विश्व स्वास्थ्य दिवस गुज़र गया, लेकिन इन आदिवासी महिला किसानों की किसी से न भी सुनी…

शैलेंद्र सिन्हा

दुमका (झारखंड) : हर साल की तरह हमने कल यानी 7 अप्रैल ‘विश्व स्वास्थ्य दिवस’ मना लिया. सरकारी स्तर कई कार्यक्रम हुए जिनकी सूचना या ख़बर शायद ही झारखंड में रहने वाले आम लोगों को हो. जबकि इस दिवस का उद्देश्य पूरी दुनिया में स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता फैलाना रखा गया. लेकिन आज लोग स्वास्थ्य के प्रति जागरूक नहीं है, विशेषकर महिलाएं. और न ही सरकार की ओर इन्हें जागरूक करने की कोई कोशिश नज़र आती है. सारे जागरूकता अभियान महज़ कागज़ों पर ही चल रहे हैं.


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जबकि सच्चाई यह है कि इन महिलाओं में स्वास्थ्य के प्रति जागरूक नहीं होने से उन्हें कई प्रकार की बीमारी का सामना करना पड़ता है. ग्रामीण क्षेत्रों में शुद्ध पेयजल नहीं होने के कारण वे झरने का पानी पीते हैं और बीमारी को आमंत्रण देते हैं. इस श्रेणी में पहले पायदान पर झारखंड की महिलाएं नज़र आती हैं.

आदिवासी महिला किसान झारखंड में खेती की नींव हैं, लेकिन स्वास्थ्य के मामले में इनकी दयनीय स्थिति का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि ये महिला गर्भावस्था के दौरान भी खेतों में कठिन परिश्रम करने को मजबूर हैं और प्रसव के 15 दिनों के बाद फिर खेतों में लौट आती हैं. गर्भावस्था में वे पानी भात और स्थानीय साग खाती हैं. आदिवासी दाल का प्रयोग कम करते हैं. कुल मिलाकर भोजन में पौष्टिक आहार की कमी होती है.

महिलाओं की स्थिति पर प्रकाश डालते हुए झारखंड फीफा (फेडरेश्न ऑफ ऑल इंडिया फॉर्मर एशोसिएशन) की प्रदेश सचिव सुष्मिता सोरेन ने बताया ‘महिलाओं में स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता नहीं होने के कारण उनके बच्चों की मौत 5 साल के भीतर ही हो जाती है. गरीबी के कारण गर्भावस्था के दौरान गांव की महिला पौष्टिक आहार नहीं ले पाती जिस कारण उनके बच्चे कुपोषण का शिकार होते हैं. ग्रामीण महिला पानी भात, पुनका, सजना तथा हेमचा साग खाती हैं.’

झारखंड में कुपोषण एक अभिशाप है. सरकार इसे दूर करने के लिए कुपोषण मिशन के तहत प्रयास कर रही है. राज्य में 5 वर्ष के बच्चे गंभीर बीमारी का शिकार होकर मर जाते हैं. गर्भावस्था के दौरान महिला किसान अपनी खेती मजदूर से करवाती हैं और धान बेचकर उसे मजदूरी देती हैं. पर्याप्त पौष्टिक आहार न मिलने के कारण आदिवासी महिला किसान एनेमिया की शिकार होती हैं. उनमें हीमोग्लोबीन की कमी होती है. कमजोरी के कारण प्रसव के फौरन बाद बच्चे को पहला दुध तक नहीं पिला पाती. महिला का पैर व शरीर फूलने लगता है, आँख की रोशनी कम होने लगती है. चिड़चिड़ापन होने लगता है, रात में बुखार आता है, खाने में रूचि नहीं होती और बाल झड़ने लगते हैं.

सुष्मिता बताती हैं कि आदिवासी महिला जड़ी-बुटी से अपना ईलाज कराती हैं. ग्रामीण स्तर पर सरकारी स्वास्थ्य केन्द्र नहीं है. फीफा सरकार से मांग करती है कि देशभर की महिला किसानों का सरकार स्वास्थ्य बीमा कराए. किसानों को समय पर खाद बीज दिया जाए और उनके बच्चों की शिक्षा पर पूरा ध्यान दिया जाए. झारखंड में दलहन और तिलहन की खेती पर सरकार ध्यान दे, क्योंकि यहां इसकी संभावना अधिक है.

आपको बता दें कि झारखंड में लगभग 15 लाख महिला किसान हैं. महिला किसान ही ज्यादातर खेतों में बुआई, रोपनी, खाद का छिड़काव एवं पशु प्रबंधन का कार्य करती हैं. खेतों से पुआल लाकर उसे धान में तब्दील करने का कार्य करती हैं. परंतु खेतों में दिन रात मेहनत करने के बाद भी वर्ष भर का अनाज पैदा नहीं कर पाती. खेती के दरम्यान पौष्टिक आहार नहीं लेती, वह पुरूष किसान से अधिक कार्य करती हैं.

आत्मा (कृषि प्रौद्योगिकी प्रबंधन एजेंसी) के प्रोजेक्ट डायरेक्टर डॉक्टर दिवेश कुमार सिंह ने बताया कि सरकार किसानों के लिए कई प्रकार की योजना चला रही है. बकरी पालन, मशरूम पालन, पशुपालन और किचन गार्डेन के माध्यम से उन्हें सशक्त बनाने में लगी है.

वे बताते हैं कि इन योजनाओं से किसानों को पौष्टिक आहार मिलने के साथ उनकी आमदनी भी बढ़ेगी. आत्मा के द्वारा किसानों को कई प्रकार के प्रशिक्षण दिये जा रहे है जिससे उनकी आर्थिक स्थिति में सुधार हो रहा है.

जबकि दूसरी तरफ़ किसान फुलो मुर्मू बताती हैं कि ‘यदि समय पर सरकार किसानों को खाद-बीज उपलब्ध करा दे तो किसान और अधिक खेती पर ध्यान देंगे. आज आदिवासी अपने गांव से परिवार सहित रोज़गार के लिए बंगाल पलायन करते हैं क्योंकि गांव में खेती के अलावा कुछ नहीं है. उसमें सिंचाई की सुविधा का अभाव है, जिस कारण खेती भगवान भरोसे होती है.’

मुखोदी सोरेन, मेरी मीनाक्षी, मरांडी, सरिता सोरेन बताती हैं कि किसानों को प्रधानमंत्री फ़सल बीमा योजना के तहत ठनका गिरने से होने वाले हानि से राहत नहीं दी गयी है.

काठीकुंड गांव की महिला किसान संगीता मरांडी, शिकारीपाडा की चंपा बास्की, मसलिया की बीना बेसरा एवं दुमका की जोबा हांसदा ने बताया कि पूर्व में खेती रूढ़िवादी तरीक़े से होती थी, लेकिन अब वैज्ञानिक तरीके से खेती कर रही हैं. बावजुद इसके पैदावार पर्याप्त नहीं होती और न ही अधिक मुनाफ़ा हो पाता है.

अब प्रश्न यह है कि सरकार के प्रयासों और वैज्ञनिक पद्धति को अपनाने के बाद भी झारखंड की आदिवासी महिला किसान अपने परिवार का भरण-पोषण करने में क्यों असमर्थ हैं? और दिन रात कृषि में शारीरिक श्रम करने के कारण सिर्फ़ झारखंड की ही नहीं, बल्कि देश भर में महिला किसानों और उनके बच्चों के शरीर पर जो नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है उसका जिम्मेदार कौन है? क्या ऐसी स्थिति में विश्व स्वास्थ्य दिवस का उद्देश्य सचमुच पूरा हो पाएगा?   

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