ये टोपियां कभी रामपुर की शान थीं…

अफ़रोज़ आलम साहिलTwoCircles.net

रामपुर : रामपुर की टोपियों का बेहद ही शानदार इतिहास रहा है. आज़ादी की लड़ाई से लेकर आज तक इन टोपियों के नाम इतिहास के कई यादगार अध्याय दर्ज हैं. गांधी की मशहूर टोपी से लेकर जिन्ना, वी.पी. सिंह, फ़ारूख़ अब्दुल्लाह व आज़म खान जैसे बड़ी सियासी शख़्सियतों के लिए रामपुर की टोपियां सिर का ताज बनती आई हैं. मगर बीतते वक़्त के साथ ये टोपियां बनाने वाले भी एक कोने में सिमट से गए हैं.


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स्थानीय पत्रकार नाजिम अहमद बताते हैं, ‘कभी रामपुर शहर में टोपी बनाने के कारोबार से हज़ारों परिवार जुड़े हुए थे, लेकिन आज गिनती के कारीगर ही इस शहर में बचे हुए हैं. ज़्यादातर कारीगरों की कहानी यह है कि वे अपना इस पुश्तैनी काम को छोड़कर रिक्शा या ई-रिक्शा चला रहे हैं.’

हामिद इंटर कॉलेज के सामने अब्दुल्लाह गंज में कभी टोपी कारोबारियों का जमावड़ा हुआ करता था, लेकिन अब बस कुछ गिनी-चुनी दुकानें ही बची हुई हैं.

Rampur

इसी कॉलेज के सामने टोपी की दुकान चला रहे 46 साल के मुहम्मद जुबैर बताते हैं कि ये उनका पुश्तैनी काम है. सौ साल से ज़्यादा वक़्त से उनका खानदान इस काम में लगा हुआ है. उनके दादा ने भी यही काम किया था. हालांकि सच्चाई यह है कि रामपुर में टोपी का कारोबार इन्हीं के खानदान से शुरू हुआ है. इनके अब्बा करामत अली और इनके दादा शौकत अली थे.

जुबैर का कहना है, ‘अब टोपी का क्रेज घट गया है. लोगों को नमाज़ के लिए भी जेब में रखने वाली टोपी चाहिए. वहीं मस्जिदों में प्लास्टिक की टोपियां आ गई हैं. हमारी टोपियां ज़्यादातर रमज़ान के महीने में ही थोड़ी-बहुत बिकती हैं, क्योंकि लोग ईद के लिए ये टोपी खरीदते हैं.’

जुबैर के मुताबिक़ आज से 20 साल पहले तक अब्दुल्लाह गंज वाले रोड पर क़रीब 20-25 दुकानें हुआ करती थी. लेकिन आज उनकी संख्या सिर्फ़ 4-5 ही रह गई हैं. जुबैर बताते हैं, रामपुर के लोग अपने मेहमानों को टोपी पहनाने में काफी आगे हैं. मैं खुद अपने हाथों से अखिलेश यादव, मुलायम सिंह यादव और राजनाथ सिंह जी को टोपी पहना चुका हूं. ये लोग रामपुर की नुमाईश में आए थे.’

रामुपर की टोपियों का थोक व्यापार करने वाले 38 साल के मुहम्मद अनीस खान उर्फ़ शैज़ी का कहना है कि टोपी का थोक कारोबार भी पिछेल 8-10 सालों में 40 फ़ीसदी ही रह गया है. वो बताते हैं, ‘पहले चुनाव के समय भी काफी टोपियां बिकती थीं. जब वी.पी. सिंह रामपुर आए थे तो लोगों ने उनको टोपी पहनाई. तब वो टोपी ‘वीपी सिंह टोपी’ के नाम से मशहूर हुई और खूब चली. लेकिन अब चुनाव में शायद ही नेता या उसका समर्थक टोपी पहनकर निकलता है. वो तो अब यहां के लोगों को अपने झूठे वादों वाली ‘टोपियां’ पहनाने लगे हैं. इन्हें हमारी भविष्य की कोई चिंता नहीं है.’

रामपुरी टोपियों के घटते कारोबार की वजह क्या है? इस सवाल के जवाब में उनका कहना है, ‘आज की नई पीढ़ी में इसका शौक़ नहीं है. जबकि पहले के लोगों में शौक़ था. यह टोपी ही रामपुर की पहचान थी. लोग पूरे दिन टोपी लगाकर रहते थे. यहां बच्चा भी बड़ों के एहतराम में टोपी लगाते थे. बल्कि किसी बड़े के सामने बग़ैर टोपी के कोई जाता ही नहीं था. लेकिन अब न तो वो तहज़ीब है और न ही शहर की वो खास पहचान.’

शैज़ी इसके अलावा एक दूसरा वजह भी बताते हैं. उनका कहना है, ‘सरकार ने कभी इस ओर ध्यान नहीं दिया. उन्हें बस हमारी वोटों से मतलब रहा है, हमारे कारोबार के तरक़्क़ी से उन्हें कभी कोई मतलब नहीं रहा. हम पूरी दुनिया को टोपी भेज सकते थें, लेकिन आज भारत के बाज़ार में धागे से बनी हुई इंडोनेशिया, चीन, बांग्लादेश व पाकिस्तान की टोपियां धड़ल्ले से बिक रही हैं.’

वहीं एक कारीगर इस्माईल खान का कहना है कि अब न तो बाज़ार में ज़्यादा काम है और न ही पैसा. पूरे दिन काम करके भी मुश्किल से 200 रूपये की कमाई होती है. वे कहते हैं, ‘इतने में हमारा घर कैसे चलेगा. जबकि पहले यही रामपुर है कि यहां कारीगरों को काम से फुर्सत नहीं मिलती थी. आज कारीगर रिक्शा चलाने पर मजबूर हैं. आज मुश्किल से पूरे शहर में 40-50 अच्छे कारीगर ही बचे होंगे.’

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हामिद इंटर कॉलेज के ठीक सामने एक छोटी दुकान चला रहे 70 साल के मो. लईक़ बताते हैं, ‘पहले रामपुरी टोपी का फिल्मी दुनिया में भी क्रेज था. अब शायद ही किसी फिल्म में हीरो टोपी पहनता दिखे.’ वो आगे बताते हैं कि सरकार ने भी इस ओर ध्यान नहीं दिया. दूसरी तरफ़ महंगाई बढ़ी लेकिन टोपी की क़ीमतों में कोई खास इज़ाफ़ा नहीं हुआ. ‘हमारी भी मजबूरी है कि हम रेट बढ़ा नहीं सकते क्योंकि महंगी टोपी फिर खरीदेगा कौन?’

हालांकि वो यह भी बताते हैं कि बाज़ार में 20 रूपये से लेकर 20 हज़ार रूपये तक की टोपी मौजूद है और शौक़ रखने वाले इसे खरीदते भी हैं.

स्थानीय लोगों की मानें तो सरकारी मदद व बाज़ार के अभाव ने रामपुर के टोपी व्यवसाय की कमर तोड़ दी है. आलम यह हो गया है कि अब रामपुर की मशहूर टोपियां चंद रईस ख़ानदानों की शेख़ी या फिर कुछ सियासी या गैर-सियासी जलसों की शान व शौकत का मज़मून बनकर रह गई हैं. जिन टोपियों से एक बड़े तबक़े की रोज़ी-रोटी जुड़ी हुई थी, वो तबक़ा आज अपनी खुद की जीविका बचाने की कोशिश में दिन-रात एक किए पड़ा है.

रामपुर के टोपी के इतिहास के बारे में अगर बात करें तो रामपुर रज़ा लाइब्रेरी के ज़रिए प्रकाशित किए गए एक शोध के मुताबिक़ शौकत अली नाम के एक शख्स ने 1891 में पहली बार एक टोपी सिलकर नवाब हामिद अली खान को पेश की. नवाब साहब को यह टोपी बेहद पसंद आई और शौकत अली को इनामों से नवाज़ा. बस यहीं से शौकत अली ने अपना टोपी बनाने का काम शुरू किया और ये टोपी हामिद कैप के नाम से मशहूर हुई. शौकत अली के बाद इस काम को उनके बेटे करामत अली ने ज़िन्दा रखा. तबसे यह काम आज भी चला आ रहा है और आज मुहम्मद जुबैर इस काम में लगे हुए हैं.

इस किताब में यह भी ज़िक्र है कि राष्ट्रपिता महात्मा गांधी 1931 में मौलाना मुहम्मद अली जौहर के मेहमान थे. जौहर की सलाह पर गांधी जी ने रामपुर के नवाब हामिद अली खान से मिलने की सोची. जौहर की ही वजह से गांधी जी को तुरंत मिलने का वक़्त मिल गया. लेकिन तब यह रिवायत थी कि कोई भी शख्स नवाब के सामने खुले यानी नंगे सिर नहीं जा सकता. ऐसे में जौहर की मां यानी बी अम्मा ने तुरंत खादी का थैला बनाकर इस तरह से तह कर दिया कि वो टोपी की शक्ल की हो गई. गांधी उसे पहनकर नवाब से मिले. लेकिन गांधी जी ने उनसे मिलने के बाद भी उस टोपी को नहीं उतारा और उसे क़ौमी टोपी क़रार दिया.

मुल्क के तमाम हिस्सों में रामपुर की टोपियों का जलवा रहा है, मगर आज की खस्ताहाल सूरत उपेक्षा के लंबे सिलसिले की दास्तान बयां कर रही है. उम्मीद की जानी चाहिए कि आज के चुनावी मौसम में सियासतदान जो रामपुर को नई ऊंचाईयों तक पहुंचाने का दावा करते हैं, वो इसकी इस धरोहर का भी ख्याल रखेंगे और आने वाले वक़्त में टोपियों से जुड़े कारीगरों की ज़िन्दगी में एक मुकम्मल बदलाव सुनिश्चित हो सकेगा.

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