Home India News पिछले 11 सालों में बिना रूह की जिस्म बनता आरटीआई क़ानून

पिछले 11 सालों में बिना रूह की जिस्म बनता आरटीआई क़ानून

अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net

सूचना के अधिकार (आरटीआई) का क़ानून अपने 11 साल पूरे होने के बाद भी अधूरा सा है. इस क़ानून के साथ जुड़ी उम्मीदें आज भी अपने मंज़िल का इंतज़ार कर रही हैं. इस क़ानून के तहत हर राज्य में एक सूचना आयोग और तय संख्या में सूचना आयुक्त आवश्यक हैं.

आरटीआई की धारा -15 के तहत हर राज्य में एक सूचना आयोग का होना ज़रूरी है. इस आयोग में एक मुख्य सूचना आयुक्त और दस से अनधिक संख्या में सूचना आयुक्त, जितने आवश्यक समझे जाएं, का होना अत्यंत ज़रूरी है.

लेकिन हैरानी की बात यह है कि इस क़ानून का ये बेसिक प्रावधान भी सरकारों के गले के नीचे नहीं उतर सका है. एक नहीं, कई राज्यों में मुख्य सूचना आयुक्त व राज्य सूचना आयुक्तों के पद खाली पड़े हैं. न तो इन रिक्त पदों को भरने की कोशिश की जा रही है और न ही ये सरकारों के प्राथमिकता में है.

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TwoCircles.net ने देश के तमाम राज्यों के सूचना आयोग के वेबसाइटों पर सूचना आयुक्तों की छानबीन की. इस पड़ताल में चौंकाने वाले तथ्य सामने आएं.

हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर, उड़ीसा, उत्तराखंड और तमिलनाडू की वेबसाइट बता रही है कि यहां मुख्य सूचना आयुक्त का पद ही रिक्त है. वहीं केरल, त्रिपूरा और सिक्कीम राज्य सूचना आयोग में एक भी सूचना आयुक्त बहाल नहीं है. जबकि हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर, मिजोरम, नागालैंड व पश्चिम बंगाल राज्य सूचना आयोग की वेबसाइट के मुताबिक़ यहां नौ-नौ सूचना आयुक्तों के पद रिक्त हैं. तो वहीं असम, बिहार, उड़ीसा और राजस्थान में सिर्फ़ दो-दो सूचना आयुक्त ही बहाल हैं.

उत्तराखंड राज्य सूचना आयोग में सिर्फ़ तीन सूचना आयुक्त हैं. बाक़ी पद लंबे समय से खाली है. अप्रैल 2015 से मुख्य सूचना आयुक्त का पद भी रिक्त पड़ा है. बताते चलें कि हिमाचल के मुख्य सूचना आयुक्त का पद 24 मार्च से खाली है. सरकार ने इस पद के लिए आवेदन मांगे थे. आवेदन की अंतिम तिथि 22 जून तय की गई थी. सरकार के पास 145 के क़रीब आवेदन आए हैं, लेकिन हिमाचल के सीआईसी का पद अभी भी खाली है. बिहार की भी यही कहानी है. राज्य सूचना आयुक्त के रिक्त पदों पर नियुक्ति के लिए राज्य सरकार ने आवेदन-पत्र मांगा. इसके लिए आखिरी तारीख 25 मई निर्धारित की गई थी. लेकिन उसके बाद आज तक इन रिक्त पदों को भरा नहीं जा सका है.

बाकी के राज्यों की हालत भी इससे बेहतर नहीं हैं. डिजीटल इंडिया मुहिम की बात करने वाले राज्य मध्यप्रदेश की कहानी तो यह है कि यहां के राज्य सूचना आयोग का वेबसाइट 2014 के मई महीने के बाद आज से आज तक अपडेट ही नहीं हुआ है. वहीं गोवा व झारखंड की वेबसाईट आज की तारीख़ में डाउन पड़ी हुई है.

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सूचना आयुक्तों के इन रिक्त पदों का सीधा असर आम जनता के तय वक़्त में सूचना हासिल करने के अधिकार पर पड़ता है. ऐसे में न तो अपील व शिकायत की सुनवाई हो पा रही है और न ही सूचना हासिल करने की चाहत रखने वाला राज्य सरकारों की सूचनाओं पर पर्दा डालने के क़वायद को ही चुनौति दे पा रहा है. कुल मिलाकर इन 11 सालों में आरटीआई क़ानून अपनी तमाम उपलब्धियों के बावजूद खुद जंग खाई ज़ंजीरों से बंधा हुआ है और अब तक मुक्त नहीं हो सका है.

सच पूछे तो इस महत्वकांक्षी क़ानून की ये दुर्गति कई सवाल पैदा करती है. क्या सरकारें जान-बुझकर इन क़ानून के प्रति उदासीन हैं? क्या ये उदासीनता एक साज़िश है, जिसके ज़रिए आम जनता को उसके बुनियादी हक़ से महरूम किया जा रहा है? सूचना आयोग के कार्यालय में पेंडिंग मामलों का जो अंबार लगा है, उसके लिए जवाबदेह व ज़िम्मेदार कौन है? पारदर्शिता व जवाबदेही के इस पूरी मुहिम को पटरी से उतार देने की साज़िश के पीछे कौन-कौन से चेहरे हैं? इन सवालों का जवाब वक़्त रहते मिलना बेहद ज़रूरी है.