‘पार्च्ड’ यानी एक पुराने विषय में नयी छौंक

सिद्धांत मोहन, TwoCircles.net

भारत में सिनेमा बदल रहा है और इस तरीके से बदल रहा है कि भारतीय समाज कई दफा उन बदलावों को स्वीकार नहीं कर पाता है. भारत के स्त्री-प्रधान सिनेमा में शेखर कपूर की ‘बैंडिट क्वीन’ से हलचल आई थी, जिसे एक लहर में बदलने का प्रयास अभी तक जारी है.


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लीना यादव की फिल्म ‘पार्च्ड'(Parched) उसी कड़ी की एक फिल्म है. जो बेहद तेज़ी से बदलाव बुलाने की कोशिश करती है, लेकिन इतने सीमित आलोक में उसकी गूँज भी बेहद सीमित है.

‘पार्च्ड’ का मतलब है जला हुआ, झुलसा हुआ या सूखा हुआ.

भारत में राजस्थान, बुंदेलखंड और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में न्याय, समाज और खासकर स्त्रियों को लेकर बहुत सारी फ़िल्में बनायी गयी हैं. बलात्कार और विवाह की पृष्ठभूमि में भी भारत का सिनेमा मजबूत हुआ है. लेकिन यहां एक बात सबसे ज़रूरी है कि इस सिनेमा ने अपना एक ‘सिग्नेचर’ बनाया. इन विषयों को लेकर चलती फिल्मों को दर्शकों और फिल्म पर बात करने वाले लोगों ने एक ही श्रेणी में रखा. उसे कहा गया ‘स्त्री का सिनेमा’.

इसे एक वैचारिक सीमा क्यों न कहें लेकिन ‘पार्च्ड’ का समावेश यहीं कर दिया जाता है. वह स्त्री का सिनेमा है, औरत का सिनेमा. औरत की आज़ादी की बात करता सिनेमा, जिसमें यथार्थ सिनेमा में चर्चित यथार्थ से बेहद अलग है.

‘पार्च्ड’ चार महिलाओं और उनकी मुक्ति की कहानी है. असल में हम जिसे ‘आज़ादी’ कहते हैं, उसके अर्थ बेहद सीमित हैं. लेकिन पार्च्ड देखने पर पता लगता है कि औरत को कितने तरीकों से आज़ाद किया जा सकता है. बहुतेरे तरीकों का इस फिल्म में ज़िक्र है. और देखने पर पता लगता है कि इन तरीकों से उपशाखाओं की तरह और भी कई तरीके निकलते हैं.

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यहां एक जवांन विधवा रानी(तनिष्ठा चटर्जी) है, जिसे एक आदमी शाहरुख खान बनकर बार-बार फोन करता है. शुरुआत में रानी तो इस ‘शाहरुख खान’ से बातचीत करती है और अपने विधवा होने और एक लड़के की माँ होने की बात छिपा जाती है. लेकिन किसी दिन वह खीजती है और उस शाहरुख खान को गुस्से में अपना सारा सच बता डालती है. फिर वह इंतिज़ार करती है कि यदि इस शाहरुख खान में सिर्फ शारीरिक संबंध की भूख होगी तो वह उसे पलटकर कभी फोन नहीं करेगा. लेकिन यहां रानी गलत साबित होती है और शाहरुख खान उसे फोन करता है और स्वीकार करता है कि असल में वह भी एक बयालीस साल का अधेड़ और कुंवारा है.

यहां रानी का पार्च्ड ख़त्म होता है. यहां रानी की फिल्म ख़त्म होती है.

लज्जो(राधिका आप्टे) है जो कि बांझ है. वह खुद के बांझ होने पर चुटकुले मारती है, हंसती है लेकिन तय है कि वह एक बच्चे की माँ भी बनना चाहती है. रानी की पक्की सहेली लज्जो अक्सर अपने पति से पिटती है. इतना पिटती है कि अपनी चेतना में रोज़ अपने पति की अहमियत को भी पीटती रहती है. एक दिन वह पिटकर रानी के घर लौटती है और पहली बार रानी के साथ संबंध की दूसरी संभावनाओं को टटोलती है. यह संभावना फिल्म में ठीक वहीँ ख़त्म होती है, जहां वह समाज में ख़त्म हो जाती है. उसका कोई विस्तार नहीं है. फिर एक दिन वह लज्जो में किसी गुफा में एक बाबा टाइप आदमी(आदिल हुसैन) के साथ सम्बन्ध बनाती है. रोचक यह है कि यहां पहली बार लज्जो के जीवन में सम्भोग के पहले का प्रेम और उससे जुडी संवेदनाएं आती हैं और वह पूरे चरम पर प्रेम करती है कि गर्भवती होने का उसका ध्येय पूरा हो जाता है, इस गर्भ का असल हक़दार वह अपने पति को बताती है लेकिन उसका पति उसे और उसके गर्भ को अपनाने से बचने लगता है. इसी दौरान पिटते वक़्त रानी लज्जो के घर आती है और उसे उसके पति से बचाती है. और इसी हाथापाई में उसका पति अपने घर समेत जल जाता है.

यहां लज्जो का पार्च्ड ख़त्म होता है. उसकी फिल्म भी.

रानी का बिगडैल बेटा गुलाब(रिद्धी सेन) ब्याहा जाता है जानकी(लहर खान) से. शादी से ही वह अपनी पत्नी से नफरत करने लगता है. इस नफरत की इंटेंसिटी इतनी है कि वह शारीरिक सम्बन्ध को बलात्कार में बदल देती है. फिर गुलाब घर छोड़ देता है और जानकी अपनी सास के पास ही रहना मुनासिब समझती है. लेकिन अपने घर को बेचकर क़र्ज़ चुकता करती हुई रानी जानकी को कुछ पैसे देती है और उसे उसके पूर्व प्रेमी के साथ अच्छी ज़िन्दगी जीने के लिए भेज देती है.

जानकी थोड़े वक़्त के लिए आती है और बता जाती है यह उसकी फिल्म क्यों है.

नौटंकी में नाचने वाली है बिजली(सुरवीन चावला). जो नाचने के अलावा जिस्मफरोशी के धंधे में भी फंस गयी है. यहां से निकलने का रास्ता उसे दूसरे दलाल के पास ले जाता है. वह अपनी सहेलियों रानी, लज्जो और रानी की बहू जानकी को आज़ादी का स्वाद चखाती है. लज्जो को उस बाबा के पास लेकर जाती है और उसका गर्भधारण करवा उसे सुख देती है. रानी को शाहरुख खान से सच कहने के लिए कहती है और उसे यह भी बताती है कि उसका बेटा गुलाब अक्सर उसके साथ सोने के लिए आता है, जिसे वह हर बार इनकार कर देती है. वह अपने साथ-साथ सभी की आज़ादी की रास्ता तय करती है और आखिर में सभी को लेकर उनके बाल कटाकर मुंबई चली जाती है.

यह है बिजली के पार्च्ड का खात्मा. उसकी फिल्म की सचाई.

जहां इन सभी का पार्च्ड ख़त्म होता है, वहीँ बेहद सलीके से इन्हें सम्हालने में जुटी चम्पा(सयानी गुप्ता) और उसके पति किशन(सुमित व्यास) का पार्च्ड शुरू होता है. चम्पा असफलता देखती है. किशन घायल होता है. उनके तरीके गाँव को शक्ति तो देते हैं लेकिन मुक्ति नहीं.

फिल्म ऐसी है जिसे देखने में कोई हर्ज़ नहीं. कुछ न्यूड दृश्य हैं. उन्हें देखने पर पहले लगता है कि इनकी फिल्म में कोई ज़रुरत नहीं थी. लेकिन फिर उन्मुक्तता का सवाल आता है तो अपना क्लेम वापिस ले लेना होता है.

औरत का सिनेमा बहुत दिनों से अभिजात्य के कब्ज़े में था. शहर की औरत थी और शहर का प्यार था. शहर के लोग थे. ऊंचे रेस्तरां तो महंगे मॉल थे. इनमें भिंड, मुरैना, बीकानेर जैसे फ़साने तो बिलकुल गायब ही थे. बहुत अच्छे से है. यह फिल्म भारत में रिलीज़ होने के पहले दुर्भाग्यपूर्ण रूप से टोरेंट पर रिलीज़ हो गयी. लेकिन भारत के दर्शकों को कुछ कट और सेंसरशिप के साथ देखने के लिए उपलब्ध है.

यह फिल्म एक नए डिस्कोर्स को जन्म देती है और उनसे आगे का रास्ता तय करने के लिए आने वाले फिल्मकारों का प्रशस्तीकरण करती है. भारत में मची हायतौबा को मूर्खता मानें तो इस फिल्म में कुछ भी ऐसा नहीं है, जिससे फिल्म को नकारा जाए. पहली बार ‘पार्च्ड’ जो छाप छोड़ती है, बाद में उसे और गहरा करते जाती है. यह मुक्ति के कई रास्तों की संभावनाओं के बारे में बात करती है, लेकिन वकालत किसी की नहीं.

यह पार्च्ड है. यह मेरी फिल्म है.

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