Home Articles बिहार टॉपर घोटाला : तिरस्कार नहीं सुधार की ज़रुरत

बिहार टॉपर घोटाला : तिरस्कार नहीं सुधार की ज़रुरत

आर्फिना खानम

बिहार इंटरमीडिएट कला की टॉपर रूबी राय का संपूर्ण संस्करण अब समाचार पत्रों की शोभा बन चुका है, जिन वर्गों में समाचार पत्र पढ़े नहीं जाते थे वे लोग पैसे खर्च कर अख़बार को तरजीह दे रहे हैं. अच्छा है कि कम से कम लोग आज समाचार पत्रों की उपयोगिता से रूबरू हो रहे हैं. हमें घर बैठे पता चल रहा कि रूबी राय के साथ क्या हुआ है, बिना किसी परिश्रम के हम व्यंग और तर्क दोनों का मज़ा ले रहे हैं. हमारे समाज में एक खास बात यह है की हम एकजुट हो कर भी विचारों की एकजुटता से परे हैं. एक साथ चाय की चुस्की तो लेते हैं पर किस समाचार को किस मूल्य से जोड़कर देखना चाहिए, हम इस बात की ज़रा भी फ़िक्र नहीं करते. समाचार है ‘सब हंसे हम भी हंसे’, ‘सब आश्चर्यचकित हुए हम भी हो लिए’ वगैरह वगैरह.



[Photo Courtesy: IbnLive]

जिस परिसर में हम पढ़ते-लिखते हैं और जिस उम्र में हम अपने विकास की बात सोचते हैं, यह बात तो तय है की उस कच्ची उम्र में न हमें अपने कर्तव्यों का ज्ञान रहता है और न ही उस परिसर के सम्मान का ज्ञान रहता है जिसका हम प्रतिनिधित्व करते हैं. बात रूबी राय उर्फ़ धोखाधढ़ी उर्फ़ अनपढ़ उर्फ़ गैर-सम्मानित और उसपर से लड़की की अगर की जाये तो ये तो सौ फीसदी सच है कि बिहार की नाक काट गयी. इसके लिए जितनी सजा दी जाए कम है, बिहार की शिक्षा प्रणाली पर सवाल उठ खड़े हुए हैं, इस लड़की को जितनी सजा दी जाए कम है. मेरा तो मानना है कि इससे बड़ी सजा तो मिल ही नहीं सकती थी जो सजा उसे मीडिया के फ्रंट पेज पर मिल चुकी है. टॉप होने से लेकर जेल जाने तक का सफर हमने चाय की चुस्की के साथ मज़े लेकर पढ़ा है. फिर भी कुछ और सजा देना बाकी है तो थोड़ी प्रतीक्षा और करें. जिस दिन समाज की अवहेलना वह बर्दाश्त न कर पायेगी, जिसके कारण उसे शायद ख़ुदकुशी करना पड़ जाए तब जाकर समाचारों को थोड़ा विराम मिलेगा.

रूबी तो मात्र एक नाम है, पर सच जानिए कि यह नाम अब एक सिद्धान्त बन चुका है. एक ऐसा सिद्धान्त जिसको अब परिवर्तन की ज़रूरत है. रूबी का नाम अब एक कानून बन चुका है, जिसमे संशोधन की आवश्यकता है. हम परिवर्तन और संशोधन के बल पर उस वजह को ख़त्म करें जो हमारी शिक्षा प्रणाली को लचीला बनाती है. उस शिक्षक से बात की जाए जिसने नंबर दिए (क्यों?) , उस पिता से बात की जाए, जिन्होंने इस परिणाम में अपनी सहमति दी(कैसे?) , उस स्कूल से बात की जाए जहां बच्चों का भविष्य अधर में है (कब तक?).

इस पूरी श्रृंखला में कुछ शब्दों का उपयोग बारम्बार हुआ है, जैसे कि गिरफ्तारी, जेल, धोखाधड़ी, घूसखोरी. पर जिस मुख़्य बिन्दु का मुझे इंतज़ार था वह सुर्खियों में आया ही नहीं कि रूबी राय – अनजाने में इस पूरे समाचार की विषयवस्तु बन चुकी है – को सरकार अब किस स्कूल में दाखिले के लिए भेज रही है. उसका भविष्य समाचार पत्र तय करेंगे या खुद वह ऐसे ही निराशा के अंधेरे में दम तोड़ देगी.

मैं यह प्रश्न करना चाहती हूं, सबसे पहले उनसे जिन्होंने रूबी को नक़ाब लगा कर मीडिया के फ्रंट पेज पर दर्शाया है, क्या उसने ऐसा जुर्म किया है जिससे उसे मुंह छुपाने की ज़रूरत पड़ी, क्या उसने ऐसा घृणित काम किया है कि उसकी आतंकवादीनुमा तस्वीर बार-बार समाचार पत्रों पर छायी रही. हाँ! पर अब ये बात सच है कि भरोसा करना जुर्म है, अपने पिता पर किए गए भरोसे पर शायद उस बेटी को अब पछतावा हो रहा होगा.

इन सब समीकरणों को अगर जोड़ा जाए तो ये बात कहना ग़लत न होगा कि पूरे घोटाले ने बिहार के शिक्षा जगत में हंगामा मचा दिया. प्रक्रिया और प्रणाली को दुरुस्त करने की बात अब डंके की चोट पर है और अब जनता भी जागरूक है. तो जग ज़ाहिर है की आगे अब कोई गड़बड़ी नहीं होगी. इन सबका श्रेय रूबी को जाता है. इस छात्रा के इंटरव्यू से ही आशंका का बीज खिला जिसने शिक्षा जगत में एक ऐसे अध्याय को जन्म दिया जिस पर प्रतिक्रिया होना कई वर्षों से अपेक्षित था.

शुक्रिया रूबी! तुमने उन लोगों को जगा दिया जो कई वर्षों से अपने विभाग में काम न करने की शपथ ले चुके थे. तुम्हें भले ही तिरस्कार का सामना करना पड़े, पर तुम्हारी वजह से अब बिहार बोर्ड की दशा बदलेगी, नयी व उपयुक्त बहाली होंगी, हर कुर्सी पर अब काम होगा, अब मेज़ पर फाइलें नहीं मास्टर प्लान होगा. और इन सबका श्रेय तुम्हे जाता है. हमें उम्मीद है की तुम इस निराशा के बाद एक बार फिर अपने बल पर आगे बढ़ोगी. परिवार और प्रशासन की मदद तुम्हे मिलनी चाहये, यदि न मिले तो आत्मविश्वास बनाये रखना. टूट कर लोगों के व्यंग का सामना नहीं करना, बल्कि डट कर उनकी आलोचनाओं को अपना मार्गदर्शक बनाना.

[आर्फिना खानम शिक्षा क्षेत्र से जुडी हुई हैं. पटना में उनकी रिहाइश है. उनसे [email protected] पर संपर्क किया जा सकता है.]