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पारसियों के बसाए शहर में अब बाक़ी नहीं रह गए हैं पारसी

अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net

जमशेदपुर: पारसियों की पहचान के प्रतीक एक शहर में पारसी अब ढ़ूंढे नहीं मिलेंगे. ये शहर झारखंड का जमशेदपुर है. वही जमशेदपुर जिसे ‘टाटानगर’ भी कहा जाता है.

हालांकि इससे पहले यह शहर ‘साक्ची’ नामक एक आदिवासी गांव हुआ करता था. लेकिन 1907 में टाटा आयरन एंड स्टील कंपनी (टिस्को) की स्थापना के साथ ही यह साक्ची गांव एक शहर में बदल गया. और इस शहर को बसाने का श्रेय जमशेदजी टाटा को जाता है इसीलिए आज यह शहर जमशेदपुर के नाम से नाम जाता है.

जमशेदजी टाटा पारसी थे और उस ज़माने में जमशेदपुर में पारसियों की हज़ारों की संख्या में आबादी थी. मगर बदलते वक़्त के साथ ये सब अब इतिहास का हिस्सा बन चुका है. न तो वह जमशेदपुर रहा और न ही पारसियों का वह गढ़. आज आलम यह है कि जिस शहर को एक पारसी ने बसाया था, उसी शहर में पारसियों के नाम व निशान धीरे-धीरे ख़त्म होने के कगार पर है.

PARSI IN JAMSHEDPUR

34 साल टाटा स्टील में काम करके रिटायर्ड हो चुके 65 साल के नवरोज धोतीवाला बताते हैं, ‘इस शहर को बसाने वाले जमशेदजी टाटा का सपना था कि हमारे मुल्क का हर आदमी आर्थिक तौर पर मज़बूत हो जाए, तभी हम ‘अंग्रेज़ों’ से आज़ाद हो पाएंगे. इसी विज़न पर पूरा पारसी समुदाय हमेशा काम करता रहा.’

धोतीवाला आगे बताते हैं, ‘जमशेदजी टाटा ने अपनी कम्पनी में हर समुदाय के लोगों को उनकी क़ाबलियत के मुताबिक़ नौकरी दी. उन्होंने सिर्फ़ पारसियों का पक्ष कभी नहीं लिया. दूसरे समुदाय के लोगों का ख़ास ध्यान रखा. एक ज़माने में जब टाटा कम्पनी में पैसे की कमी पड़ गयी और स्टाफ़ को सैलरी देनी थी, तब जमशेदजी की पत्नी ने अपने सारे गहने गिरवी रख दिएं. और तब स्टाफ़ को सैलरी दी गयी.’

धोतीवाला आगे बताते हैं, ‘जमशेदजी टाटा के ज़माने में जमशेदपुर में हज़ारों की संख्या में पारसी समुदाय के लोग थे, लेकिन अब यह संख्या 160 से 200 के बीच है.’

PARSI IN JAMSHEDPUR

धोतीवाला के मुताबिक़ पारसियों ने इस शहर को बहुत कुछ दिया है. जमशेदजी टाटा के रहते हुए यहां पारसियों ने अपना एसोसिएशन बनाया. इस एसोसिएशन ने ज़मीन ली और पारसियों के लिए अलग से एक कॉलोनी बनायी गयी. इस कॉलोनी में ज़्यादातर वे पारसी रहते थे, जिन्हें कम्पनी में जॉब या रहने की जगह नहीं मिली थी. इसी कॉलोनी के बग़ल में फायर टेम्पल यानी अग्यारी भी बनाया गया. एक पारसी हॉस्टल भी खोला गया. आरामगाह भी बनाया गया. दूसरे समुदाय में खासतौर पर आदिवासियों में शिक्षा की कमी को देखते हुए पारसियों ने यहां कई कॉलेज व स्कूल खोले. जिनमें से ‘बाग़-ए-जमशीद’ और कई स्कूल आज भी शहर में मौजूद हैं. पारसियों समुदाय के कई डॉक्टरों ने जमशेदपुर में रहकर हर समुदाय के लोगों की सेवा की.

यह पूछने पर जिस पारसी समाज ने जमशेदपुर को इतना कुछ दिया उस जमशेदपुर ने पारसियों को क्या दिया? इस सवाल पर धोतीवाला कुछ देर के लिए खामोश हो जाते हैं. फिर कुछ देर बाद बताते हैं, ‘इसकी कोई ज़रूरत भी नहीं है.’ फिर वो आगे बताते हैं, ‘पूरे देश में पहले फैमिली प्लानिंग पारसियों ने ही शुरू की थी, और अब हम खुद ही ख़त्म होते जा रहे हैं.’

नवरोज धोतीवाला के तीन बच्चे हैं. बड़ा बेटा अपने परिवार के साथ न्यूयार्क में रहता है. बेटी दिल्ली में रह रही है. लेकिन छोटा बेटा अभी भी जमशेदपुर में है और इन दिनों खुद का बिजनेस कर रहा है.

PARSI IN JAMSHEDPUR

वर्तमान में जमशेदपुर में गिनती के क़रीब 160 पारसी ही रह गए हैं. इनमें भी अधिक संख्या अब ‘बुजुर्ग बैचलरों’ की है. खैर, पारसियों की संख्या में आयी कमी की एक बड़ी वजह उनके भीतर की रूढ़िवादी रीतियां भी ज़िम्मेदार हैं. आमतौर पर पारसी अपने बच्चों की शादी दूसरे समुदाय में नहीं करते हैं.

इसी पारसी कॉलोनी में रहने वाले 62 साल के बेहरहमन नवरोज़ वाडिया अभी भी अविवाहित हैं. और हंसते हुए बताते हैं, ‘आई एम 62 एंड स्टिल ए बैचलर.’ आपने शादी क्यों नहीं की? यह सवाल पूछने पर वो बताते हैं कि बिजनेस में इतना व्यस्त रहा कि शादी के लिए वक़्त ही नहीं मिला. पहले ट्रक चलवाया, चाय कम्पनी खोली, फिर सूरत गएं, वहां भी कुछ-कुछ बिजनेस किया, फिर दिल्ली में ज्वेलरी की दुकान खोली, फिर जमशेदपुर वापस आकर स्टोन क्रशर का धंधा किया और अब आराम कर रहा हूं.

पारसी दूसरे समुदाय में शादी क्यों नहीं करते? ये सवाल पूछने पर वाडिया बताते हैं, ‘दूसरे कम्यूनिटी की बात तो छोड़ दीजिए, अपने कम्यूनिटी में भी नहीं करते हैं. इसके कई कारण हैं. हम लोग एजुकेशन ज़्यादा से ज़्यादा हासिल करते हैं. जब एजुकेशन हासिल कर लेते हैं तो फिर सोच बनती है कि पहले कुछ कमा लिया जाए. अब जब कमाने लगते हैं तो ख़्वाहिशें बढ़ जाती हैं कि लड़की ऐसी होनी चाहिए, वैसी होनी चाहिए. हमारी लड़कियां भी ऐसा ही सोचती हैं. जबकि दूसरे समुदाय के लोग बच्चे की उम्र 22 साल हुई नहीं कि शादी कर देते हैं. ये कल्चर हमारे यहां नहीं है.’

PARSI IN JAMSHEDPUR

वाडिया साहब से कई मुद्दों पर बात हुई. इसी बातचीत में वो हंसते-हंसते यह भी बताते हैं कि 90 फ़ीसदी पारसी 90 फ़ीसदी पाग़ल होते हैं. बाक़ी के 10 फ़ीसदी पारसियों के बारे में पूछने पर वे कहते हैं, ‘वो पूरे पागल होते हैं’ फिर वो हंसने लगते हैं.

हालांकि एक ओर घटती आबादी और दूसरी तरफ़ कम होते युवा लड़के-लड़कियों की संख्या ने पारसियों की नयी पीढ़ी को कुछ नया करने पर मजबूर कर दिया है. अब इनमें बाहर के समुदायों में भी रिश्ते होने लगे हैं. मगर जमशेदपुर के लिए यह प्रक्रिया काफी देर से शुरू हुई है.

इसी कॉलोनी में हमारी मुलाक़ात पढ़ने वाली दो लड़कियों परसिस व डेलज़ीन से हुई. उनसे पूछने पर कि इस कॉलोनी में आख़िरी शादी की दावत आपको कब मिली थी?तो इस सवाल पर वो सोचने लगती हैं. फिर बोलती हैं कि याद नहीं.

आख़िर पारसियों की आबादी घटने की असल वजह क्या है? इस सवाल पर उनका कहना है कि हमारे यहां के लड़के शादी नहीं करते. फिर जब हमने पूछा कि आप दोनों का क्या इरादा है? हमने एक कदम आगे जाकर यह भी पूछा कि यदि कॉलेज में आपको कोई दूसरे धर्म का लड़का पसंद आ जाए तो क्या आप शादी कर लेंगी? इस सवाल पर दोनों मुस्कुराने लगते हैं और हंसते हुए कहती हैं, ‘हां, कर लेंगे.’ फिर वो आगे बताती हैं कि लड़कियां तो दूसरे समुदाय में शादी कर ही लेती हैं, लेकिन लड़के दूसरे समुदाय में शादी नहीं करते. अगर वे करते तो जनसंख्या में वृद्धि होती. हम तो दूसरे समुदाय में शादी करके पारसी जनसंख्या घटाने का ही काम करते हैं.

लेकिन इसी कॉलोनी में मेरी मुलाक़ात 58 साल के एडवोकेट मेहरनोश केरसी खमबाटा से होती है. उन्होंने अपनी शादी एक हिन्दू लड़की से की है, लेकिन शिकायत यह है, ‘हम नॉन-पारसी को अपना धर्म भी स्वीकार करने नहीं देते. मेरी पत्नि फायर टेम्पल में नहीं जा सकती.’ तभी उनकी उनकी पत्नि अनु भी आ जाती हैं. तभी खमबाटा बताते हैं, ‘इंदिरा गांधी भी फायर टेम्पल नहीं जा पाईं.’ फिर वो बताते हैं कि जमशेदजी टाटा ने भी एक फ्रेंच लेडी से शादी की थी. वो शादी के बाद पारसी बनना चाहती थीं, लेकिन बावजूद इसके उन्हें भी फायर टेम्पल में प्रवेश नहीं दिया गया. जिसको लेकर जमशेदजी टाटा ने एक केस भी डाला था.’ उस केस से संबंधित कुछ कागज़ात व जजमेंट एडवोकेट खमबाटा के पास भी मौजूद हैं.

46 साल के होमी मेहता भी एक गैर-पारसी महिला से शादी की है. मेहता फिलहाल फायर टेम्पल में पुजारी हैं. वहीं युवा जैसे दिखने वाले फायर टेम्पल के 55 साल के मुख्य पुजारी मेहरनोश दस्तूर, जो मुंबई के रहने वाले हैं, दो साल से जमशेदपुर के फायर टेम्पल में रहते हैं, बताते हैं कि यहां धर्म-परिवर्तन की कोई धारणा नहीं है. कोई धर्म परिवर्तन नहीं करा सकता.

PARSI IN JAMSHEDPUR

पारसियों की संख्या बढ़ाने के लिए केन्द्र सरकार ने 23 सितम्बर 2013 को ‘जियो पारसी’ नाम की एक स्कीम शुरू की है. इस स्कीम ने पारसी समुदाय के जनसंख्या के बढ़ोत्तरी को प्रोत्साहन देने के तमाम तरीक़े अपनाए. मगर यह स्कीम ज़मीन पर कहां है, इसे ढूंढना उतना ही मुश्किल है, जितना देश में पारसियों को ढ़ूढ़ना.

जमशेदपुर फायर टेम्पल के पुजारी मेहरनोश दस्तूर और बताते हैं कि इस स्कीम का न तो कोई उपयोग है और न ही कोई फायदा. वहीं बेहरहमन नवरोज़ वाडिया को इस बात की जानकारी ही नहीं है कि देश में ‘जियो पारसी’ नामक कोई स्कीम भी चल रही है. परसिस व डेलजीन बताती हैं कि सरकार से हमें कुछ भी नहीं मिलता, लेकिन हां, यहां के लोग हमें सम्मान ज़रूर देते हैं. वहीं एडवोकेट खमबाटा ‘जियो पारसी’ के बारे में पूछने पर गुस्सा हो उठते हैं. फिर बताते हैं, ‘यहां तो हमारे जो दूसरे अधिकार हैं, वही हासिल न हो पा रहे हैं. पिछले कई सालों से पेंशन स्कीम के तहत मिलने वाली राशि के लिए लड़ाई लड़ रहा हूं. आरटीआई भी दाखिल कर चुका हूं. मामला केन्द्रीय सूचना आयोग तक पहुंत चुका है. इस संबंध में राष्ट्रपति तक को पत्र लिख चुका हूं, मगर हुआ कुछ भी नहीं.’

इस स्कीम को लेकर लोगों के कई सवाल हैं. लेकिन महत्वपूर्ण सवाल यह है कि एक पारसी के नाम पर बसे इस शहर जमशेदपुर की ये हालत क्यों है? इस शहर को सरकार इस समुदाय के लिए एक ‘रोल मॉडल’ के तौर पर विकसित कर सकती थी, लेकिन ये बात राज्य सरकार की प्राथमिकता सूची में कभी भी नहीं रही. आख़िर ऐसा क्यों? आख़िर पारसी अपनी ज़मीन पर उपेक्षित और पराये क्यों हो गए हैं? इन सवालों का जवाब मिलना इसलिए भी बेहद ज़रूरी है, क्योंकि बात उस कौम और उस शहर की है, जो ज़माने से इसके तक़दीर और ताबीर से जुड़ा रहा है और आज अपने गौरवशाली इतिहास की कहानियां बयान कर रहा है.

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