Home हिन्दी मुसलमानों के कितने हितैषी हैं मौलाना मुलायम?

मुसलमानों के कितने हितैषी हैं मौलाना मुलायम?

अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net

साईकिल की लड़ाई हारने से पहले समाजवादी नेता मुलायम सिंह यादव ने जो आख़िरी दांव चला वो अखिलेश यादव को मुस्लिम-विरोधी साबित करने का था. समाजवादी पार्टी के दफ़्तर में मुलायम सिंह यादव ने कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए अखिलेश की छवि को निशाने पर लिया. न सिर्फ़ अखिलेश को मुसलमानों के ख़िलाफ़ बताया बल्कि इशारे-इशारों में एक बड़े वोट बैंक के अखिलेश से छिटक जाने के डर की ओर इशारा भी कर दिया.

मुलायम सिंह यादव ने साफ़ तौर पर कहा कि -‘अखिलेश ने मुस्लिम विरोध में काम किया. एक मौलाना ने मुझे बताया कि अखिलेश ने मुस्लिमों के लिए कोई काम नहीं किया है. मैंने जावीद अहमद कोडीजीपी बनाया, अखिलेश ने उसका भी विरोध किया. अखिलेश ने बड़ेबड़े नेताओं को निकाल दिया.’

मुलायम इतने पर ही नहीं रूके, बल्कि उन्होंने मुसलमानों से यह भी अपील किया कि -‘मेरी मदद करिए, जो भी निशान मुझे मिले, अब चुनाव आयोग के हाथ में है. मेरी सरकार बनाइए. मुस्लिम भाईयोंआपकी हम मदद करेंगे.’

मुलायम यादव की ये रणनीति ख़ास तौर पर उन मुस्लिम नेताओं और कार्यकर्ताओं को अखिलेश से अलग करने की थी, जो समाजवादी पार्टी के परंपरागत सपोर्टर रहे हैं. मगर हैरानी की बात ये है कि मुलायम यादव खुद अपना इतिहास भूल गएं. बाबरी मस्जिद ढहाने के आरोपी कल्याण सिंह से हाथ मिलाने से लेकर मुज़फ़्फ़रनगर के दंगों पर आंखें मुंद लेने और दादरी की संवेदनशील घटना पर हाथ झाड़ लेने का मौलाना मुलायम का अपना दाग़दार इतिहास है.

विपक्षी पार्टियां भी मौलाना मुलायम पर कई बार मुस्लिम विरोधी होने का आरोप लगा चुकी हैं. बहन मायावती का पार्टी बसपा के राष्ट्रीय महासचिव नसीमुद्दीन सिद्दीक़ी तो एक सभा में चुटकी लेते हुए यहां तक कह डाला है कि -‘टोपी पहन लेने से कोई मुसलमान नहीं हो जाता. सच तो ये है कि मुलायम की धोती के नीचे खाकी नेकर नज़र आएगा.’ 

मुलायम यादव मुसलमानों का इस्तेमाल सिर्फ़ एक वोट बैंक की तरह करते आए हैं. मुसलमानों को डर दिखाकर वो लगातार उनका समर्थन हासिल करते रहे हैं. उन्होंने अपनी ज़िन्दगी में कई बड़ी लड़ाईयां ऐसे ही जीती हैं. ऐसे में बेटे से लड़ाई में मिली हार के बाद फिर से उन्होंने इसी ब्रहमास्त्र का इस्तेमाल करना ज़्यादा मुनासिब समझा.

मुलायम और अखिलेश की इस लड़ाई के बहाने समाजवादी सरकार का मुसलमानों के प्रति रूख भी खुलकर साफ़ हो गया. अखिलेश यादव की अगुवाई वाली सरकार को भी मुसलमानों की भलाई के नाम पर सिर्फ़ कागज़ी वायदे ही किए गए. आरक्षण देने से लेकर बेगुनाह मुस्लिम नौजवानों को जेलों से रिहा करने और रोज़गार देने के तमाम वायदे धरे के धरे रह गए. न मुलायम सिंह यादव ने ध्यान दिया और न ही ये सीएम अखिलेश यादव की प्राथमिकताओं में रहा. अब जब चुनाव की तारीख़ों का ऐलान हो चुका है तो पार्टी के दोनों ही धड़े मुसलमानों के इस्तेमाल एक सियासी खिलौने की तरह करने में जुट गए हैं.

हम यहां बताते चलें कि 2012 के विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी ने अपने मैनिफेस्टों में यह वादा किया था कि अगर उनकी पार्टी सत्ता आई तो प्रदेश के मुसलमानों को 18 फीसदी आरक्षण दिया जाएगा. आरक्षण की बात सुनते ही मुसलमानों ने दिल खोलकर सपा को वोट दिया और इसे पूर्ण बहुमत दिलाकर अखिलेश यादव को सत्ता की कुर्सी तक पहुंचा दिया. लेकिन पिछले पांच सालों में मुसलमानों को आरक्षण देने में नाकाम रही. बल्कि यूं कहिए कि आरक्षण देने की बात तो दूर इसके लिए कोई पहल तक नहीं की गई. जानकारों का यह भी आरोप है कि प्रदेश में रंगनाथ मिश्रा और सच्चरकमेटी की रिपोर्टों को भी लागू नहीं किया गया.

यही नहीं, सपा ने 2012 के अपने चुनावी मैनिफेस्टों में इस बात का भी वादा किया था कि जब वो सरकार में आएगी तब आतंकवाद के झूठे आरोप में जेल में बंद बेक़सूर मुसलमान युवकों की रिहाईकरेगी. लेकिन सरकार के 5 साल गुज़र जाने के बाद भी रिहाई की बात तो दूर, बल्कि जो बेगुनाह नौजवान क़ानूनी प्रक्रिया के तहत रिहा हुए, अखिलेश सरकार उनके उस रिहाई के ख़िलाफ़ भी अदालत में चली गई और उनमें से कई युवकों को अखिलेश की पुलिस ने वापस फिर से गिरफ़्तार करके जेल में  डाल दिया. सरकार का यह भी वादा था कि वो आतंकवाद के झूठे आरोपों से मुक्त होने वाले नौजवानों के पुनर्वास के लिए काम करेगी, लेकिन बीते 5 सालों में किसी के भी पुनर्वास किए जाने की ख़बर नहीं मिल सकी है.

सबसे गंभीर बात यह रही कि इस सरकार में मुसलमान हर जगह खुद को असुरक्षित महसूस किया. आंकड़ें बताते हैं कि बीते पांच सालों में पांच सौ से भी अधिक छोटे-बड़े साम्प्रदायिक दंगे राज्य में हुए हैं.

अखिलेश सरकार के वादे बहुत थे, लेकिन कोई भी वादा ज़मीन पर पूरा होता नहीं दिखा. ख़ैर, अब इन सबके बीच सवाल यह है कि क्या मुसलमान इस बार भी इसी सियासी उठा-पटक में उलझा रहेगा? या वो समझदारी के साथ अपने दूरगामी हितों को देखते हुए एक स्वतंत्र फैसला लेगा? दरअसल, मुलायम और अखिलेश की ये लड़ाई ख़ास तौर पर उन मुसलमानों के लिए सबक़ है, जो अपने हक़ व हक़ूक़ को हमेशा से कुछ ख़ास सियासी पार्टियों को गिरवी रखते आए हैं. ये वक़्त उनके जागने और संभल जाने का है.