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सियासत के चक्रव्यूह में रामपुर का बीड़ी उद्योग

अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net

रामपुर :  यूपी में राजनीतिक पार्टियों के सिंबल वाली बीड़ियों का जलवा है. कोई कमल छाप बीड़ी छाप रहा है, तो कोई साईकिल, हाथ तो कोई हाथी छाप बीड़ी…

दरअसल, ये बीड़ी रामपुर से पूरे यूपी में सप्लाई हो रही है. बीड़ी का नशा अपनी जगह है और राजनीतिक प्रचार मुफ़्त में हो जा रहा है. मगर बीड़ी के इन कारीगरों की हालत बहुत दयनीय है. ज़्यादातर अल्पसंख्यक तबक़े के ये कारीगर या मजदूर अपनी लागत तक वसूल पाने में नाकाम हैं. सरकार की ओर से इन्हें न कोई मदद मिली है और न ही कोई मदद मिलने की इन्हें उम्मीद है. हालत ये हो गई है कि अब इनसे सियासी पार्टियां वायदे करने की भी ज़रूरत भी नहीं समझतीं.

46 साल की खुर्शीद जहां पिछले 25 साल से बीड़ी बनाने का काम कर रही हैं, लेकिन उनका दर्द ये है कि आज तक उनका खुद का घर नहीं हो सका है. उनका कहना है कि पहले मैं ज़्यादा कमा लेती थी, पर अब दिन भर में 500 से ज़्यादा बीड़ियां नहीं बन पाती हैं. पूरे दिन काम करके सिर्फ़ 50 रूपये की कमाई होती है.

वोट देने के बारे में पूछने पर वो बताती हैं कि, ‘हम तो इस बार किसी को भी वोट देने का इरादा नहीं है. आख़िर वोट देकर क्या फ़ायदा है.’

60 साल के असलम बताते हैं कि, ‘हमारा हाल तो फ़क़ीर से भी बदतर है. वो भी भीख मांगकर रोज़ 500 रूपये तक कमा लेते हैं, लेकिन हम पूरे दिन में 100 रूपये भी नहीं कमा पाते.’ फिर ये काम क्यों कर रहे हैं? इसके जवाब में वो कहते हैं, ‘और हम कर भी क्या सकते हैं. बचपन से ही बीड़ी की दुनिया में रहे और आज तक इसी दुनिया में हैं. ये ही हमारी तक़दीर है.’

मो. उमर भी 50 साल से इसी काम में लगे हुए हैं. इनका भी कहना है कि, ‘इन 50 सालों में न जाने कितनी सरकारें बदल गईं, पर हमारी मजदूरी वहीं की वहीं है. सरकार ने हमारे ऊपर कभी कोई ध्यान नहीं दिया. जबकि हमारी मजदूरी भी यही सरकार तय करती है.’

रामपुर के नन्हें भाई, जब्बार खान और जग्गू भाई की भी यही कहानी है. इन लोगों का स्पष्ट तौर पर कहना है कि हमारी कोई ज़िन्दगी ही नहीं है. बस पूरा दिन बीड़ी बनाने में निकाल दो, लेकिन हाथ में आता है सिर्फ़ 60 रूपये. इतने में हम अपना घर कैसे चला लें, कैसे बच्चों को पढ़ा लें. जी तो चाहता है कि खुद को मार लें या इन नेताओं का काम तमाम कर दें.

500 बीड़ी कम्पनी रामपुर की सबसे पुरानी बीड़ी कम्पनी है. इस कम्पनी के मालिक तमकीन फैयाज़ बताते हैं कि, ‘1942 में सबसे मेरे अब्बू सेठ मो. फैयाज़ खान ने ही रामपुर में बीड़ी उद्योग स्थापित किया था. मेरे अब्बू सरकारी नौकरी में थे. लेकिन उनका दिल इस जॉब में नहीं लगा. वो मुरादाबाद में अपने दोस्त के पास मिलने गए थे, उनके दोस्त बीड़ी का ही काम करते थे. बस वहीं से ख्याल आया कि क्यों ना रामपुर में इस काम की शुरूआत की जाए, क्योंकि उस समय रामपुर में कोई रोज़गार नहीं था. औरतों में पर्दे का रिवाज था. ऐसे में लगा कि यही सबसे अच्छा काम हो सकता है. इन पर्दानशीनों को भी घर बैठे काम मिल जाएगा. बस फिर क्या था. खुद भी ये काम सीखा और यहां आकर लोगों को भी सीखाना शुरू कर दिया.’

तमकीन फैयाज़ बताते हैं कि, ‘1 करोड़ बीड़ी रामपुर में आज हर दिन बनती है. 10 हज़ार से अधिक मजदूर इसमें जुड़े हैं और यहां तक़रीबन सबके सब मुसलमान हैं.’

फ़ैयाज़ साहब का मानना है कि बीड़ी उद्योग को सबसे ज़्यादा डैमेज गुटखे ने किया है. नई पीढ़ी बीड़ी पीते हुए शायद ही मिले, लेकिन गुटखा हर किसी के मुंह में दिखेगा. जबकि गुटखे का ज़बरदस्त नुक़सान है. हालांकि नुक़सान बीड़ी का भी है, लेकिन आपको आज भी 100 साल तक के लोग मिल जाएंगे, जो बीड़ी का सेवन खूब करते हैं.

तमकीन फैयाज़ बताते हैं, ‘इस बीड़ी इंडस्ट्री से सरकार को बहुत फ़ायदा मिलता है, बावजूद इसके सरकार की पॉलिसी कभी भी बीड़ी उद्योग के फेवर में नहीं रही. कई प्रकार के टैक्स लेने के बाद भी सरकार इन मजदूरों के लिए कोई कोई लाभ देना नहीं चाहती. बीड़ी मजदूरों को कोई सरकारी सुविधा उपलब्ध नहीं है.’

बीड़ी मजदूरों के कई कहानियां हैं. इनकी अपनी समस्याएं हैं. बावजूद इसके सियासत के गलियारों में बीड़ी उद्योग के बारे में कहीं कोई शोर नहीं है. किसी भी सियासी पार्टियों का सियासत और फ़ौरी लाभ के अलावा इस उद्योग की तरक़्‍क़ी के बाबत किसी का कोई ध्यान ही नहीं गया. हालांकि राजनीतिक पार्टियां इन बीड़ियों के ज़रिए अपना प्रचार तो करवा ले रही हैं, मगर इनके बनाने वाले मजदूरों का भविष्य क्या होगा, न तो इस पर सोचना किसी की फुर्सत में है और न ही प्राथमिकता में.