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ये चेहरे यूपी चुनाव में भाजपा के लिए मुसीबत का सबब बन सकते हैं

सिद्धांत मोहन, TwoCircles.net

उत्तर प्रदेश का विधानसभा चुनाव अब चंद महीने ही दूर बचा हुआ है. समाजवादी पार्टी को छोड़कर लगभग सभी दलों ने प्रदेश में चुनावी बिगुल फूंक दिया है और वोटरों को रिझाने के लिए जी-जान से जुटे भी हुए हैं. लेकिन इन सभी के बीच देश के बीते दो सालों के घटनाक्रम को देखें तो कई ऐसे चेहरे सामने आते हैं, जिन्हें भाजपा की विचारधारा से आमना-सामना करने के कारण सुर्ख़ियों में जगह मिली. और सुर्ख़ियों में जगह ही नहीं, समय के साथ उन्हें एक व्यापक जनाधार मिला, जिसकी बिना पर वे विधानसभा चुनावों में भाजपा के लिए परेशानी का सबब बन सकते हैं.

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इन चेहरों में कन्हैया कुमार हैं, हार्दिक पटेल हैं, जिग्नेश मेवाणी हैं और कुछ ऐसे नाम हैं जो अभी धीरे-धीरे सामने आ रहे हैं.

कन्हैया कुमार

दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के पूर्व छात्रसंघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार और उनके दो साथियों उमर खालिद और अनिर्बन भट्टाचार्य की इस साल फरवरी में गिरफ्तारी हुई. उन पर आरोप लगा कि उन्होंने देशविरोधी कार्यक्रमों का आयोजन कराया और उसमें देशविरोधी नारे लगाए. इन आरोपों के समर्थन में चंद समाचार चैनलों द्वारा जारी किए गए वीडियो आगे चलकर प्रामाणिक साबित नहीं हुए. जेल से बाहर आने के बाद उमर खालिद और अनिर्बन भट्टाचार्य वापिस अपने पुराने एक्टिविस्ट के स्वरुप में लौट गए लेकिन पूरे प्रकरण से कन्हैया कुमार को खुद का राजनीतिक ओहदा बढाने में भरपूर मदद मिली. उसके बाद वे कुछ जगहों में चुनाव प्रचार के लिए गए, और उनके द्वारा समर्थित प्रत्याशी ने सफलता भी हासिल की.

यदि कन्हैया कुमार यूपी में कदम रखते हैं, तो ज्यादा संभावना है कि वे समाजवादी विचारधारा के संगठन के समर्थन में आ सकते हैं. उनके बिहार में किए गए हालिया दौरे भी बिहार की सोशलिस्ट सरकार से उनके प्रगाढ़ होते समीकरणों की बानगी है. कन्हैया कुमार मूलतः वामपंथी विचारधारा से ताल्लुक रखते हैं लेकिन भारत के चंद राज्यों को छोड़ दें तो वामपंथी पार्टियों का कोई नामलेवा नहीं है.

राजनीतिक गठजोड़ को एक अहम कदम मानने वाले कन्हैया कुमार ने TwoCircles.net के साथ बातचीत में यह स्वीकार भी किया है कि फाशीवाद को हराने के लिए कुछ विचारधाराओं में एक गठजोड़ की संभावना तलाशी जा सकती है. ऐसे में यदि कन्हैया उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्सों में किसी के समर्थन में आते हैं तो संघ का खुलकर विरोध कर रही पार्टियों को कुछ मदद मिल सकती है. लेकिन कन्हैया ने जाति को लेकर अपने राजनीतिक सुर बुलंद नहीं किए हैं तो हो सकता है कि जातिवादी राजनीति से ग्रस्त उत्तर प्रदेश के वोटरों को वे एक सीमित हद तक ही रिझा सकें.

हार्दिक पटेल

पाटीदार आरक्षण आन्दोलन के मुखिया हार्दिक पटेल महज़ 23 साल के हैं. बीते साल अगस्त में उन्होंने गुजरात में पटेल आरक्षण को लेकर आन्दोलन की नींव रखी और तब से वे प्रदेश की भाजपा सरकार की आंख की किरकिरी बने हुए हैं. तिरंगे झंडे का अपमान करने के लिए उन पर राष्ट्रद्रोह का आरोप लगा और जिसके चक्कर में उन्हें जेल की हवा भी कहानी पड़ी.

बीते दिनों अमित शाह जब पाटीदारों की एक रैली को संबोधित कर रहे थे तो अमित शाह के खिलाफ नारेबाजी होने लगी. गुजरात में पाटीदारों के बीच हार्दिक पटेल द्वारा चलाए गए आन्दोलन की वजह से एक नयी आंदोलनकारी ऊर्जा का संचार हुआ है.

आम आदमी पार्टी के संपर्क में बने हुए हार्दिक पटेल के बारे में भी उत्तर प्रदेश चुनाव में प्रचार के बारे मने कयास लगाए जा रहे हैं. आम आदमी पार्टी उत्तर प्रदेश में चुनाव लडती है या नहीं, इस पर अभी कोई जानकारी तो नहीं है लेकिन इतना भरोसे के साथ कहा जा सकता है कि यदि ‘आम आदमी पार्टी’ चुनाव नहीं लड़ती है तो बिहार की तर्ज पर भाजपा को हराने के लिए वह एक गठबंधन के समर्थन में उतर सकती है. ऐसे में हार्दिक पटेल यूपी में अपने पैर जमाने के लिए संघर्ष कर रही कांग्रेस के लिए एक स्टार प्रचारक साबित हो सकते हैं. कांग्रेस बीते समय में आरक्षण की घोषणाओं के चलते ही चुनावों में जीत दर्ज कर सकी है ऐसे में हार्दिक पटेल कांग्रेस के लिए एक बड़ा वोटबैंक तैयार कर सकते हैं.

जिग्नेश मेवाणी

‘हमें हमारी ज़मीन दो, मरी हुई गाय की पूंछ आप रखो’

बीते दो सालों में गाय को लेकर हो रही राजनीति में गाय को लेकर इतना मजबूत नारा अभी तक नहीं दिया गया था. जिग्नेश मेवाणी के इस नारे के साथ-साथ एक नवदलित आंदोलन खडा हुआ है, जिसे ‘जय भीम-जय मीम’ का नारा देने वाले एम्आईएम के नेता असदुद्दीन ओवैसी भी नहीं खडा कर सके. दो महीनों पहले गुजरात के ऊना में दलितों की पिटाई के बाद गुजरात का माहौल बेहद गर्म हो गया. ठीक उसी समय मुकुल सिन्हा और आनंद तेलतुम्बड़े से प्रभावित एक्टिविस्ट जिग्नेश मेवाणी प्रकाश में आए. वे गुजरात में घूम-घूमकर दलितों को जोड़ते आए और उन्हें मैला न उठाने की कसमें दिलायीं. दलित समुदाय ने इसमें बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया. दलित स्वाभिमान रैली में जिग्नेश मेवाणी की उपलब्धि देखने को मिली. इसके बाद जिग्नेश दिल्ली आए और फिर यूपी. तीन दिनों पहले अहमदाबाद लौटते ही जिग्नेश मेवाणी को गिरफ्तार कर लिया गया.

यूपी की राजनीति में जाति न शामिल हो तो उसे यूपी का चुनाव नहीं कहा जाता है. बनारसी में कहावत है, ‘जेकर जात नाही, ऊ भोटर नाही’. इसका मतलब है कि जिसकी जाति नहीं वह वोटर कैसा? इन सन्दर्भों में दलितों को लेकर एक बड़ा आंदोलन खडा कर देने वाले जिग्नेश उत्तर प्रदेश की किसी पार्टी के लिए वरदान साबित हो सकते हैं. जिग्नेश के पास बसपा या कांग्रेस, इन दो ही पार्टियों के विकल्प बचते हैं, जिनके समर्थन में वे चुनाव प्रचार कर सकते हैं. ऐसा इसलिए क्योंकि आरक्षण, साम्प्रदायिकता व दलितों के अधिकारों के मामले में समाजवादी पार्टी और भाजपा का रवैया एक जैसा व बड़े हद तक रैडिकल है.