नीतिश राज में लाचार बिहार के पिछड़े व दलित

अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net

पटना: बिहार के पिछड़े, दलित और महादलित सूबे के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार के बड़े वोट-बैंक रहे हैं. इन तबक़ों ने बीते विधानसभा चुनाव में महागठबंधन को जमकर अपना समर्थन दिया था. नीतिश कुमार ने इनकी स्थिति में सुधार और चमत्कार के तमाम वादे भी कर रखे थे. मगर पिछले एक साल में ऐसा कुछ भी नहीं हुआ, जिसे एक यादगार उपलब्धि के तौर पर गिना जाए.


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हालांकि बिहार की अधिकतर पिछड़े व दलित महिलाएं शराबबंदी को नीतिश कुमार की बड़ी उपलब्धी बता रही हैं, लेकिन इनमें भी अधिकतर का कहना है कि बिहार में शराब बंद होने के बाद भी उनके पतियों को कहीं न कहीं से शराब मिल ही जाता है. और इस चक्कर में वे पहले के मुताबिक दोगुने-तिगुने पैसे खर्च कर देते हैं, ऐसा इसलिए क्योंकि शराबबंदी के बाद ब्लैक में शराब बेचने वाले अब दोगुने-तिगुने मुनाफ़े पर शराब बेचते हैं.

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जानकारों का मानना है कि दलितों व पिछड़ों की हालत आज भी वही है. वे आज भी समाज के सबसे निचले स्तर पर ही हैं, बल्कि उनकी और ऊंची जातियों के बीच की खाई दिनों-दिन और चौड़ी होती जा रही है. आपराधिक वारदातों में सबसे अधिक दलित व पिछड़े ही मुजरिम के तौर पर सताए जा रहे हैं, वहीं ऊंची जातियों पर पुलिस-प्रशासन कार्रवाई करने में हिचकिचाता है. नीतिश के शासनकाल की ये तस्वीर बेहद ही चिंताजनक है.

पिछड़ों व दलितों के मानव अधिकारों की लड़ाई लड़ने वाली एडवोकेट सविता अली TwoCircles.net के साथ बातचीत में कहती हैं, ‘पिछले एक साल में दलित-पिछड़ी महिलाओं की ज़िन्दगी पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा है. बिहार में पहले भी इनका उत्पीड़न होता था और आज भी यह बदस्तूर जारी है. बल्कि इनके साथ उत्पीड़न के मामलों में इज़ाफ़ा ही नज़र आ रहा है.’

सविता अली आगे बताती हैं, ‘दलित-पिछड़ी महिलाओं के उत्पीड़न के मामले में बिहार पुलिस का रवैया भी काफ़ी ख़राब है. नीतिश के पुलिसकर्मियों की मनमानी काफी बढ़ी हुई दिखाई दे रही है. हम कई मामलों को लेकर आईजी तक जा चुके हैं. उन्होंने अपने स्तर से कार्रवाई भी करने की कोशिश की थी, लेकिन अब डीजीपी स्तर पर कुछ भी नहीं हो पा रहा है.’

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नेशनल कैम्पेन ऑन दलित ह्यूमन राईट्स के बिहार समन्वयक राजेश्वर पासवान का कहना है, ‘पिछले एक साल में दलितों व पिछड़ों पर अत्याचार व उत्पीड़न के मामले काफी बढ़ गए हैं. ख़ासतौर से महिलाएं ख़ूब ज़ुल्म की शिकार हुई हैं. इस बीच सरकारी तंत्र पूरी तरह निष्क्रिय नज़र आया. पुलिस अधिकारी एससी/एसटी एक्ट का अनुपालन नहीं कर रहे हैं.’

राजेश्वर बताते हैं, ‘पिछले 3-4 महीनों में हमारे सामने सैकड़ों मामले आए हैं. खुद मैंने इन तीन महीनों के दौरान 22 मामलों की फैक्ट फाईडिंग की है. इनमें ज़्यादातर मामले सामूहिक बलात्कार व मारपीट के हैं.’

अल्पसंख्यकों व दलितों के लिए काम करने वाली संस्था मिसाल फाउंडेशन से जुड़े सामाजिक कार्यकर्ता इबरार अहमद बताते हैं, ‘नीतिश सरकार के कई फैसले दलितविरोधी रहे हैं. पटना की सड़कों पर दलित छात्रों की पिटाई तो हम सबने खुली आंखों से देखा है. इसी सरकार ने उच्च शैक्षणिक संस्थानों में पढ़ाई के लिए दलित व पिछड़े वर्ग के छात्रों को मिलने वाली स्कॉलरशीप की रक़म को घटाने का भी काम किया था. ताज़ा उदाहरण हाईकोर्ट के विधि पदाधिकारियों की नियुक्ति का भी है. सरकार ने 20 जुलाई को 82 पदाधिकारियों की सूची जारी की जिसमें किसी दलित को जगह नहीं मिली है.’

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यदि आंकड़ों की बात करें तो बिहार पुलिस के बीते पांच साल के आंकड़े बताते हैं कि दलित उत्पीड़न की घटनाएं तेज़ी से बढ़ी हैं. 2011 में जहां अनुसूचित जाति और जनजाति के खिलाफ़ अपराध के 3438 मामले दर्ज हुए थे, वहीं 2013 में यह संख्या बढ़कर 6359 हो गई. बीते दो वर्षों यानी 2014 और 2015 के दौरान भी ऐसे अपराधों की संख्या छह हजार से अधिक ही दर्ज की गई है.

इन सबके विपरित बिहार महादलित आयोग का चेयरमैन डॉ. हुलेश मांझी बातचीत में कहते हैं, ‘नीतिश सरकार ने जो भी वादे किए थे, उन वादों पर खरा उतरने की पूरी कोशिश ज़रूर की गई है. तमाम चुनावी वादों को नीतिश कुमार ने अपने ‘सात निश्चय’ के माध्यम से पूरा करने की कोशिश की है और आगे भी वे इसके लिए प्रतिबद्ध नज़र आ रहे हैं.’

हालांकि हुलेश मांझी यह भी मानते हैं कि उत्पीड़न के मामले बढ़े हैं. लेकिन सिर्फ़ बिहार में ही नहीं, बल्कि दूसरे राज्यों में भी बढ़े हैं. वो कहते हैं, ‘आप इसका आनुपातिक आकलन करेंगे तो बिहार दूसरे राज्यों के मुक़ाबले काफी पीछे नज़र आएगा.’

बिहार में बढ़ते दलितों-पिछड़ों के उत्पीड़न के कारण के सवाल पर डॉ. हुलेश मांझी का कहना है, ‘इसका सबसे अहम कारण बिहार में पिछड़ों व दलितों का तेज़ी से हो रहा उत्थान है. पिछले एक साल में लगभग 20 हज़ार टोला सेवक, 10 हज़ार विकास मित्र और इसके अलावा कई हज़ार दलितों व पिछड़ों का नियोजन हुआ है. नियोजन के बाद ये दलित व पिछड़े विभिन्न पदों पर काम कर रहे हैं. अब इसको देखकर उच्च वर्ग के लोगों के पेट में काफी दर्द है. ऐसे में कहीं न कहीं बिहार सरकार द्वारा किए जा रहे इन कार्यों का गुस्सा इन दलित व पिछड़े परिवारों को झेलना पड़ रहा है.’

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बहरहाल, नीतिश कुमार ने बिहार में सामाजिक गठबंधन का जो प्रयोग किया वह विशेष तौर पर पिछड़ों, दलितों व महादलितों के लिए उम्मीद की किरण बनकर सामने आया था. ऐसे में उनके बिहार में ही दलितों की ज़मीन दरकने लगे तो यह एक बेहद ही संवेदनशील स्थिति की ओर इशारा करता है. अगर समय रहते सही क़दम नहीं उठाए गए तो ये पिछड़े व दलित न सिर्फ खुद को ठगा हुआ महसूस करेंगे बल्कि वक़्त बीतते वे ऐसे पाले में भी जा सकते हैं, जिसका नतीजा सेकुलर राजनीति के लिए बेहद ही चिंताजनक साबित हो सकता है.

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