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हिन्दू धर्म की जाति व्यवस्था से बड़ी असहिष्णुता क्या होगी – राम पुनियानी से बातचीत – 3

नासिरुद्दीन हैदर खान

राम पुनियानी से बातचीत की यह तीसरी और आखिरी क़िस्त है. बीते छः दिनों में फ़ैली इस बातचीत के दौरान राम पुनियानी ने समाज और राजनीति के कई महत्त्वपूर्ण प्रश्नों पर अपने विचार रखे हैं. इस बातचीत के पिछले हिस्सों को नीचे पढ़ा जा सकता है.

नफरत का आधार साम्प्रदायिक ताकतों द्वारा इतिहास की गलत प्रस्तुति है – राम पुनियानी से बातचीत – 1

आज ‘देशभक्ति’ के मुद्दे के इर्दगिर्द दीवानगी पैदा की जा रही है – राम पुनियानी से बातचीत – 2

RAM PUNIYANI

आप कहते हैं कि ब्रिटिश शासन से पहले भारत में मिलीजुली संस्कृति की मजबूत परम्परा थी. ब्रिटिश लोगों के आने के बाद हिन्दू-मुसलमान में संघर्ष शुरू हुए. इसकी व्याख्या करें.

ब्रिटिश साम्राज्य के पहले यहां अलग-अलग राजा अलग-अलग हिस्सों में राज करते थे. इस भारतीय समाज में लोग बिना किसी धार्मिक भेदभाव के आपसी मेलजोल के साथ रहते थे. राजा या ज़मींदार सिर्फ सत्ता और धन के लिए शासन करते थे. राजा के यहां काम करने वालों की वफादारी का उनके धर्म से लेना-देना नहीं था. समाज के भी अलग-अलग लोग आपस में संस्कृति, धर्म और धार्मिक रीति-रिवाजों के जरिए एक-दूसरे से मिलते-जुलते थे. इस्लाम तो पहली बार केरल के मालाबार तट पर अरब व्यापारियों के मार्फत आया. यहां के लोग कई धार्मिक परम्पराओं को मानने वाले थे. बाद में राजाओं ने वफादारियों और रिश्तेदारियों के आधार पर अपने दोस्त और काम करने वाले बनाए. अकबर के सेनापति राजा मानसिंह थे. बीरबल और टोडरमल दरबार में ऊंचे पदों पर थे. औरंगजेब के दरबार में तो हिन्दू पदाधिकारियों की तादाद बढ़कर 34 फीसदी तक थी. राणा प्रताप के जनरल हकीम खान सूर थे. शिवाजी के जनरलों में दौलत खान और इब्राहिम गार्दी शामिल थे.

रसखान और रहीम जैसे कई मुसलमान कवियों ने हिन्दू देवी-देवताओं की तारीफ में कविताएं लिखीं. हिन्दुस्तानी संगीत में भी हिन्दू और मुसलमान दोनों मजहबों के महारथियों का योगदान है. खान-पान की आदतें एक-दूसरे से मिलीं. धार्मिक स्तर पर यह मेल-जोल भक्ति और सूफी परम्पराओं में दिखायी दिया. इन सभी परम्पराओं को हिन्दुओं और मुसलमानों दोनों ने बढ़ाया और विकसित किया. तुलसीदास जैसे कवियों ने तो राम की भक्ति करते हुए ऐलान किया कि वे तो मस्जिद में भी रह सकते हैं.

ब्रिटिश शासकों ने ‘बांटो और राज करो’ की नीति अपनायी. उन्होंने साम्प्रदायिक आधार पर इतिहास लेखन करवाया. ब्रिटिश साम्राज्य की नीतियों ने हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच बंटवारे का बीज बोया और बाद में इसमें खाद-पानी डालकर सींचा. वे तो ब्रिटिश ही थे जिन्होंने मुसलमान नवाबों के संगठन मुस्लिम लीग को मुसलमानों के असली प्रतिनिधि के रूप में मान्यता दी. इस चीज ने हिन्दू उच्च वर्ग को साम्प्रदायिक पंजाब हिन्दू सभा, हिन्दू महासभा और आगे चलकर आरएसएस जैसा संगठन बनाने में मदद की.

ऐसा कहा जाता है भारत में दलितों और मुसलमानों का बड़ा ख्याल रखा जाता है. महज वोट की खातिर उनका तुष्टीकरण होता है. यह भी कहा जाता है कि हिन्दुओं की परेशानियों को दरकिनार किया जाता रहा है. इन सब में कितनी सचाई है?

यह सब महज प्रचार है. अगर हम भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के गठन के वक्त से देखें तो हिन्दू साम्प्रदायिक ताकतों ने शुरू से कहा कि मुसलमानों को कांग्रेस में शामिल करना उनका तुष्टीकरण है. जहां तक दलितों का मामला है, अलग-अलग स्तरों पर आरक्षण की व्यवस्था ने उनकी थोड़ी मदद की है. इसके बाद भी आज जब हम सामाजिक पैमाने को देखें तो पता लग जाएगा कि आर्थिक और सामाजिक पैमाने पर दलित बहुत पीछे हैं. जिस पार्टी ने इस मुल्क में सबसे ज्‍यादा सालों तक शासन किया है, उसने कई बार कई मुद्दों पर समझौते किए हैं. इसलिए ईमानदारी से आरक्षण की नीतियां लागू नहीं हो पायीं.

किसी भी नीति के कामयाबी के साथ लागू होने के लिए जरूरी है कि अलग-अलग स्तरों पर मौजूद सत्ताधारी केन्द्रों द्वारा उस नीति को गंभीरता से लिया जाना चाहिए. भारत में नौकरियों और आर्थिक नीतियों के मामले उच्च जातियों के वर्चस्व‍ की वजह से दलितों को सही अनुपात में उनका वाजिब हक नहीं मिला.

जहां तक मुसलमानों का मामला है, यह सही है कि अलग-अलग पार्टियों ने मुसलमानों के कट्टरपंथी लीडरशिप का तुष्टीहकरण करने की कोशिश की है. जहां तक आम मुसलमानों से जुड़ी रोजगार और सामाजिक नीतियों का सवाल है, उन्हें हाशिए पर धकेल दिया गया. गोपाल सिंह आयोग (1980), सच्चर समिति (2006) और रंगनाथ मिश्र आयोग (2007) की रिपोर्ट ने मुसलमानों की इस हालत का सच दिखाया है.

जहां तक हिन्दुओं की बात है, वे कोई एकरूप समुदाय नहीं हैं. इनमें से कुछ, खासतौर पर ऊपरी तबके ने काफी फायदा उठाया है जबकि नीचे के लोग जहां के तहां ही हैं. नीचे के लोगों की यह हालत इसलिए नहीं है कि सरकार ने मुसलमानों और दलितों का पक्ष लिया है. बल्कि इसकी वजह तो वे आर्थिक नीतियां रहीं हैं जिनका मकसद समाज के ऊपरी तबके को फायदा पहुंचाना रहा है.

यह इलज़ाम लगाया जाता है कि धर्मनिरपेक्ष लोगों और संगठनों द्वारा कट्टरपंथ के नाम पर हिन्दू संगठनों को तो निशाना बनाया जाता है जबकि मुस्लिम संगठनों को नजरंदाज कर दिया जाता है. क्या आपको नहीं लगता है कि मुसलमानों में भी कट्टरपंथी/पुरातनपंथी संगठन या समूह हैं?

जी, एक बार फिर यह छवि लगातार चल रहे प्रचार का नतीजा है. कुछ सालों में दकियानूसी समूहों का उभार तेज हुआ है. इनके संचार का ताना-बाना काफी मजबूत है. अगर हम विश्व हिन्दू परिषद, बजरंग दल जैसे संगठनों पर नजर डालें तो पिछले कुछ सालों में ये काफी मजबूत हुए हैं. जो धर्मनिरपेक्ष लोग हैं, वे बखूबी जानते हैं कि समाज में हिन्दू और मुस्लिम दोनों तरह की साम्प्रदायिकताएं हैं. ये दोनों साम्प्रदायिकताएं समुदायों के बीच ध्रुवीकरण का काम करती हैं. बहुसंख्य‍क साम्प्रदायिकता आक्रामक है. यह हिन्दू भावनाओं को ठेस पहुंचाने का भ्रम पैदा करती है और इसे फैलाती है. यह जिन हिन्दू भावनाओं को ठेस पहुंचाने की बात करती है, वह गढ़ी-गढ़ायी हुई है.

अल्पसंख्यक साम्प्रदायिकता भी खतरनाक है. हालांकि इसका खतरा, बहुसंख्यक साम्प्रदायिकता की तुलना में काफी कम है. अल्पसंख्यक साम्प्रदायिकता ज्यादातर बचाव में की गयी प्रतिक्रिया का नतीजा है. यह कुछ-कुछ अलगाव की ओर धकेलती है. दूसरी ओर, बहुसंख्यक साम्प्रदायिकता अपने को राष्ट्रवाद के रूप में पेश करती है. साथ ही, यह लोकतांत्रिक राष्ट्रवाद को खत्म करने की कोशिश करती है. वहीं अल्पससंख्यक साम्प्रदायिकता, मुस्लिम समुदाय को पिछड़ेपन के चंगुल में फंसाए रखती है.

इन दोनों का विरोध किया जाना चाहिए. साथ ही साथ सभी धर्मों के बीच धर्मनिरपेक्ष मूल्यों और विचारों को फैलाने और बढ़ावा देने की जरूरत है.

लव जिहाद, घर वापसी, गोरक्षा, असहिष्णुता या फिर राष्ट्रवाद – अचानक ये सारे मुद्दे एक-एक कर क्यों उठने लगे? आप इस पूरी प्रक्रिया को किस रूप में देख रहे हैं?

अगर असहिष्णुता और राष्ट्रवाद के मुद्दे को छोड़ दें तो बाकि मुद्दे काफी समय से उठाए जा रहे हैं. राम मंदिर का मुद्दा उभारने के दौरान ध्रुवीकरण के लिए इन मुद्दों का खूब इस्तेमाल हुआ. इसका काफी चुनावी फायदा भारतीय जनता पार्टी को मिला. साम्प्रदायिकता हमेशा भावनात्मक मुद्दों पर जिंदा रहती है. इसका समाज के वंचित तबकों की मूलभूत जरूरतों से कोई मतलब नहीं होता है. इसलिए वे इस तरह के मुद्दे उठाते हैं. केन्द्र में भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनने के बाद ये मुद्दे काफी तेजी से उठने लगे हैं. इनकी आक्रामकता बढ़ गयी है. अब आरएसएस से जुड़े सभी संगठनों ने मान लिया है कि चूंकि यह उनकी सरकार है, इसलिए उन्हें कोई छू नहीं सकता है. इसलिए हम देखते हैं कि उनकी सभी साध्वी और दूसरे बड़बोले नेता ज्यादा जहरीले बोल बोल रहे हैं.

संघ परिवार की इन गतिविधियों की वजह से देश में ऐसा माहौल तैयार हो गया, जहां असहमति की आवाज के खिलाफ सामान्य सहिष्णुता ने भयानक रूप लेना शुरू कर दिया. नतीजतन, कई हत्याएं हुईं. लोगों को धमकाया गया. दाभोलकर, पानसारे, कलबुर्गी और इसके बाद अखलाक की हत्या ने लोगों का संयम तोड़ दिया. इसने लोगों में बेचैनी पैदा कर दी. कई माहिर शख्सियतों ने इस पूरी प्रक्रिया को देश में असहिष्णुता के बढ़ते असर के रूप में देखा और अपने सम्मान लौटा दिए. असहमति को दबाने के लिए आरएसएस ने ‘राष्ट्रवाद’ को बतौर एक नारा फिर उछालने की कोशिश की है. वे इसके जरिए एक और भावनात्मक मुद्दा उठाना चाहते हैं ताकि समाज को और बांटा जा सके.

अभी के दौर का विश्ले‍षण करते हुए कुछ लोगों को इस वक्त का माहौल यूरोप के फासीवाद की याद दिलाता है. दूसरी ओर, कुछ लोग मानते हैं कि भारत में फासीवाद नहीं आ सकता है. आपकी क्या राय है?

आजाद तरीके से सोचने का माहौल सिकुड़ता जा रहा है, लोकतांत्रिक मूल्यों को रौंदा जा रहा है, विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता खत्म की जा रही है, अल्पसंख्यक असु‍रक्षित महसूस कर रहे हैं, बुद्धिजीवियों में बेचैनी है : ये सारी बातें लोकतांत्रिक दायरे के खत्म होते जाने का संकेत दे रही हैं. फासीवाद की एक खास पहचान उसका गुरिल्ला दस्ता (Stormtroopers) है. ये दस्ता असहिष्णुता की राजनीति को नुक्कड़ और चौराहों पर लागू करता है. ऐसा करते वक्त वे बखूबी जानते हैं कि उनका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता है. जब हम आज के माहौल की 1975 के आपातकाल के भयानक दौर से तुलना करते हैं तो एक बड़ा फर्क साफ दिखता है. अब राज्य तो अधिनायकवादी हैं ही. इसके साथ ही साथ सड़कों पर हिंसा भी हो रही है. जब कन्हैया कुमार पुलिस की हिफाजत में थे तो कोर्ट परिसर में वकीलों और वकील जैसे दिख रहे लोगों ने उनकी पिटाई की. यह दिखाता है कि यह सब 1975 के दौर में जो हुआ था, उससे कुछ अलग और ज्यादा है.

राजनीतिक परिघटनाएं वैसे ही रूप में हमेशा नहीं दोहरायी जाती लेकिन वे अपने रूप में वक्त के हिसाब से संशोधन कर लेती हैं. उम्मीद है कि भारत में यूरोप जैसा ‘गैस चैम्बर’ नहीं दिखाई देगा लेकिन इसका बदला हुआ रूप धीरे-धीरे संवैधानिक मूल्यों को खत्म कर सकता है. अब भी हमारे पास बचाव के ऐसे उपाय हैं जो फासीवाद को पूरा शक्ल अख्तियार करने से रोक सकते हैं. हालांकि, अभी कुछ भी साफ-साफ नहीं कहा जा सकता है. यह खतरनाक जंग है.

जब भी हम दुनिया में हिंसा की कोई बड़ी घटना देखते हैं, तो मुसलमानों या इस्लामी संगठनों या इस्लाम का नाम इस्तेमाल करने वाले संगठनों का नाम तुरंत सामने आ जाता है. ऐसा क्यों?

9/11 के हादसे के बाद से आतंकवाद की घटनाओं पर ज्यादा बात होने लगी है. इस दुखद घटना में करीब तीन हजार बेगुनाह लोगों की जानें गयी थीं. आज वैश्विक स्तर पर जो आतंकवाद की परिघटना दिखाई दे रही है, वह तालिबान-मुजाहिदीन-अलकायदा की शाखाएं हैं. ये पाकिस्तानी मदरसों से प्रशिक्षित थीं. अमरीका से इन्हें पैसा मिलता था. इसकी मुख्य वजह थी कि अमरीका इनके मार्फत अफगानिस्तान में सोवियत सेना से लड़ना चाहता था. इस संगठन का दिमाग और नजरिया बदलने का पूरा सिलेबस वाशिंगटन में बना था. अमरीका ने इन्हें जबरदस्त पैसा दिया था.

अगर आप ध्यान दें तो आपको दिखाई देगा कि आज के आतंकवाद का केन्द्रं उन्हीं जगहों पर है जहां तेल के भंडार हैं. आपको यह भी दिखाई देना चाहिए कि अलग-अलग मुल्कों में आतंक की घटनाओं के सबसे ज्यादा शिकार मुसलमान ही हैं. अलकायदा को मूल संगठन माना जा सकता है, जिससे निकलकर आईएसआईएस या दूसरे संगठन वजूद में आए. यह सब तेल की अकूत दौलत पर कब्जा करने की साजिश के लिए है जो ‘इस्लामी आतंकवाद’ के रूप में दिखाई देता है. दिलचस्प बात यह है कि यह शब्द जिसमें धर्म और आतंकवाद दोनों का इस्तेमाल है, 9/11 के बाद अमरीकी मीडिया द्वारा गढ़ा गया था.

आपकी नजर में क्या इस्लाम आतंकवाद को बढ़ावा देता है?

कोई भी मजहब आतंकवाद को बढ़ावा नहीं देता है. आतंकवाद मुख्य़त: एक राजनीतिक परिघटना है. सभी मजहबों की कुछ खास व्याख्याएं हैं. उन व्याख्याओं का इस्तेमाल असहिष्णुता बढ़ाने के लिए किया जाता है. इसके साथ ही ऐसी व्याख्याएं भी हैं जो अमन और एकता की बात करती हैं. यह सभी मजहबों पर लागू होता है. यह कहा जाता है कि हिन्दू सहिष्णु हैं. हिन्दुओं में जो असहिष्णुता दिखाई दे जाती है, वह दरअसल मुसलमानों कट्टरपंथ-असहिष्णुता की प्रतिक्रिया का नतीज़ा है. इस तरह का सतही विश्लेषण पूरी दुनिया के किसी भी भाग के लिए सच नहीं है. सोच-विचार के नजरिए के मामले में कोई समुदाय एकरूप नहीं है. हिन्दू धर्म को ही देखें. यहां जाति व्यवस्था है. इससे बड़ी असहिष्णु्ता क्या होगी? हमारे एक ओर, गांधी जैसे हिन्दू भी हैं तो दूसरी ओर हमें तोगड़िया और साध्वी प्राची जैसे हिन्दू भी दिखाई देते हैं.

मुसलमानों में भी देखिए. हम एक ओर सबको साथ लेकर चलने में यकीन रखने वाले मौलाना अबुल कलाम आजाद को देख सकते हैं तो दूसरी ओर मुसलमानों के लिए अलग राज्य की बात करने वाले जिन्ना भी हैं. आज के दौर में हमारे साथ असगर अली इंजीनियर जैसे मुसलमान भी थे तो दूसरी ओर अकबरउद्दीन ओवैसी भी हैं. हम आजादी के आंदोलन के प्रतिनिधि संगठन को देख सकते हैं. इसमें हिन्दू और मुसलमान एक साथ मिलकर राष्ट्रीय आंदोलन में जुटे थे. दूसरी ओर, हिन्दू् महासभा और आरएसएस थी, जो खास तरह के राष्ट्रवाद की पैरवी में लगी थीं.

यह दावा कि कोई संगठन पूरे समुदाय का प्रतिनिधि है, आज भी पूरी तरह गलत है. न तो पूरा हिन्दू आरएसएस के साथ है और न ही पूरा मुसलमान ओवैसी की पार्टी के साथ. दोनों दावा करते हैं कि वे एक-दूसरे का जवाब दे रहे हैं. उनका अपना एजेंडा है, इसलिए वे ऐसा करते हैं. वे दूसरे के नजरिए का इस्तेमाल अपनी कार्रवाईयों को जायज ठहराने के लिए करते हैं. इन सबके बावजूद आरएसएस की बहुसंख्यक साम्प्रदायिकता आज ज्यादा आक्रामक है.

आप आज के माहौल में उन संगठनों को क्या कहना चाहेंगे जो धर्म के दायरे से अलग काम करते हैं?

हमें सामाजिक एजेंडे को वापस बहस के केन्द्र में लाना होगा. हमें समाज की मूलभूत जरूरतों और सम्मान के साथ समानता के मुद्दों को सामाजिक मुद्दे के रूप में मजबूती से उठाना होगा. काम, रोजी-रोटी, सेहत और शिक्षा से जुड़े मुद्दों को सामने लाना होगा. इसके लिए जरूरी है कि पहचान के मुद्दों को राजनीतिक दायरे में महत्व न दिया जाए.

पहचान का मुद्दा मुख्यत: समाज में व्याप्त सामंती सम्बंधों और धर्मगुरुओं के वर्चस्व की वजह से सामने आता है. साम्प्रदायिक राजनीति का मकसद लोकतांत्रिक दायरे को खत्म करना है. यह ‘दूसरों से नफरत’ करने के प्रचार के जरिए काम करती है. यह नफरत की प्रक्रिया इतिहास और वर्तमान दौर के बारे में भ्रामक तथ्यों पर आधारित है. इस भ्रम को दूर करने की जरूरत है. हमें मध्यरकालीन भारत के इतिहास के बारे में तथ्यात्मरक समझदारी पैदा करने की जरूरत है. मौजूदा हालात के कारणों की पड़ताल करते हुए यह बताने की जरूरत है कि इसकी जड़ें सांस्कृतिक नहीं बल्कि आर्थिक विषमता में है. इसलिए हमें चाहिए कि हम मिली-जुली संस्कृति से जुड़ी बातों को सामने लाएं. राजशाही और लोकतंत्र के अंतर को साफ करें. धर्म और धर्म के नाम पर होने वाली राजनीति के अंतर को बताएं. यह सब बातें और संदेश समाज के बड़े तबके तक पहुंचनी चाहिए. लेक्चर, सेमिनार, सामाजिक बैठकों, पर्वों, फिल्म शो और अन्य सांस्कृतिक माध्यमों के जरिए जागरूकता का ऐसा अभियान चलाया जा सकता है.

धर्मनिरपेक्षता और लोकतांत्रिक मूल्यों के आधार पर अलग-अलग संगठनों को ऐसे कार्यक्रम के लिए एकजुट होना चाहिए. छोटे-छोटे मतभेदों को इस वक्त नजरंदाज करना चाहिए. सामाजिक आंदोलनों के जरिए बहुलतावाद, लोकतंत्र और मानवाधिकार को बढ़ाने वाले एक व्यापक मंच बनाए जाने की जरूरत है. इसी तरह साम्प्रदायिक राजनीति के उभरते ज्वार-भाटा को असरदार तरीके से रोका जा सकता है.

राम पुनियानी सिर्फ ‘अमन कथा’ वाचक नहीं हैं. वह कई रूपों में समाज के लिए और नफरत की राजनीति के खिलाफ काम करते हैं. लेख लिखते हैं. हिन्दी और अंग्रेज़ी दोनों भाषाओं में किताबें लिखते हैं. फिल्में बनाते हैं. उनकी रचनाएं कई भाषाओं में अनुवाद होकर लोगों तक पहुंच रही हैं. उनके इन कामों को समय-समय पर सम्मान भी मिला है. उनके बारे ज्याादा जानकारी यहां और यहां मिल सकती है. इसके साथ ही उनकी अमन कथा के दो वीडियो भी देखे जा सकते हैं.

[नासिरुद्दीन हैदर पत्रकार हैं और लम्बे वक़्त से सामाजिक मुद्दों पर लिखते रहे हैं. कई नौकरियां कर चुकने के बाद उन्होंने अब लिखने का आधार स्वतंत्र कर दिया है. इस बातचीत के लिए TwoCircles.net उनका आभारी.]