अल्पसंख्यकों के रिपोर्ट कार्ड में सीएम नीतीश फेल!

अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net

नीतीश कुमार के एक साल का रिपोर्ट कार्ड बिहार के अल्पसंख्यकों को हज़म नहीं हो रहा है. नीतीश कुमार ने तमाम बड़े-बड़े दावे इस रिपोर्ट कार्ड में किए हैं. अल्पसंख्यकों के लिहाज़ से कई चमकदार योजनाओं का ज़िक्र भी किया है. लेकिन ज़मीनी सच्चाई यह है कि खुद अल्पसंख्यक तबक़े के लोग मानते हैं कि ये योजनाएं ज़मीन से कोसों दूर हैं.


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इस पूरे परिवेश में एक चिंताजनक भूमिका बिहार पुलिस के रोल का भी है. बिहार पुलिस का रोल न सिर्फ़ अल्पसंख्यकों के हक़ में नहीं है, बल्कि उन्हें परेशान करने वाला भी है. जानकारों के मुताबिक़ साम्प्रदायिक दंगे व तनाव के मामले बढ़े हैं और इन्हें सुलगाने वाले तबक़ों के ख़िलाफ़ कोई ठोस कार्रवाई नहीं हुई है. इन सबको देखते हुए नीतीश कुमार का अल्पसंख्यक के हक़ में काम करने का दावा खोखला साबित हो रहा है.

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पटना में रहने वाले सामाजिक कार्यकर्ता अली आबिद का कहना है कि –‘ऊपरी तौर पर देखेंगे तो बिहार में सबकुछ ठीक दिखता है. सड़कें बनी हैं, बिजली सुधरी है. गांव में नल आदि लग रहे हैं. लेकिन समाज के विकास में सिर्फ़ यही चीज़ें मायने नहीं रखतीं. इसके साथ-साथ राज्य का अकादमिक माहौल और सामाजिक-राजनीतिक मूवमेंट भी मायने रखता है. नीतीश कुमार बिहार में इन दोनों चीज़ों को तक़रीबन ख़त्म कर दिया है.’

अली आबिद आगे बताते हैं कि –‘बिहार में अब किसी भी तरह की सामाजिक-राजनीतिक एक्टिविटी नहीं होने दिया जा रहा है. यूनिवर्सिटियों व कॉलेजों में सिर्फ़ डिग्रियां बांटने का काम हो रहा है. यानी जिन चीज़ों से एक सोचने-विचारने वाला तबक़ा पैदा होता है, उन चीज़ों को नीतीश कुमार ने लगभग ख़त्म कर दिया है और उनका ये काम आज से नहीं, बल्कि 2005 से ही चल रहा है, जब वो पहली बार मुख्यमंत्री बने थे.’

अली आबिद का स्पष्ट तौर पर कहना है कि –मुसलमानों के मामले में नीतीश कुमार का रोल पहले भी अच्छा नहीं रहा है और आज भी नहीं है. इस मामले में यह भी पीएम मोदी की तरह ही हैं. मोदी भी कहते हैं –‘सबका साथ –सबका विकास’ और यह भी कहते हैं –‘न्याय के साथ विकास’.’

अली आबिद अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए बताते हैं कि –‘पिछले एक साल में कहीं कोई काम नहीं हुआ है. मुसलमानों के नाम पर चलने वाले सारे संस्थान ठप्प पड़े हैं. इन संस्थानों में सिर्फ़ नाम के लिए अपनी जी-हज़ूरी करने वाले लोगों को बैठा रखा है, जिनको कोई काम ही नहीं करना है. उनको सिर्फ़ ऐसी चीज़ों के प्रमोट करना है, जिससे लगे कि नीतीश कुमार कुछ कर रहे हैं.’

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सामाजिक कार्यकर्ता अरशद अजमल का कहना है कि –‘मुसलमानों ने महागठबंधन को वोट बीजेपी को हराने के लिए दिया था. वोट देते समय भी उनके दिमाग़ में ये बात बहुत क्लियर था कि सिर्फ़ महागठबंधन ही उनके लिए ऑप्शन है. बीजेपी को रोकना है तो महागठबंधन को ही वोट देना होगा.’

आगे अरशद अजमल बताते हैं कि –‘बुनियादी सवाल ये है कि मुसलमानों ने महागठबंधन को वोट दिया है, तो इसका फ़ायदा भी इनको मिलना चाहिए. मुसलमानों को ख़ास डर यह था कि साम्प्रदायिक ताक़तें यदि सत्ता में आएंगी तो साम्प्रदायिक हिंसा के मामलों में बढ़ोत्तरी होगी. इसके विपरित महागठबंधन इस पर लगाम लगाने का काम करेगी. लेकिन नीतीश कुमार के इस शासनकाल में ऐसे मामले घटने के बजाए बढ़े हैं. नीतीश ने ऐसा कोई काम नहीं किया है, जिससे इस तरह के मामलों में रूकावट आए.’

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वहीं पटना में रहने वाले प्रो. वसी का मानना है कि –‘कोई भी सरकार साम्प्रदायिक तनाव को नहीं रोक सकती. हां, हो जाने के बाद इसे आगे बढ़ने पर ज़रूर विराम लगाने का काम कर सकती है. अब आप ही सोचिए कि हम इस कमरे में अचानक आपस में लड़ पड़ें तो क्या कोई पुलिस इस झगड़े को होने से रोक सकती है. शायद नहीं… लेकिन हां, हम आगे आपस में न लड़ें, इसकी कोशिश ज़रूर कर सकती है. यानी लड़ाई और आगे न बढ़े यहीं पर पुलिस व प्रशासन का रोल आता है.’

आगे प्रो. वसी कहते हैं कि –‘बिहार ने तो अश्वमेध के घोड़े को थाम दिया. वरना बिहार चुनाव का नतीजा भी वैसा होता, जैसे लोकसभा चुनाव का हुआ था. और अगर ऐसा होता तो आज हिन्दुस्तान का नक़्शा कुछ और होता.’

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बिहार राबता कमिटी के सचिव अफ़ज़ल हुसैन का मानना है कि सरकार ने तो कई योजनाएं बनाई हैं, लेकिन मुसलमानों के जो लीडर हैं वही चिंचित नहीं हैं कि कैसे सरकार के इन योजनाओं को आम लोगों तक पहुंचाया जाए. आप पंचायती राज से लेकर ज़िला पार्षद व परिषद और विधायक-सांसद तक देख लीजिए सब जगह हमारे ये नुमाइंदे इन योजनाओं को लेकर सक्रिय नहीं हैं. बल्कि यही लोग आड़े भी आते हैं.

पटना में राजनीतिक विज्ञान की पढ़ाई करने वाले एक छात्र फ़ुरक़ान अहमद बताते हैं कि बिहार में पिछले एक साल में 50 से अधिक साम्प्रदायिक तनाव के छोटे-बड़े मामले सामने आए हैं. हालांकि फ़ुरक़ान यह संख्या सिर्फ़ एक उर्दू अख़बार इंक़लाब में प्रकाशित कतरनों को जमा करके बता रहे हैं. फ़ुरक़ान बिहार के दंगों पर शोध की नियत से इंक़लाब में प्रकाशित साम्प्रदायिक तनाव से संबंधित ख़बरों की कतरनें एकत्रित कर रहे हैं. इनका मानना है कि साम्प्रदायिक तनाव के मामले पिछले एक साल में 100 से ऊपर हैं, लेकिन ज़्यादातर मामले अख़बारों में नहीं आ सके हैं.

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पटना में रहने वाले वरिष्ठ पत्रकार सुरूर अहमद का कहना है कि –‘मुझे पिछले एक साल में मुसलमानों के लिए कोई ख़ास काम नज़र नहीं आ रहा है. बिहार अल्पसंख्यक आयोग के चेयरमैन का पद वर्षों से खाली है. बजट भी काफी कम है, लेकिन लोगों में ये संदेश ज़रूर है कि सरकार सेकूलर फ्रंट की है.’

सुरूर अहमद आगे बताते हैं कि –‘नीतीश कुमार जब लालू यादव के साथ नहीं थे. बीजेपी के साथ थे. उस ज़माने में उन्होंने मुसलमानों के लिए ज़्यादा फ़ायदा पहुंचाने का काम किया, क्योंकि उस समय उन्हें राजद से मुसलमानों को तोड़कर अपनी तरफ़ जो करना था.’

ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमिन के बिहार प्रदेश अध्यक्ष अख़्तरूल ईमान कहते हैं कि –‘बिहार के मुसलमानों ने तो महागठबंधन की जीत के लिए जंग लड़ी है. लेकिन इसके ईनाम में मुसलमामों के लिए जो बजट था, उसे 309 करोड़ से कम करके 294 करोड़ कर दिया गया.’

ईमान बताते हैं कि –‘उर्दू को बिहार की दूसरी सरकारी ज़बान का दर्जा दिया गया है. लेकिन बिहार के तमाम रजिस्ट्री ऑफिस में पिछले 7-8 महीने से उर्दू में काम बंद है. उर्दू से बेरूखी का आलम यह है कि उर्दू स्कूलों में भी मीड मील का मेन्यू हिन्दी भाषा में लगाया गया है. 80 हज़ार से अधिक उर्दू शिक्षकों के पद खाली हैं. 27 हज़ार बहाली की वैकेंसी भी निकाली गई, लेकिन अब तक ये पद खाली पड़े हुए हैं. सच तो यही है कि उर्दू को मुसलमानों के साथ जोड़कर इस ज़बान को तबाह कर दिया गया है. मुसलमानों की हिमायत से बनी बनी यह सरकार मुसलमानों के लिए ऐसा कुछ भी नहीं किया है, जिसका मैं ज़िक्र कर सकूं.’

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आगे ईमान बताते हैं कि –‘मुसलमानों का दंभ भरने वाली यह महागठबंधन छपरा के मुसलमानों का आसूं पोछना तक मुनासिब नहीं समझा. सरकार का कोई टीम वहां का दौरा तक नहीं किया. बल्कि इस दंगे को रिपोर्ट करने से भी मीडिया को मना कर दिया गया. ये वही सरकार है जिसका एक तिहाई वोट मुसलमानों ने दिया था.’

इन सब मसलों पर TwoCircles.net से बात करते हुए अल्पसंख्यक कल्याण मंत्री अब्दुल ग़फ़ूर कहते हैं कि –‘इस एक साल में इस मंत्रालय की जो भी ज़िम्मेदारी रही, उसे हमने बेहतर ढंग से निभाने की पूरी कोशिश की. हमारा विभाग अन्य विभागों के मुक़ाबले अपने बजट का सौ फ़ीसदी इस्तेमाल किया है.’

बिहार में बढ़ते साम्प्रदायिक मामलों के सवाल पर मंत्री ग़फ़ूर कहते हैं कि –‘ये देखना बहुत ज़रूरी है कि दंगे हुए तो सरकार का क्या रोल रहा? हम सभी जानते हैं कि मुल्क में बीजेपी की सरकार है. उनके नेता-मंत्री तरह-तरह की साम्प्रदायिक बयान देते हैं. स्वाभाविक है कि उसका असर आम जनता पर भी पड़ रहा है. और इस असर से ख़ासतौर पर उनकी विचारधारा से सहमत लोग ज़्यादा ज़हर उगलने लगे हैं, जिसके परिणाम में पूरे देश में साम्प्रदायिक मामलों में इज़ाफ़ा हुआ है. लेकिन हमारी बिहार ने इनसे सख़्ती से निपटने का काम किया है. हमने कहीं भी दंगे को आगे नहीं बढ़ने दिया.’

यहां यह भी स्पष्ट रहे कि अल्पसंख्यकों ने नीतीश कुमार और उनके महागठबंधन को साफ़तौर पर खुलकर साथ दिया था. इनके वोटों के सहारे के दम पर ही बीजेपी का साथ छोड़ने का दुस्साहिक निर्णय लेने और फिर सरकार बना लेने तक में कामयाब हो पाएं. ऐसे में उनसे उम्मीद की जाती है कि वो इस तबक़े के हितों का ख़्याल रखेंगे, मगर अभी तक के कामों के नतीजे इस कहानी को झूठा क़रार देते हैं, जो न सिर्फ़ बिहार के लिए बल्कि सेकूलर ताक़तों के जमावड़े के लिए भी एक ख़तरे की घंटी है.

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