नफरत का आधार साम्प्रदायिक ताकतों द्वारा इतिहास की गलत प्रस्तुति है – राम पुनियानी से बातचीत – 1

नासिरूद्दीन हैदर खान

राम पुनियानी आज़ाद हिन्दुस्तान की उम्र से लगभग दो साल बड़े हैं. हमारी आजादी मुल्क के बंटवारे के साथ आई थी. आज के मुताबिक, वे बंटवारे की सीमा की दूसरी तरफ के रहने वाले हैं. जाहिर है कि राम पुनियानी और उनके परिजनों के पास बंटवारे की अनेक कहानियां कहने को हैं लेकिन ये कहानियां दूसरे समुदाय के बारे में नफरत की कहानियों में कभी तब्दील नहीं हुईं. और अब राम पुनियानी अमन के दूत बन गए हैं. जिस उम्र में ज्यादातर मध्यवर्गीय नौकरीपेशा लोग रिटायर होने के बाद आराम की पारिवारिक जिंदगी गुजारते हैं, राम पुनियानी ने एक अलग रास्ता अख्तियार किया. वे अब देश के दूर-दराज इलाकों में घूम-घूम कर अपनी खास ‘अमन कथा’ के ज़रिए नफरत फैलाने वाली बातों, भ्रम, भ्रांतियों को दूर करने और लोगों को इसकी राजनीति की सचाई से रूबरू कराने का काम कर रहे हैं.


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कुछ महीनों पहले वे जन-जागरण शक्ति संगठन (जेजेएसएस) के बुलावे पर बिहार के उत्तरपूर्वी हिस्से में अपनी ‘अमन कथा’ के लिए गए थे. तीन दिनों में वे दर्शकों के तीन अलग-अलग समूहों से मुखातब हुए. इनमें आमजन महिला और पुरुष थे, विद्यार्थी और टीचर थे, पढ़े-लिखे थे, जो किन्हीं वजहों से पढ़ नहीं पाए, वे भी अच्छी तादाद में थे. वहां राम पुनियानी ने पूरे दिन की दो कार्यशालाएं की और एक आम सभा भी. इस दौरान वे कभी थके नहीं मिले. हमेशा लोगों से संवाद और उनकी जिज्ञासाएं दूर करने को तैयार दिखे. टेढ़े से टेढ़े सवालों का जवाब शालीनता के साथ तार्किक तरीके से देने की कोशिश की. जैसा सुनने वाले, वैसे ही उनके तर्क और तथ्य होते थे. नतीजतन, अपने संवाद कौशल की बदौलत वे बहुत जल्दी सुनने वालों के ज़ेहन में अपने विचारों के लिए जगह बना लेते.

आज राम पुनियानी हमारे दौर के सामाजिक क्षेत्रों में सक्रिय कुछ लोगों में से एक अहम शख्स हैं. राम पुनियानी से सामाजिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक मुद्दों पर दिलचस्प बात की जा सकती है. राम पुनियानी की दिलचस्पी और जानकारी का दायरा काफी बड़ा है. उनकी बिहार यात्रा के दौरान उनसे बात हुई. फिर मैंने उनके सामने सवालों की लम्बी फेहरिस्त रख दी. उन्होंने सभी सवालों का जवाब बेहद ध्यान से दिया है. तीन भागों में फ़ैली इस बातचीत का अगला हिस्सा दो दिनों बाद यानी सोमवार को आएगा.

राम पुनियानीराम पुनियानी

आमतौर पर हम सामाजिक कार्यकर्ताओं की निजी जिंदगी के बारे में बहुत कम जानते हैं. उनकी भी अपनी यात्रा होती है. आप अपने बारे में बताइए ताकि हमें आपका सफर पता चले. जैसे आप लोग कहां के रहने वाले हैं?

मेरी पैदाइश 25 अगस्त 1945 की है. हमारा पुश्तैनी इलाका अब पाकिस्तान में है. आप कह सकते हैं कि मैं एक रिफ्यूजी ख़ानदान में पैदा हुआ. 1947 में मेरे घर वाले पंजाब के झंग इलाके से आए थे. वहां से आने के बाद हमारे परिवार ने नागपुर में ठिकाना बनाया. घर का गुजर-बसर चलाने के लिए मेरे पिता को लम्बे अरसे तक कड़ी मेहनत-मशक्कत करनी पड़ी. हमारा संयुक्त परिवार था. इसके फायदे भी थे और परेशानियां भी. हम सब बहुत ही लाड-प्यार वाले माहौल में पले-बढ़े. हमारा बिजनेस था और बचपन में हम बिजनेस में पिता जी का हाथ बंटाते थे.

देश के बंटवारे का जिंदगी और मुसलमानों के साथ रिश्तों पर कोई असर पड़ा? बचपन के उस दौर के बारे में कुछ और बताइए?

बचपन की कुछ बातों की छाप आज भी मेरे जेहन में पैबस्त है. एक बात तो यह कि हालांकि हम पाकिस्तान से आए थे लेकिन उसके बारे में बहुत बातें नहीं होती थीं. उस वक्त जिंदगी की जद्दोज़हद ही घर की मुख्य चिंता थी. बंटवारे की तकलीफदेह बातें कई बार गुस्से की वजह बनती थीं. कई नजदीकी रिश्तेदारों के लिए भी यह खौफनाक था. हालांकि, इसकी वजह से मुसलमानों के लिए किसी तरह की दुश्मनी का ख्याल नहीं पनपा. बाद में कई मुसलमान मेरे अच्छे दोस्त बने. मेडिकल कॉलेज के दिनों में मेरा एक गहरा दोस्त मुसलमान था. वह मेरी मां का भी बहुत दुलारा था.

शुरुआती जद्दोज़हद के दिनों में हमारे पड़ोसी हिन्दू थे. इसके बावजूद उनका हमसे बहुत मेलजोल नहीं था. हालांकि, बाद के दिनों में उनसे हमारा काफी अच्छा रिश्ता बन गया. मेरे घरवाले धार्मिक रुझान के थे. रामलीला का हमें बेसब्री से इंतजार रहता था. इसमें हम बढ़-चढ़ कर भाग लेते थे. दीवाली और दूसरे त्योहार भी हम काफी धूमधाम से मनाते थे.

सामाजिक मुद्दों की तरफ रुझान कैसे और कब हुआ?

मैं स्कूल में पढ़ने में अच्छा था. इसी दौरान में मुझे अलग-अलग साहित्य से रूबरू होने का भी मौका मिला. मेरे चाचा ने काफी कम उम्र में मुझे अखबार भी पढ़ने की आदत लगवा दी थी. मुझे महान लोगों की जीवनीयाँ पढ़ना पसंद था. हम सब भाई और हमारे चाचा दुकान पर बैठते थे. यही हमारी पढ़ाई की जगह भी थी. यहां से हम समाज को काफी नजदीक से देख रहे थे. स्कूल जाते वक्त हम ऐसे मोहल्लों से गुजरते थे, जहां के रहने वाले काफी गरीब थे. हमारे पास किताब या ऐसी दूसरी सुविधाएं बहुत नहीं थी लेकिन ये हमारी पढ़ाई के रास्ते में बाधा नहीं बन पाईं.

धीरे-धीरे सामाजिक मुद्दे, मेरी सोचने की प्रक्रिया में जगह बनाने लगे. मैं अपनी छुट्टियां दुकान पर काम करने और हिन्दी साहित्य पढ़ने में बिताता था. पढ़ने की ये आदत जुनून में तब्दील हो गयी. धीरे-धीरे सामाजिक मुद्दों के बारे में समझदारी की परतें खुलने लगीं. मुझे स्कूल में डिबेट कम्पेटिशन में भाग लेना अच्छा लगता था. इसके लिए भी मुझे पढ़ना पड़ता था. इसने भी समाज को समझने में काफी मदद की.

कॉलेज तक पहुंचते-पहुंचते मैंने सोचा कि अपना ज्यादा वक़्त सामाजिक मुद्दों में लगाऊंगा. कॉलेज ने मुझे अपना नजरिया व्यापक करने का और मौका दिया. कॉलेज की लाइब्रेरी तो मैं इस्तेमाल करता ही था, मैं एक और पब्लिक लाइब्रेरी का भी सदस्य बन गया. यहां मुझे हिन्दी साहित्य के अलावा अपनी दिलचस्पी की और जरूरी किताबें भी मिल जाया करती थीं. इसी बीच कॉलेज की पढ़ाई के अलावा मैंने हिन्दी में विशारद के इम्तिहान की भी तैयारी करनी शुरू की.

मेडिकल कॉलेज में एडमिशन लेने के साथ ही साथ, मैंने अलग-अलग धर्मों के दर्शन की पढ़ाई करने का भी विचार किया. मेरे ज़ेहन में सवाल था कि आखिर क्यों लोग उसी धर्म के बारे में सोचते हैं और अपना ध्यान लगाते हैं, जिस धर्म में वे पैदा हुए हैं. इनके जवाब आसान नहीं थे. मैं अलग-अलग धर्मों की कुछ आमफहम किताबों में अपने सवालों के जवाब तलाशने लगा. धीरे-धीरे मुझे लगने लगा कि इंसानियत ही सबसे अच्छा धर्म है. इसी के साथ-साथ मुझे लगा कि हमारे समाज को सामाजिक काम करने वालों की जरूरत है. मैंने मिशनरी बन कर किसी दूर-दराज के इलाके में काम करने का ख्वाब देखना शुरू कर दिया. अफ्रीका में काम कर रहे एक डॉक्टर अल्बर्ट श्विसटर की जिंदगी मेरे लिए प्रेरणा बन गयी.

आपके इस ख्वाब की वैचारिक प्रक्रिया क्या रही?

मुझे लगने लगा कि दुनिया को एक वैश्विक सरकार की जरूरत है. मुझे इस विचार को आगे बढ़ाने के लिए और इस तरह की संस्था के विकास के लिए काम करना चाहिए. इस बीच मैं गरीबी और इसे खत्म करने के उपायों के बारे में ज्यादा सोचने लगा था. संयोग से अमरीकी राजदूत चेस्टर बॉलेस की किताब मेरे हाथ लग गयी. इसमें साम्यवाद के बारे में एक चैप्टर था. इसने मुझ पर जादू-सा असर किया. मैं ऐसे साम्यवादी समाज के विचार से रोमांचित था, जहां लोगों को जीने की जरूरी चीजों के लिए परेशान नहीं होना पड़ता है.

इस तरह मार्क्सवाद, लेनिनवाद, अस्तित्ववाद और अन्य सामाजिक दर्शनों के बारे में पढ़ने के लम्बे सफर की शुरुआत हुई. इसकी वजह से मैं इस नतीजे पर भी पहुंचा कि जिस समाज की जड़ों में लोकतंत्र है – भले ही वह लोकतंत्र शुरुआती दौर में ही क्यों न हो – वहां साम्यवादी क्रांति मुमकिन नहीं है. इसलिए सामाजिक आंदोलनों के जरिए ही समाज बदल सकता है. यह बदलाव, रोजमर्रा की जिंदगी में इज्जत और अधिकार के लिए संघर्षों के जरिए ही आएगा. मैं इस नतीजे पर भी पहुंचा कि सामाजिक आंदोलनों के खड़े होने और इसके विस्तार के लिए भी लोकतंत्र का होना जरूरी है.

बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद मुझे लगा कि साम्प्रदायिकता समाज से लोकतंत्र ही खत्म करने में लगी है. इसीलिए इसे रोकना निहायत ज़रूरी है. यह जरूरत मुझे भारत में साम्प्रदायिकता के बारे में पढ़ने और समझने के रास्ते पर ले गयी. जब यह अध्ययन मैंने शुरू किया तो इसके साथ ही जाति, जेण्डर जैसे मुद्दे भी सामने आए. साम्प्रदायिकता के खतरे और उसकी प्रकृति के बारे में अपनी समझ मजबूत करने और भारतीय इतिहास, खासकर मध्यकालीन और आधुनिक भारत के इतिहास, को समझने में भारतीय इतिहासकारों के काम ने मेरी काफी मदद की. भारत में फिरकापरस्ती के बारे में असगर अली इंजीनियर के विस्तृत और महत्वपूर्ण काम का मेरी समझदारी बढ़ाने में बड़ा योगदान रहा.

आईआईटी-मुंबई में नौकरी के दौरान मुझे अपने काम में काफी मदद मिली. मैंने 1976 में बतौर डॉक्टर आईआईटी ज्वाइन किया. बाद में मैं बायोमेडिकल इंजीनियरिंग विभाग में पढ़ाने लगा. साम्प्रदायिकता के बारे में समझने और विचार बनाने की जद्दोजहद मुख्य़त: आईआईटी में रहने के दौरान ही हुई.

यह प्रक्रिया सोच के स्तर पर ही रही या आपने सक्रिय रूप से सामाजिक बदलाव की प्रक्रिया में भी हिस्सा लिया?

बचपन से ही मेरे आसपास रहने वाले समुदायों की जिंदगी ने मुझ पर काफी असर डाला था. उनकी गुरबत ने मुझे सोचने पर मजबूर किया. मेरी पढ़ने की आदत और अलग-अलग विचारधाराओं की पड़ताल ने इसमें और मजबूती पैदा की. सत्तर के दशक में छात्र-युवा आंदोलनों के इर्द-गिर्द बड़े पैमाने पर जनउभार हुआ. इसने सामाजिक काम को और गंभीरता से लेने की चिंगारी पैदा की. आगे चलकर जब मजदूर आंदोलन में सक्रिय हुआ तो मजदूरों की जिंदगी ने सामाजिक जीवन के कई रूप से परिचय कराया. इस बीच मैं मेडिकल कॉलेज, नागपुर में पढ़ाने लगा. मजदूर संगठन में पूरा वक्त कार्यकर्ता के रूप में काम करने के लिए मैंने 1973 में नौकरी छोड़ दी. इसके बाद अपने दिवंगत दोस्त प्रफुल बिदवई की सलाह पर मैंने 1976 की शुरुआत में मुंबई आने का फैसला किया. यह फैसला इसलिए था ताकि मैं मजदूरों के आंदोलन में ज्यादा गंभीरता और सक्रियता से हिस्सा ले सकूं. मैंने 1973 से 1976 तक पहले नागपुर और फिर मुंबई में पूरा वक्त कार्यकर्ता के तौर पर काम किया. इस दौरान मजदूर संगठन में काम करने के अलावा मैंने समाजवादी आंदोलन के बारे में और पढ़ना शुरू किया. नतीजतन, समाज के बारे में मेरी समझदारी लगातार मंथन के प्रक्रिया से गुजरती रही. आईआईटी से जुड़ने के बाद मैंने मजूदर संगठन के काम और अपनी नौकरी को साथ-साथ लेकर चलने की कोशिश की.

नौकरी छोड़कर पूरा वक्त सामाजिक काम में लगाने का ख्याल कब और कैसे आया?

मैंने सबसे पहले 1973 में नौकरी छोड़ी थी. बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद मैंने तय कर लिया कि अब साम्प्रदायिकता के खतरों से लड़ने में अपना ज्यादा से ज्यादा वक्त लगाऊंगा. हालांकि मैंने इससे पहले भी यह सोचा था कि जैसे ही मेरे परिवार की हालत थोड़ी बेहतर हो जाएगी, बच्चे अपने पैरों पर खड़े हो जाएंगे और मैं कुछ पैसा बचा लूंगा तो सामाजिक कामों में पूरा वक्त देने के लिए नौकरी छोड़ दूंगा. जैसे-जैसे साम्प्रदायिकता विरोधी कामों में मेरी सक्रियता बढ़ती गई, नौकरी छोड़कर सामाजिक काम करने का हौसला मजबूत होता गया. सामाजिक कामों में अपने को लगाए रखने के लिए जरूरी बचत मैंने तब तक कर ली थी. इसलिए इस बार नौकरी छोड़ने का फैसला थोड़ा सोचा-समझा था.

आमतौर पर प्रवचन साधु-संत लोग करते हैं, दायरा भी मजहबी होता है. तो आपको ‘अमन कथा’ पर आधारित प्रवचन का तरीका अपनाने का ख्याल कैसे आया?

जब मैं साम्प्रदायिकता विरोधी काम में सक्रिय हुआ तो दिन प्रतिदिन मुझे यह साफ होने लगा कि साम्प्रदायिक हिंसा समाज में फैली नफरत की देन है. इस नफरत का आधार साम्प्रदायिक ताकतों द्वारा इतिहास की गलत व्याख्या और मौजूदा समय की विकृत प्रस्तुति है. मैं इससे मुकाबला करना चाहता था. मैंने साम्प्रदायिकता की समस्या पर अलग-अलग पर्चे लिखने शुरू किए. जैसे – सच बनाम मिथक. मैंने इस थीम पर भारतीय इतिहास के बारे में लिखा. यह नामचीन भारतीय इतिहासकारों के काम के आधार पर तैयार किया गया था.

इसके बाद मैंने कार्टून और तस्वीरों के जरिए लोकप्रिय किताबें लिखने के बारे में सोचा. यह विचार बाद में सम्प्रदायवाद और आतंकवाद पर ग्राफिक नॉवेल के रूप में सामने आया. मेरे दोस्त शरद शर्मा ने मेरे शब्दों को इलस्ट्रेशन और ग्राफिक के साथ पेश किया है. यह सब करते हुए मैं ऐसे तरीके आजमाने की कोशिश में लगा था, जिससे इतिहास की सचाई और एक समुदाय के बारे में बनी-बनाई छवि (स्टीरियोटाइप) की हकीकत दूसरे समुदाय तक पहुंचाई जा सके. एक बार मेरी बिल्डिंग के एक गार्ड ने मुझसे पढ़ने के लिए कुछ किताबें मांगीं. मेरे सामने बड़ी चुनौती खड़ी हो गई. ज्यादातर किताबें आमजन के लिए नहीं थी, जिन्हें कोई औसत शख्स पढ़कर आसानी से समझ सके. तब मुझे हनुमान चालीसा जैसी छोटी पॉकेट बुक का ख्याल आया. ये किताबें आसानी से पढ़ी और पॉकेट में रखी जा सकती हैं. यहीं से अमन-कथा का विचार आकार लेने लगा. लोगों के अलग-अलग समूहों से बात करते हुए, मैं उनके बराबर जाकर सीधे संवाद करने की कोशिश करने लगा. प्रवचन का जो प्रचलित तरीका है, उसमें धार्मिक लोग संवाद का तरीका नहीं अपनाते हैं. अपनी बातचीत के दौरान मैंने ज्यादा से ज्यादा दोतरफा संवाद का तरीका अपनाने की कोशिश की ताकि लोगों की दिलचस्पी बनी रहे. मेरी कोशिश होती कि किसी मुद्दे पर इस संवाद के जरिए ही बातचीत चलती रहे. मैंने देखा कि लोगों को यह तरीका अच्छा लगा और वे बातचीत के दौरान सजग भागीदार बने रहे.

अमन कथा के जरिए आप किन मुद्दों पर बात करते हैं?

अमन कथा का मकसद है कि लोग खुद सोचें. जो दिख रहा है या बताया जा रहा है, लोग उससे अलग हट कर देखें. जो दिख रहा है या जो कहा या बताया जा रहा है, जरूरी नहीं कि वह हकीकत या सच ही हो- इस कथा का असली मकसद यही है. मेरी कोशिश होती है कि लोगों को सच के सफर तक ले जाने के लिए मैं कथा की शुरुआत उनसे सवाल पूछ कर करूं. मैं जानने की कोशिश करता हूं कि समाज में फैले ढेर सारे मिथकों, स्टीरियोटाइप और पूर्वग्रहों से जुड़े मुद्दों के बारे में वे क्या सोचते हैं? लोगों की इतिहास के बारे में क्या राय है? मंदिरों को तोड़ा जाना, जबरन धर्म परिवर्तन, मुसलमान राजाओं के अत्याचार, मुसलमानों के परिवार का आकार, भारत के बंटवारे की त्रासदी, गांधी की हत्या, कश्मीर से जुड़े मुद्दे और आतंकवाद क्यों है या इन जैसे मुद्दे पर लोगों की सोच क्या है? मीटिंगों में इनमें से कई विषय दर्शक ही उठा देते हैं. मैं विचार-विमर्श को ऐसी शक्ल देने की कोशिश करता हूं, जिसमें दर्शक भी बराबर का भागीदार बना रहे और विमर्श को आगे बढ़ाए ताकि बातचीत एक पूरी शक्ल अख्तियार कर सके. आमतौर पर मीटिंग इस चर्चा के साथ खत्म होती है कि भविष्य में क्या किया जाए ताकि देश के सभी लोगों की जिंदगी में अमन, खुशहाली आए और सभी को सम्मान हासिल हो.

[नासिरुद्दीन हैदर पत्रकार हैं और लम्बे वक़्त से सामाजिक मुद्दों पर लिखते रहे हैं. कई नौकरियां कर चुकने के बाद उन्होंने अब लिखने का आधार स्वतंत्र कर दिया है. इस बातचीत के लिए TwoCircles.net उनका आभारी.]

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