सिनेमाघर में राष्ट्रगान : नफरत की राजनीति को बढ़ावा और असल मुद्दों से दूरी

अभय कुमार

पिछले महीने केरल की राजधानी तिरुवनंतपुरम में पुलिस ने 12 लोगों को हिरासत में ले लिया. उनपर आरोप लगाया गया कि जब सिनेमा हॉल में राष्ट्रगान बज रहा था तो वे इसके सम्मान में खड़े नहीं हुए. कुछ ऐसा ही मंज़र एक दिन पूर्व चेन्नई के एक सिनेमाघर में भी देखने को मिला जब 20 लोगों के एक गिरोह ने तीन महिला समेत आठ लोगों की पिटाई कर दी. इन लोगों पर भी राष्ट्रगान बजने के दौरान खड़ा न होने का इलज़ाम लगाया गया. मुमकिन है इस तरह की घटनाएं देश के अन्य भागों में भी घट रही होंगी जिनके सबब नागरिक अपने आप को ग़ैर-महफूज़ महसूस कर रहे हैं. बहुत लोगों के ज़ेहन में यह सवाल दौड़ रहा है कि क्या देशभक्ति और राष्ट्रीयता के नाम पर नागरिकों के अधिकार के साथ खिलवाड़ करना उचित है?


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जैसा कि आप जानते है कि सर्वोच्च न्यायालय ने एक जनहित याचिका की सुनवाई करते हुए 30 नवम्बर को आदेश दिया था कि देशभर के सिनेमाघरों में फिल्म शुरू होने से ठीक पहले राष्ट्रगान को लाज़मी तौर से बजाया जाए और वहां मौजूद तमाम लोग राष्ट्रगान के सम्मान में खड़े हो जाएं. अपने फैसले में जस्टिस दीपक मिश्रा और अमिताव रॉय ने कहा कि इस प्रक्रिया में नागरिकों के अन्दर देशभक्ति की भावना और राष्ट्रीयता का जज्बा पैदा होगा. इस आदेश के बाद देशभक्ति और राष्ट्रीयता के नाम पर राजनीति करने वाली शक्तिओं को बल मिला है.

1986 के एक फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि राष्ट्रगान या देश के लिए आदर के ज़ज्बे को किसी पर थोपा नहीं जा सकता. यह विडम्बना है कि आज सर्वोच्च न्यायालय अपने फैसले को सही साबित करने के लिए संविधान के आर्टिकल 15 (ए) का सहारा ले रहा है, जिसको इंदिरा गांधी ने आपातकाल के दौरान लाया था.

राष्ट्रगान के दौरान खड़ा होने में क्या हर्ज़ हैं? जो लोग इस तरह की दलील पेश करते हैं, उनको मैं 27 अगस्त 1949 की घटना पेश करना चाहता हूं जिसका ज़िक्र हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के नामवर इतिहासकार और नेताजी सुभाषचन्द्र बोस के भतीजे प्रोफेसर सुगत बोस ने अपने एक लेख में किया है. उस दिन गांधी कोलकाता में थे और उनकी प्रार्थना सभा में राष्ट्रगान ‘वन्देमातरम’ को गाया गया. जहां सभी लोग राष्ट्रगान के सम्मान में खड़े हुए वहीँ गांधी बैठे रहे. इसके पीछे गांधी की सोच थी कि राष्ट्रगान पर खड़ा होना यूरोप समाज का रिवाज़ है और इसका देशभक्ति से कोई सीधा नाता नहीं है.

इसके साथ साथ हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि आज से 30 साल पहले पूर्व इसी सर्वोच्च न्यायालय ने राष्ट्रगान के दौरान खड़ा होने को अनिवार्य नहीं ठहराया था. 1986 के एक फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि राष्ट्रगान या देश के लिए आदर के ज़ज्बे को किसी पर थोपा नहीं जा सकता. यह विडम्बना है कि आज सर्वोच्च न्यायालय अपने फैसले को सही साबित करने के लिए संविधान के आर्टिकल 15 (ए) का सहारा ले रहा है, जिसको इंदिरा गांधी ने आपातकाल के दौरान लाया था. आपातकाल, जिसे भारतीय लोकतंत्र का एक काला अध्याय माना जाता है.

अगर सिनेमाघरों में राष्ट्रगान बजने से देशभक्ति और राष्ट्रीयता का जज्बा उमड़ता है तो भी इसे और भी जगह जैसे संसद, विधानसभा और अदालत में भी बजाना चाहिए? मगर सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि उसके फैसले को अन्य जगहों पर लागू नहीं किया जा सकता है. तो क्या यह मान लिया जाए कि सिनमाघरों को छोड़ कर बाकी सभी जगहों पर लोग पूर्ण रूप से देशभक्त हैं?

अंबेडकर ने चेतावनी दी थी कि राष्ट्रीयता की विचारधारा में एक ऐसा जूनून होता है जो अन्य तमाम बड़े मुद्दों और सवालों को दबा देता है. राष्ट्रीयता के शोर में रोज़ी-रोटी, दमन और भेदभाव से जुड़े हुए सवाल दब जाते है. जिस समाज में जाति, वर्ग, धर्म और लिंग के अधार पर भेदभाव और शोषण हो, वहां सिनेमाहॉल में राष्ट्रगान गाने से मज़बूत राष्ट्र का निर्माण नहीं हो सकता.

[अभय कुमार जेएनयू में पीएचडी कर रहे हैं. उनसे [email protected] पर सम्पर्क किया जा सकता है.]

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