‘जैसे ही ईद क़रीब आती है, हमारे दिल में चुभन बढ़ जाती है साहब’

आस मुहम्मद कैफ़, TwoCircles.net

सिकरेड़ा /कैथोड़ा (मुज़फ़्फ़रनगर) : मुज़फ़्फ़रनगर से बिजनौर मार्ग पर 36 किमी पर राष्ट्रीय राजमार्ग पौड़ी दिल्ली पर एकदम सटा एक गांव है सिकरेड़ा. 4 साल पहले हुए दंगों की छींटे यहां भी पड़े थे. यहां नदीम नाम के एक नौजवान की हत्या कर दी गई थी, जिसके बाद इस जाट बहुल इलाक़े से क़रीब 25 मुस्लिम परिवार के लोगों को घर-बार छोड़कर भागना पड़ा था.


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यह लोग पास के मुस्लिम बहुल गांव कैथोड़ा में शरणार्थी बन गए. तब से अब तक यह अपना आशियाना तिनका-तिनका जोड़कर यहीं बना रहे हैं. जैसे ही ईद आती है इनकी दिल की चुभन बढ़ जाती है. यह परिवार मज़दूर हैं और उतना ही कमा पाते हैं, जितना खा सके. घर उसी गांव में छूट गया था और सरकार से कुछ मिला नहीं.

45 साल के शराफ़त ने अपनी ज़िन्दगी के 41 साल सिकरेड़ा में गुज़ारे है. वहां उनके पास सबकुछ था. लेकिन अब पिछले 4 साल से ज़िन्दगी जीने के लिए संघर्ष कर रहे हैं.

वो बताते हैं, जब मुज़फ़्फ़रनगर दंगे में हिंसा अपने चरम पर थी तो हमारे गांव सिकरेड़ा में तनाव बढ़ने लगा. गांव जाट बहुल था और 60-70 अल्पसंख्यक समुदाय के लोग वहां रह थे. इन लोगों में दहशत फैलने लगी. ज़्यादातर लोग इन्हीं जाटों के खेतों में मज़दूरी करते थे.

अचानक शराफ़त की आंखें नम हो जाती हैं. वो आगे बताते हैं, ‘हमारे परिवार का ही जवान लड़का नदीम चाकुओं से गोदकर क़त्ल कर दिया गया. तड़ातड़ गोलियां चलने लगी. रात में हम सबको भागना पड़ा. गली मोहल्ले के रास्ते पर ट्रैक्टर और बुग्गी खड़ी की गई थी. हमने सब सामान घर में छोड़ दिया. जंगल के रास्ते भागकर कैथोड़ा में आ गए. हम सबके अपने घर थे, यूं ही छोड़ने पड़े. 

65 साल की ज़ाहिदा कहती हैं कि, ‘घर यहां से 5 किमी दूर है, मगर हमारे लिए सदियों की दुरी है. हम फिर लौट कर कभी नहीं गए.

पास में ही नज़ाकत खड़े हैं. हमारे यह पूछने पर कि क्या उन्हें वहां की याद आती है, इस पर वो कहते हैं कि, ‘बस जब ईद आती है तो कलेजा छिलता है. रमज़ान में नमाज़ वहीं पढ़ते थे. तरावीह भी अब नहीं होती वहां. सब घर छोड़ आएं. बस एक-दो परिवार ही वापस गए, लेकिन हम नहीं गए. हिम्मत नहीं हुई साहब. जो नज़ारा हमने देखा है, उसे हम चाहकर भी नहीं भूल पाते हैं.’

नज़ाकत के ही भाई लियाक़त बताते हैं, पहले यहां हम कैथोड़ा में आकर यहां के प्रधान रहे हाजी अय्यूब की ज़मीन में रहने लगे. कुछ लोग हमारे पास गोदाम में दंगे के दौरान आते थे. मदद के तौर पर कपड़ा और खाना दे जाते थे. लेकिन अब तो कोई नहीं आता.

ज़रीना के मुताबिक़ सबसे बड़ी कुढ़न घर की थी. घर छूट गया. रोटी तो मजदूरी करके ही खा रहे थे. अब मज़दूरी के पैसे तो उतने ही मिलने हैं, इतना में घर ही बहुत मुश्किल से चलता है. बच्चों का स्कूल भी छूट गया.

मगर दंगा पीड़ितों को तो घर बनाकर दिए जा रहे थे? मेरे इस सवाल पर ज़रीना बताती हैं, हाँ! कुछ लोग दंगा पीड़ितों को घर बना कर दे रहे थे. हम 30 परिवार थे. हमारे पास भी आएं और दूसरी जगह एक गांव भंडुर में जाने के लिए कहने लगे. लेकिन हम नहीं गए. इसकी एक वजह यह है कि यहां हमें काम मिल जाता है, मगर वहां काम मिले इसकी गारंटी नहीं थी. और फिर नई जगह, नए लोग… बस हम नहीं जाना चाहते थे. हाजी अनवर कुरैशी की ज़मीन में ही झोपड़ी डालकर रहने लगे, क्योंकि उन्हें कोई ऐतराज नहीं था. आधे लोग हाजी शमशाद की ज़मीन में थे.

शुऐब बताते हैं कि, हम लोगों ने एक दिन शाम में तहरी बनायई थी. सब लोग खाने बैठे थे. अचानक पुलिस आई, झोपड़ी तोड़ने लगे. हम पर पुलिस लाठी मारने लगी. बच्चे भूखे बिलखते रह गए. किसी ने खाना नहीं खाया. कह रहे थे कि सरकार बदनाम हो रही है अपने गांव वापस जाओ. गांव कैसे वापस जाते साहब. कोई खुद मौत के मुंह में थोड़े ही जाता है. हम तो मज़दुर है, यहीं कर लेंगे.

फिर वो आगे बताते हैं कि, एक दिन मौलाना लोग आए थे. हमें घर देने की बात कही. सर्वे भी किया. मगर कुछ दिया नहीं. वो कह रहे थे कि हमारे साथ चलो. 

फिर आप उनके साथ क्यों नहीं गए? इस सवाल पर वो बताते हैं, हमने कहा हम यहां से ज्यादा सुरक्षित कहीं नहीं. उन्होंने कहा मदद चाहिए तो हमारे साथ चलो. हमने कहा हम अल्लाह से मांग लेंगे. यहां शेख जी ने हमे अपनी ज़मीन आधे रेट पर दे दी. कुछ लड़के कैथोड़ा गांव वालों के साथ मिलकर कपड़े की फेरी करने लगे. अब अपने दम पर बिना किसी मदद के आधे लोगों के पास अपने घर हैं. मगर आधे लोग अब भी बेघर हैं. यह जितना कमाते हैं, उतना खा जाते हैं. बचता तो कुछ है नहीं, घर कैसे बना पाएंगे.

नदीम की तस्वीर…

सबसे ज्यादा तकलीफ़ नदीम के परिवार को है. उसके चाचा आशु कहते हैं, नदीम के मरने के बाद जो पैसा मिला वो उसकी ससुराल वालों ने रख लिया. मां-बाप का सब कुछ चला गया. अब वो भंडुर में रहते हैं. हमारे पास आना चाहते हैं. मगर ठेकदार कहते हैं वापस गए तो घर छीन लेंगे. अब क्या कहे, क़िस्मत से भी नाराज़ नहीं हो सकते. लगभग सभी बच्चों का मुस्तक़बिल यहां अंधेरा में है. पेट पालने के लिए यहां छोटे-छोटे बच्चे काम कर रहे हैं.

कैथोड़ा के प्रधानपति हाजी महबूब के मुताबिक़, यहां के मुहाजिरों को कोई सरकारी मदद नहीं मिली. अब उम्मीद है कि इनके घर बने. मगर आधों के पास अपनी ज़मीन भी नहीं है. एक मज़दूर अगर अपनी आधी मज़दूरी भी बचाए तो भी 10 साल में ज़मीन नहीं ख़रीद पाएगा.

ईद की तैयारियों के बारे में पूछने पर 32 वर्षीया महिला शाहीन कहती हैं, आप ही बताईए कि अब कैसे कोई यहां ईद मना लें, यह चौथी है. एक बार भी दिल को सुकून नहीं है. सर पर अगर छत न हो तो दुनिया बुरी लगती है साहब…

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