में कम से कम तीन बार कैम्पस में पुलिस बुलाई गयी. ऐसा क्यों?
पुलिस अपने से नहीं आती. पुलिस को बुलाना पड़ता है. पुलिस के पास इतनी फुरसत नहीं कि वह अपने से यहां आए, और न उन्हें दिलचस्पी है. जब हमारे लोग प्रयास करके हार गए, तब मजबूरी में पुलिस बुलानी पड़ी. मुझे इतना कष्ट होता है जब पुलिस आती है तो. पिछली बार दो हॉस्टलों में लड़ाई हुई थी तभी मैंने यहां कार्यभार सम्हाला तो मैंने पुलिस से कहा कि आप यहां से जाइए. उन्होंने कहा कि अब भी दिक्कत हो सकती है. फिर भी मैंने कहा कि आप लोग जाइए, मुझे भरोसा है कि कुछ नहीं होगा. हुआ भी नहीं, लड़कों ने हमारा साथ दिया. हमने कहा कि न संभल पाए तो आप फिर आ जाईयेगा, क्या दिक्कत है? जब-जब हमने पुलिस बुलाई तो हमारे पास कोई और रास्ता नहीं बच रहा था.

क्या चुनाव इस आन्दोलन की वजह है?
देखिए, बीएचयू एक बड़ी यूनिवर्सिटी है. ये एशिया का सबसे बड़ा रेजिडेंशियल कैम्पस है. यहां हर समय कम से कम एक लाख लोग मौजूद रहते हैं. यहां छोटी से छोटी घटना किसी भी समय बड़ा रूप ले सकती है. जिस दिन इन लड़कों को निलंबित किया गया था, अगर ये उसी दिन उठ गए होते तो आम आदमी पार्टी या तीस्ता सीतलवाड़ को आने का मौक़ा न मिलता, न ही इतना माहौल खराब होता. तीन दिन पड़े रहे. ‘आप’ आ गयी, तीस्ता जी आ गयीं. एनजीओ की फंडिंग बंद हो गयी तो अब तीस्ता जी क्या करें? कोई काम तो है नहीं. आप इसे छापिएगा, मैं कह रहा हूं. मैं तीस्ता से डरता हूं क्या? मेरी एक विचारधारा है, वह मानता हूं लेकिन मैं किसी पॉलिटिकल पार्टी का मेंबर नहीं हूं. हर व्यक्ति की तरह मेरी भी मल्टिपल आईडेंटीटी है. मैं एक कुल में पैदा हुआ, एक जाति में पैदा हुआ, एक जिले का हूं, एक प्रदेश का हूं, एक कुलपति हूं, एक शिक्षक हूं ये सब मेरी आइडेंटिटी है. लेकिन जो मेरी सबसे महत्वपूर्ण आइडेंटिटी है, वह ये है कि मैं इस देश का नागरिक हूं. कहीं कोई त्रुटि होगी तो उसका पूरा प्रायश्चित मुझे करना होगा. तीस्ता सीतलवाड़ बताएं या संजय सिंह बताएं कि मुझसे कहां त्रुटि हो रही है, कुलपति के दायित्त्व के निर्भार में.

आपके कई ऐसे बयान हैं, जिन पर कुलपति समेत विश्वविद्यालय भी आलोचना झेल रहा है. जिनमें से एक बयान आया, जिसमें एक यह है कि रात को दस बजे के बाद छात्राओं को मोबाइल पर बात नहीं करनी चाहिए. एक और है कि रात को निशाचर घूमा करते हैं.
कब कहा मैंने ऐसा? कभी भी नहीं कहा. जो मेरा अधिकृत बयान गया है, आप उन्हें निकालकर देखिए. जो वेबपोर्टल हैं, वे विज्ञापन और हिट बटोरने के लिए ऐसे बयान देते रहते हैं. मैंने जो कहा है, वह सुन लीजिए. मैंने लड़के और लड़कियों दोनों के लिए एक काउंसिलिंग और गाइडेंस सेल बनाया है. यहां 18000 बच्चे पढ़ते हैं. यहां कई तरह की घटनाएं हो रही हैं. यहां मैनेजमेंट, डॉक्टर कई तरह के लोग हैं. मैं ऑल इंडिया रेडियो की नीरजा माधव से मिला, टाइम्स ऑफ इंडिया की पत्रकार पंखुड़ी कपूर से मिला, रेडियो मिर्ची की नेहा श्रीवास्तव से मिला, मैंने कहा कि आओ, कुछ मदद करो भई. लड़कियों के हॉस्टलों में जाओ. उनकी पढ़ाई-लिखाई के बारे में बात करो. उनके खाने-पीने के बारे में बात करो और उन्हें कुछ प्रीकॉशन बताओ. क्योंकि सुरक्षा सबसे पहले व्यक्ति का खुद का दायित्त्व है. हम तो कर ही रहे हैं, लेकिन व्यक्ति का अपना भी तो दायित्त्व होता है. मैंने ये सब नहीं कहा कि फोन पर बात मत करो. एक घटना है कि मेरे सामने एक मांग रखी गयी कि ‘पिंजड़ा-तोड़’. आपको पता है पिंजड़े का मतलब हॉस्टल से है. हमारे यहां नियम है कि रात आठ बजे के बाद लड़की यदि हॉस्टल से बाहर जाती है तो उसे वार्डन की इजाज़त लेकर जाना होगा. उन्हें ये भी बंदिश लग रही है. मेरे सामने जब मांग आई तो लड़कियां नहीं आयीं, तो लड़कियां नहीं आयीं. बात आयी कि लड़के ये मांग लेकर आ रहे हैं. आज लड़कों को ये मांग सही लग रही है कि लड़कियां पिंजड़ा तोड़कर बाहर आएं और हमारे साथ घूमें. कल को ये लड़के पिता बनेंगे. उनकी लड़कियां भी घूमेंगी, तब ये लोग समझेंगे कि इनकी मांगें कितनी जायज़ हैं, कितनी नाजायज़. पिता बनने पर नहीं समझेंगे तो दादा-नाना बनेंगे तब तो समझ में आएगी.

एक बात मैंने यहां सघन तलाशी करायी. रात नौ बजे के बाद शहर के तमाम लड़के और लड़कियां यहां बैठे रहते हैं. अपनी कार से रात में निकला, लोगों ने कहा कि अरे आप वीसी हैं, हम ले चलते हैं. लेकिन मैं अध्यापक हूं. मैं निकला और मैंने देखा कि एक लड़का और लड़की ऐसी अवस्था में बैठे थे कि क्या बताऊं. मैंने गाड़ी रोकी. मैंने बैठा लिया गाड़ी में, कुछ और नहीं किया. मैंने केवल इतना कहा कि चलो तुम्हारे गार्जियन से बात करें. वे गिडगिडाने लगे, ‘अरे नहीं सर, गलती हो गयी सर.’ फिर मैंने उन्हें छोड़ भी दिया. यदि लोग इस तरह की चीज़ें देखेंगे तो हमारे बारे में और विश्वविद्यालय के बारे में क्या धारणा बनाएंगे? कोई अपने बच्चों को पढ़ाएगा. कोई भी पैरेंट इस तरह का माहौल देखेगा तो अपने बच्चों को कोई क्यों पढ़ाएगा? लोगों को लगा कि ये गुंडागर्दी है, ये कौन होते हैं रोकने वाले? मैंने कहा कि मैं हूं. मैं इस कैम्पस का कुलपति हूं, कोई ऐसी चीज़ जो नियम विरुद्ध है, वह मैं नहीं करूंगा. यदि ऐसा दंडनीय है तो मैं दंड भुगतने के लिए तैयार हूं.

लाइब्रेरी का मुद्दा पहले ही हल किया जा सकता था?
हमने बहुत कोशिश की थी. हम खुद भी गए थे. हमने कहा कि रात भर लाइब्रेरी खुलेगी और चार लोग पांच लोग पढ़ने आएंगे. क्या फायदा होगा? उस लाइब्रेरी का दो लाख प्रतिदिन का खर्च है. लड़के बदमाश हैं, कॉपर वायर तोड़ ले जात्ते हैं, माउस चुरा ले जाते हैं, हार्डडिस्क निकालकर ले जाते हैं. पेन ड्राइव में अश्लील फ़िल्में देखते हैं. इन सबसे अलग उनके वहां रहने से एकदम दूसरी समस्या पैदा हो सकती है कि वे वहां क्या कर रहे हैं?

क्या होगा आगे?
देखिए, लाइब्रेरी तो नहीं खोलेंगे. आप ही बताइये? खोलना चाहिए या नहीं खोलना चाहिए? मेरा क्या जाएगा खोलने में. मैं कुछ ही समय के लिए यहां हूं. मेरे बाद कोई आएगा तो हो सकता है कि खोल देगा. लेकिन इससे कोई एकेडमिक लाभ नहीं मिलना है. अब कैम्पस को डिस्टर्ब करना है, तो कोई तो मांग होगी इनकी. आन्दोलन कर रहे लड़के ये क्यों नहीं कह रहे हैं कि मुख्य लाइब्रेरी खुलवाइये? साइबर लाइब्रेरी ही खुलवाने का क्या मकसद है? यहां हॉस्टल कम है. छात्रों की रहने की जगह कम पड़ रही है, विभागों में जगह कम है. वहां पैसे खर्च करूं या इनकी अय्याशी पर खर्च करूं? पूरा कैम्पस वाई-फाई हो रहा है, हॉस्टलों में भी इंटरनेट सुविधा सही की जा रही है, क्या करेंगे साइबर लाइब्रेरी का?

(Image Courtesy – The Hindu)