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मुक्तिबोध : कहने दो उन्हें जो यह कहते हैं – सफल जीवन बिताने में हुए असमर्थ तुम!

नासिरुद्दीन

जब हम कश्मकश में होते हैं और सवालों के मुकाबले जवाब बहुत कम होते हैं तो साहित्य बड़ा सहारा बनते हैं. खासतौर पर जब हम जिंदगी के उस पड़ाव पर हों जब कुछ कर गुजरने की ख्वाहिशें अनंत हों और न करने के खुले और छिपे दबाव भी अनंत.

15-16 साल की कच्ची उम्र में जिन लोगों ने भी सामाजिक-राजनीतिक बदलाव की प्रक्रिया में कदम रखा है, उनमें से ज्यादातर लोगों की जिंदगी उलझनों और सवालों से जूझते हुए गुजरी है. चूंकि इनमें से ज्यादातर मध्यवर्गीय खानदानों से ताल्लुक रखने वाले रहे हैं, इसलिए इन पर सबसे ज्यादा दबाव जिंदगी को ‘कामयाब’ बनाने और साबित करने का रहा है. इस ‘कामयाबी’ का पैमाना भी उनके वर्ग के हिसाब से रहा है. यानी ज्यादातर के लिए ‘कामयाबी’ का पैमाना था/ रहा है – चुपचाप पढ़ाई, अच्छी नौकरी की कोशिश, शादी, सुखी पारिवारिक जिंदगी, अपना घर, गाड़ी, पैसा और बस यही तक पूरी दुनिया. हालांकि, ये पैमाने हर दौर में अलग-अलग रूपों में कुछ जोड़-घटाव के साथ बने रहे हैं.

कच्ची उम्र में इन पैमानों से लड़ने का विचार भी कच्चा ही होता है. तेवर तो अपने आप खूब परवान चढ़ जाते हैं, पर विचारों में पुख्तगी ज्यादातर दूसरों के ख्याल के सहारे शक्ल लेती है. इसमें भी साहित्य अहम भूमिका अदा करता है. जाहिर है, यह हमारे दौर में ही नहीं बल्कि यह हर दौर में होता होगा.

तीन दशक पहले सामाजिक बदलाव के आंदोलनों से जुड़े हमारे जैसे नौजवान लड़के-लड़कियां भी जिंदगी के इन्हीं पैमानों से गुजरे हैं. उन्हें भी साहित्य ने सहारा दिया. साहित्यं में भी शायर-कवि सबसे ज्यादा मददगार बने. इन मददगारों में फैज अहमद फैज, मख्दूम मोहिउद्दीन, शंकर शैलेन्द्र, प्रेम धवन, मजाज, दुष्यंत कुमार, साहिर लुधियानवी, गोरख पाण्डेय, बल्ली सिंह चीमा जैसे अनेक शामिल हैं. मगर इन सबमें एक नाम थोड़ी अलग जगह रखता रहा है. वह नाम गजानन माधव ‘मुक्तिबोध’ का है. मुक्तिबोध उस कशमकश का सहारा रहे, जिनसे सामाजिक काम में मन लगा रहे नौजवानों की जिंदगी गुजरती रही है. उनकी कविताएं उन सवालों का जवाब ढूंढने में मददगार बनीं, जिनके जवाब आसान नहीं थे. बल्कि यों कहा जाए कि जिंदगी को ‘कठिन’ बनाने में मददगार बने.

हमारे जैसे कईयों के लिए मुक्तिबोध समेत इन कवियों-शायरों-साहित्यकारों की रचनाएं, साहित्य की कसौटी पर कसने का जरिया न थीं और न हैं. इनकी रचनाएं हमारे लिए जिंदगी का रास्ता तलाशने और उस पर चलते हुए जीने का जरिया रहीं. सुकून का सबब बनीं. दुख-सुख की साझीदार बनीं. इसलिए ये कवि हमारे लिए खास हैं.

इनमें मुक्तिबोध का दर्जा अलग है. इसकी शायद एक वजह है कि हमारे जैसे लोग मुक्तिबोध के सहित्य में अपनी जद्दोज़हद को ज्यादा करीब पाते हैं. हमारी समझ में साहित्य की दुनिया और पाठक की दुनिया का पैमाना अलग-अलग भी है और कई बार एक-दूसरे से आजाद भी. इसलिए हमारा पैमाना, पाठक की जिंदगी और पसंद से जुड़ा पैमाना है.

यह सब कहने की एक खास वजह है. मुक्तिबोध की पैदाइश का सौंवा साल आज से शुरू हुआ है. 2017 में वे सौ साल के होते. साहित्यकार उनके योगदान का मूल्यांकन जिन पैमानों पर करेंगे, मैं वह कर पाने में नाकाम हूं. चूंकि वह हमारे जीवन में योगदान देते रहे, इसलिए हम भी उन्हें याद करना जरूरी समझते हैं. हमारे जैसों के लिए मुक्तिबोध कमजोर वक्त में मजबूत सहारा हैं. वे हमें जीने का मकसद भी देते हैं और विचार की पुख्तगी का जरिया भी बनते हैं. इसे समझना है तो शायद मशहूर साहित्यकार हरिशंकर परसाई का संस्मरण मदद कर सकता है. परसाई जी लिखते हैं,

…जो मुक्तिबोध को निकट से देखते रहे हैं, जानते हैं कि दुनियावी अर्थों में उन्हें जीने का अन्दाज कभी नहीं आया. … वे गहरे अंतर्द्वंद्व और तीव्र सामाजिक अनुभूति के कवि थे…. मुक्तिबोध की आर्थिक दुर्दशा किसी से छिपी नहीं थी. उन्हें और तरह के क्लेश भी थे. भयंकर तनाव में वे जीते थे. पर फिर भी बेहद उदार, बेहद भावुक आदमी थे. उनके स्वभाव के कुछ विचित्र विरोधाभास थे. पैसे-पैसे की तंगी में जीनेवाला यह आदमी पैसे को लात भी मारता था… यों वे बहुत मधुर स्वभाव के थे. खूब मजे में आत्मीयता से बतियाते थे. मगर कोई वैचारिक चालबाजी करे या ढोंग करे, तो मुक्तिबोध चुप बैठे तेज नजर से उसे चीरते रहते… मुक्तिबोध विद्रोही थे. किसी भी चीज से समझौता नहीं करते थे… मुक्तिबोध भयंकर तनाव में जीते थे… आर्थिक कष्ट उन्हें असीम थे… उन जैसे रचनाकार का तनाव साधारण से बहुत अधिक होगा भी… वे संत्रास में जीते थे… आजकल संत्रास का दावा बहुत किया जा रहा है… मगर मुक्तिबोध का एक-चौथाई तनाव भी कोई झेलता तो उनसे आधी उम्र में मर जाता…

इन्हीं मुक्तिबोध के बारे में अशोक वाजपेयी कहते हैं,

‘मुक्तिबोध एक कठिन समय के कठिन कवि हैं. उन्होंने अपने सच को कठिन वैचारिक और भावनात्मक संघर्ष से पाया और कविता में चरितार्थ किया… मुक्तिबोध का नायक साधारण व्यक्ति है, बल्कि महानायकों के उत्थान-पतन के युग में पराजित न होने वाला, हिम्मत न हारनेवाला, दुनिया को बेहतर बनाने की इच्छा रखने और लगातार संघर्ष करनेवाला प्रतिनायक. नायकों की चिकनी-चुपड़ी सुसं‍गठित व्यवस्था का प्रतिरोध करने वाली खुरदरी धूसर अराजक कविता का प्रतिनायक.’

तीस साल पहले मुक्तिबोध को देखने की यह समझ नहीं थी. साहित्यिक पैमाने पर आज भी नहीं है. लेकिन बतौर कार्यकर्ता और पाठक मुक्तिबोध जो लिख रहे थे, उनसे शायद इसीलिए जुड़ाव हो पाया जिसकी बात हरिशंकर परसाई और अशोक वाजपेयी कर रहे हैं.

तीन दशक पहले, परेशान हाल होने पर उनकी एक लम्बीअ कविता हम कई दोस्तों को अपने ज्यादा करीब नजर आती थी और कई बार आज भी आती है. हम इससे अपने को समझाते भी थे और अपने काम को समझने की कोशिश भी करते थे.


कहने दो उन्हें जो यह कहते हैं-
‘सफल जीवन बिताने में हुए असमर्थ तुम!
तरक्की के गोल-गोल
घुमावदार चक्करदार
ऊपर बढ़ते हुए जीने पर चढ़ने की
चढ़ते ही जाने की
उन्नति के बारे में
तुम्हारी ही जहरीली
उपेक्षा के कारण, निरर्थक तुम, व्यर्थ तुम!’

तुम्हारे पास, हमारे पास
सिर्फ एक चीज है-
ईमान का डंडा है,
बुद्धि का बल्लम है,
अभय की गेती है
हृदय की तगारी है-तसला है
नए-नए बनाने के लिए भवन
आत्मा के,
मनुष्य के,
हृदय की तगारी में ढोते हैं हमीं लोग
जीवन की गीली और
महकती हुई मिट्टी को.

अहंकार समझो या
सुपीरियारिटी कॉम्पलेक्स
अथवा कुछ ऐसा ही
चाहो तो मान लो,
लेकिन सच है यह
जीवन की तथाकथित
सफलता को पाने की
हमको फुरसत नहीं,
खाली नहीं हम लोग!!
बहुत बिजी हैं हम!

शायद इसीलिए हममें से कइयों ने अपने आगे के काम अलग-अलग चुने. हालांकि हममें से कई जो कल तक इससे सहारा पाते थे और यकीन करते थे, ‘सफलता के चंद्र की छाया में’ ‘पूनों की चांदनी’ में सुकून पाने लगे. हमारे लिए भी रिश्ते , प्रतिष्ठा और सम्मान ‘सफलता’ के इन्हीं पैमानों पर तय होने लगे. ऐसे वक्त में मुक्तिबोध आज भी वह आईना हैं जो ‘घुग्घू’ या ‘सियार या भूत’ बन जाने की चेतावनी के रूप में सामने आते हैं.

इसी तरह, एक भूतपूर्व विद्रोही का आत्म-कथन नाम की कविता है. हमें यह इसलिए भाती क्यों कि इसकी आखिरी चंद लाइनें जैसे अपने को खत्म कर देने को मायने दे देती हैं.


… लेकिन, दबी धुकधुकियों,
सोचो तो कि
अपनी ही आँखों के सामने
खूब हम खेत रहे!
खूब काम आए हम!!
आँखों के भीतर की आँखों में डूब-डूब
फैल गए हम लोग!!
आत्म-विस्तार यह
बेकार नहीं जाएगा।
जमीन में गड़े हुए देहों की खाक से
शरीर की मिट्टी से, धूल से।
खिलेंगे गुलाबी फूल।
सही है कि हम पहचाने नहीं जाएँगे।
दुनिया में नाम कमाने के लिए
कभी कोई फूल नहीं खिलता है
हृदयानुभव-राग अरुण
गुलाबी फूल, प्रकृति के गंध-कोष
काश, हम बन सकें!

विचारवान कौन है? विचार किसके पास है और किसके पास होगा? विचार की अपनी सत्ता होती है और हम इस सत्ता से आक्रांत रहते थे. लेकिन विचार के समाजशास्त्रन का इससे अच्छा पैमाना क्या हो सकता है, जैसा मुक्तिबोध बताते हैं-


विचार आते हैं-
लिखते समय नहीं,
बोझ ढोते वक्त पीठ पर
सिर पर उठाते समय भार
परिश्रम करते समय

विचार आते हैं
लिखते समय नहीं
…पत्थर ढोते वक्त

मुक्तिबोध एक खास वैचारिक धारा के साहित्यकार थे. इस धारा को मार्क्सवादी, साम्यवादी, वामपंथी जैसे कई नामों से जाना जाता है. समाजवादी मुल्कों के पतन के बाद इस विचार के जरिए समाज को देखने समझने वालों का यकीन भी डिगा. लेकिन कई संकटों के बाद पूंजीवाद नाम की व्यवस्था अब भी कैसे जिंदा है और क्यों इसे खत्म होना है, हम जैसे लोगों के लिए अंधियारे वक्‍त में मुक्तिबोध ही सहारा बनते थे और हैं –


इतने प्राण, इतने हाथ, इतनी बुद्धि
इतना ज्ञान, संस्कृति और अंत:शुद्धि
इतना दिव्य, इतना भव्य, इतनी शक्ति

तू है मरण, तू है रिक्त, तू है व्यर्थ
तेरा ध्वंस केवल एक तेरा अर्थ।

(पूंजीवादी समाज के प्रति)

मुक्तिबोध की छाप का एक उदारहण काफी है. जब भी हम किसी से उसकी वैचारिक नजरिए के बारे में सवाल करते थे, तो सहज ही मुक्तिबोध की यह लाइन हमारे जबान से निकलती थी, पार्टनर, तुम्हाधरी पॉलिटिक्स क्या है? यह लाइन मुहावरे की शक्ल अख्तियार कर चुका है. मुक्तिबोध की कविताएं, उनकी लाइनें कैम्पस में आज भी पोस्टर की शक्ल में दिखती हैं, जैसी बरसों पहले दिखती थीं. यह साहित्य की दुनिया से इतर मुक्तिबोध की मकबूलियत है.

हरिशंकर परसाई अपने संस्मरण के आखिर में कहते हैं,

‘मुक्तिबोध का फौलादी व्यक्तित्व अन्त तक वैसा ही रहा. जैसे जिन्दगी में किसी से लाभ के लिए समझौता नहीं किया, वैसे मृत्यु से भी कोई समझौता करने को तैयार नहीं थे…. वे मरे. हारे नहीं. मरना कोई हार नहीं होती.’

इसीलिए कशमकश की हालत में आज भी हम जिंदगी को पलट कर देखते हैं तो मुक्तिबोध की यह लाइन ही काम आती है,


‘अब तक क्या किया,
जीवन क्या जिया,
ज्यादा लिया और दिया बहुत-बहुत कम…’

साहित्य के जानकारों के लिए इसका मतलब चाहे जो हो, हमारे लिए यह कुछ करने की प्रेरणा था और है…

[नासिरूद्दीन वरिष्ठ पत्रकार हैं. सामाजिक मुद्दों – खासतौर पर महिलाओं से जुड़े मुद्दों – पर लिखते रहे हैं. लम्बे वक्त तक ‘हिन्दुस्तान’ से जुड़े रहे. अब नौकरी से इस्तीफा देकर पूरावक्ती तौर पर लेखन और सामाजिक काम में जुटे हैं. उनसे [email protected] पर संपर्क किया जा सकता है.]