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ताकि बेगुनाह मुस्लिम नौजवानों की फ़र्ज़ी गिरफ़्तारी का घिनौना खेल आगे न चल पाए…

अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net

नई दिल्ली : ‘दोस्त बदल गए, चेहरे बदल गए, मंज़िलें बदल गईं, दुनिया बदल गई, मेरे ज़िन्दगी का सब कुछ बदल गया. वालिद का ईद के दिन इंतक़ाल हो गया. मेरी पूरी दुनिया ही ख़त्म हो चुकी है…’

ये दर्द उस शख्स का है, जिसने अपने ज़िन्दगी का सबसे अहम 23 साल जेल के सलाखों के पीछे बेगुनाही में काट दिया. मो. नसीरूद्दीन कोई अकेले नहीं हैं. यही कहानी उनके भाई ज़हीरूद्दीन की भी है. ज़हीरूद्दीन के भी 14 साल जेल के अंदर बर्बाद हो चुके हैं. दिल को दहला देने वाली कहानी का अंत यहीं नहीं है. सीनियर जर्नलिस्ट इफ़्तेख़ार गिलानी, मुम्बई से आए अब्दुल वाहिद, मालेगांव से आए डॉक्टर फरोग मख्दूमी, जालना के शुऐब जागीरदार, दिल्ली के मो. आमिर खान, कोटा राजस्थान से डॉ. मो. युनूस, कानपूर के हाजी मो. सलीस व सैय्यद वासिफ़ हैदर, कर्नाटक के सनाउद्दीन और महाराष्ट्र के जुबैर अहमद की कहानी भी इंसानियत को झकझोर कर रख देती है.

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यह सब लोग आतंक के ‘नकली अभियान’ के भुक्तभोगी हैं. इन्होंने झूठे केसों के चलते एक अच्छी-खासी ज़िन्दगी जेल के सलाखों के पीछे काट दी है. इस बीच न सिर्फ़ इनका परिवार तबाह हुआ बल्कि इनके माथे पर लगा ‘कलंक’ आज भी इनकी ज़िन्दगी मुश्किल में डाले हुए है. ये घिनौना सिलसिला अब आगे और न चल पाए और देश के एक विशेष तबक़े से संबंध रखने वाले मासूम व बेगुनाह नौजवान इसके शिकार न बनने पाएं. इसी बात को लेकर ‘इंनोसेंस नेटवर्क’ कई सामाजिक संगठनों व जागरूक लोगों के एक मंच पर खड़ा कर दिया है.

दरअसल, बेगुनाह मुसलमानों को आतंक के जाल में फंसाकर सलाखों के पीछे डालकर उनकी ज़िन्दगी बर्बाद करने के दुष्चक्र के ख़िलाफ़ रविवार को दिल्ली के कंस्टीट्यूशन क्लब में एक ट्राईब्यूनल का आयोजन किया गया. इस ट्राईब्यूनल में कई अहम बातें निकल कर सामने आईं. ये तय हुआ कि ट्राईब्यूनल जल्द ही इस मामले में एक जनहित याचिका दायर करेगी. साथ ही ऐसे तमाम लोगों के हक़ में हर फोरम पर अपनी आवाज़ बुलंद करेगी. ट्राईब्यूनल के इस सुनवाई में कई जाने-माने शख्सियतों ने शिरकत की. उन्होंने इस दिशा में अपनी-अपनी चिंताओं का इज़हार किया और इस मसले पर सबको एकजुट होने की अपील की.

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इस ट्राईब्यूनल की अध्यक्षता कर रहे रिटायर्ड जस्टिस ए.पी. शाह ने कहा कि –‘ऐसे तमाम लोगों को मिलकर सुप्रीम कोर्ट में अर्ज़ी डालनी चाहिए. इसमें दो खास बातों का विशेष ध्यान रखा जाए. एक तो झूठे मामलों में फंसाने वाले प्रशासनिक अधिकारियों के ख़िलाफ़ सुप्रीम कोई गाईडलाईन तय करे. और दूसरा बेगुनाह साबित हो चुके लोगों के लिए पुनर्वास के लिए मुकम्मल व्यवस्था किया जाए.’

उन्होंने कहा कि –‘ यह एक लंबी लड़ाई है. इन बातों को देश की हर जनता तक ले जाने की ज़रूरत है.’ वहीं प्रो. जी.एस. वाजपेयी ने कहा कि –‘जो लोग मुक़दमें से बाइज़्ज़त बरी हो चुके हैं और जो लोग अभी भी जेलों में बंद हैं, इन सब मुक़दमों का डिटेल स्टडी करना चाहिए और पूरी तैयारी के साथ जनहित याचिका दायर करना चाहिए.’

इस ट्राईब्यूनल में अल्पसंख्यक आयोग के चेयरमैन नसीम अहमद, एडवोकेट मोनिका सुखरानी, सीनियर पत्रकार वीणा व्यास व विनोद शर्मा, फिल्मकार सईद अख्तर मिर्जा, टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज़ के डायरेक्टर प्रो. अब्दुस शाबान, डीयू की प्रो. नंदनी सुन्दर शामिल थीं.

ये ट्राईब्यूनल एक शुरूआत है. शुरूआत उन बेगुनाह नौजवानों को उनकी ज़िन्दगी लौटाने की जिन्हें सिस्टम के दुष्चक्र ने जकड़ कर बर्बाद कर दिया है. ये कोशिश छोटी ही सही, मगर एक बुलंद आवाज़ की तरह है. अगर यह सिलसिला ऐसे ही क़ायम रहा तो उम्मीद की जानी चाहिए कि जेल में अपने ज़िन्दगी का सबसे अहम साल गुज़ार कर रिहा होने वाले इन बेगुनाहों की आवाज़ हुक्मरानों के बहरे कानों तक ज़रूर पहुंचेगी और कोई न कोई मुकम्मल बदलाव ज़रूर लाएगी. हालांकि इस तरह के आयोजन पहले भी कई बार हो चुके हैं. लेकिन उम्मीद की जानी चाहिए ये ट्राईब्यूनल पूरी ईमानदारी के साथ न सिर्फ़ इस मुद्दे को उठाएगा, बल्कि इसे सिलसिलेवार तरीक़े से क़ायम रखेगा, ताकि कोई ठोस नतीजा सामने आ सके.