मोतिहारी में मौलाना अबुल कलाम आज़ाद व बत्तख मियां अंसारी के नाम पर खिलवाड़

अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net

मोतिहारी : जिन महापुरूषों को हमें सर-आंखों पर बैठा कर रखना चाहिए. उनकी स्मृतियों का सरकारी सिस्टम में क्या हश्र होता है, बिहार का पूर्वी चम्पारण ज़िला मुख्यालय यानी मोतिहारी इसका जीता जागता उदाहरण है.


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बल्कि यूं कहें कि मोतिहारी शहर के छतौनी में भारत रत्न मौलाना अबुल कलाम आज़ाद की अधूरी प्रतिमा इसी सरकारी संवदेनहीनता की एक मिसाल बन चुकी है. 

बताते चलें कि आज से क़रीब 14 साल पहले 5 अक्टूबर, 2003 को मोतिहारी शहर के छतौनी इलाक़े में विधायक ऐच्छिक कोष की राशि से तत्कालीन विधायक व मंत्री रमा देवी के ज़रिए मौलाना अबुल कलाम आज़ाद की प्रतिमा लगाने के लिए आधारशिला के निर्माण कार्य का शिलान्यास किया गया.

कड़वी हक़ीक़त यह है कि ये आधारशिला तो तैयार हो गई, लेकिन आज तक मौलाना अबुल कलाम आज़ाद की प्रतिमा स्थापित नहीं की जा सकी है. अब ये आधारशिला भी धीरे-धीरे टूटने के कगार पर है. टूटते हुए पत्थर व प्रतिमा लगाने के लिए बची जगह यहां के बच्चों के खेलने के लिए एक आदर्श स्थान ज़रूर है.

यहां रहने वाले लोगों व बच्चों को भी ये नहीं पता कि मौलाना अबुल कलाम आज़ाद कौन थे. लेकिन वो इतना ज़रूर बताते हैं कि लोग 11 नवंबर और 22 फ़रवरी को जमा होते हैं. आपस में कुछ मीटिंग करके चले जाते हैं.

मोतिहारी के सीनियर पत्रकार अक़ील मुश्ताक़ बताते हैं कि ऐसा नहीं है कि मोतिहारी के लोग मौलाना अबुल कलाम आज़ाद या उनके आधारशिला के इस हालत से अनजान हैं, बल्कि सब लोग इससे बख़ूबी वाक़िफ़ हैं. इस शहर में हर साल मौलाना की जन्म-दिवस और उनकी पुण्यतिथी ज़रूर सेलिब्रेट की जाती है. उनके नाम पर कई प्रोग्राम हर साल होते हैं.

यही कहानी इसी आधारशिला के सामने बनी बत्तख़ मियां स्मृति भवन का भी है. 28 जनवरी 2004 को तत्कालीन विधायक व मंत्री रमा देवी के विधायक ऐच्छिक कोष योजना के अंतर्गत इस भवन का शिलान्यास किया गया. इस अवसर पर केसरिया विधायक मो. ओबैदुल्लाह और पीपरा विधायक सतीश पासवान विशेष तौर पर मौजूद रहें.

इस ‘बत्तख़ मियां स्मृति भवन’ में उर्दू लाइब्रेरी व बत्तख़ मियां अंसारी से जुड़े स्मृतियों को सहेजना था, लेकिन शिलान्यास के बाद भवन तैयार होते ही इसमें सीआरपीएफ़ ने अपना क़ब्ज़ा जमा लिया. पहले काफ़ी सालों तक वो खुद रहें फिर इसे पार्किंग के तौर पर इस्तेमाल करने लगें.

सत्याग्रह शताब्दी वर्ष में जब बत्तख़ मियां के परिवार से जुड़े लोगों और शहर के कुछ सामाजिक व राजनीतिक कार्यकर्ताओं ने इसके लिए आवाज़ उठाई तो इसे इसी साल मार्च-अप्रैल महीने सीआरपीएफ़ ने पूरी तरह से खाली कर दिया है. लेकिन अभी भी ये भवन ऐसे ही विरान पड़ी हुई है. इसमें लाइब्रेरी या बत्तख़ मियां के स्मृतियों को सहेजने की कोशिश दूर-दूर तक कहीं दिखाई नहीं दे रही है.

इस भवन की रखवाली कर रहे शम्सुल होदा को भी नहीं पता है कि अभी यहां क्या बनना है. बस वो इतना ही बताते हैं कि, ‘सुने हैं कि उर्दू लाइब्रेरी बनने वाला था. अब आगे क्या बनेगा. इसकी जानकारी मुझे नहीं है.’

इस लाइब्रेरी के लिए तैयार की गई एक कमिटी के सचिव व वर्तमान ज़िला परिषद जहांगीर आलम बताते हैं कि, फिलहाल हम लोगों ने सीआरपीएफ़ से खाली करवा कर भवन अपने क़ब्ज़े में ले लिया है. अब आगे इरादा इसमें उर्दू लाइब्रेरी के साथ-साथ संग्रहालय खोलने का है, जिसमें बत्तख मियां से जुड़ी चीज़ें रखी जाएंगी. इसके लिए हम लोग सीएम से लेकर डीएम तक सबसे मुलाक़ात कर चुके हैं, लेकिन कहीं कोई उम्मीद की किरण फिलहाल दिखाई नहीं दे रही है. अब आगे जन-प्रतिनिधियों से हम लोगों ने चंदा मांगा है ताकि भवन के चारों ओर चहार-दीवारी तैयार कर दी जाए. 

बताते चलें कि बत्तख़ मियां अंसारी वही वो शख़्स हैं, जिन्होंने 1917 में अंग्रेज़ों के साज़िश के विरुद्ध चम्पारण में गांधी की जान बचाई थी. दरअसल बत्तख मियां अंग्रेज़ों के रसोईया थे. एक दिन जब अंग्रेज़ों ने गांधी को दावत दी तो खाने के बाद दिए जाने वाले में दूध में ज़हर मिला दिया. साथ ही बत्तख़ मियां को धमकी दी कि अगर गांधी को बताया तो हम तुम्हें जान से मार देंगे. इसके अलावा यह लालच भी दिया कि अगर तुमने नहीं बताया तो हम तुम्हें मुंह मांगा ईनाम देंगे. इस दूध को लेकर बत्तख मियां अंसारी गांधी के पास गए. वहां गांधी के अलावा सिर्फ़ राजेन्द्र प्रसाद ही मौजूद थे. ऐसे में गांधी ने जैसे ही दूध पीने के लिए गिलास उठाया तो बत्तख मियां उस गिलास को अपने हाथ से मार कर गिरा दिया. गांधी जी व राजेन्द्र प्रसाद दोनों को काफ़ी गुस्सा भी आया. लेकिन बत्तख़ मियां ने जब सच्चाई बताई तो दोनों बहुत खुश हुए. इस तरह से गांधी जी की जान तो बच गई. लेकिन इसके बदले में अंग्रेज़ों ने बत्तख़ मियां को खूब प्रताड़ित किया.

कहानी यहीं ख़त्म नहीं होती. 2004 में राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव जब रेल मंत्री बने तो उन्होंने बापूधाम मोतिहारी रेलवे स्टेशन के बाहर बत्तख मियां द्वार स्थापित करवाया, जिसे वर्तमान मोदी सरकार के बनते ही हटा दिया गया है.

इसको लेकर स्थानीय लोगों में काफी रोष है. बल्कि जदयू के नेता इसे लेकर प्रदर्शन भी कर चुके हैं. इस प्रदर्शन में पुन: लगवाने के लिए प्रशासनिक स्तर पर पहल की बात के साथ-साथ चम्पारण सत्याग्रह शताब्दी समारोह में बत्तख मियां को उन का हक़ दिलाने का विश्वास भी इन नेताओं ने लोगों को दिखाया है, लेकिन अब तक ज़मीन पर कुछ भी होता दिखाई नहीं दे रहा है.

बत्तख़ मियां अंसारी के परिवार वालों के संघर्ष की एक लंबी दास्तान है. इनके पोतों में शामिल एक पोता कलाम अंसारी कहते हैं कि, मेरे दादा ने गांधी की जान बचाई. इसके लिए उन्होंने भारी क़ीमतें भी चुकाई हैं. लेकिन सरकार इन्हें हर तरह से नज़रअंदाज़ कर चुकी है. उनके नाम पर जो द्वार लालू प्रसाद यादव ने लगाया, वो भी अब गायब है और सरकार उसे दुबारा नहीं लगवा सकी. वही हाल उनके नाम पर बने स्मृति भवन का भी हुआ.

बहरहाल, देश की शिक्षा व्यवस्था को नई धार व नए इरादे देने वाले मौलाना अबुल कलाम आज़ाद की प्रतिमा के नाम पर जो खानापूरी की गई है, वहीं वो बत्तख़ मियां अंसारी जिन्होंने गांधी की जान बचाई और अपना सबकुछ न्योछावर कर दिया, वही मौलाना अबुल कलाम आज़ाद व बत्तख मियां जैसे महापुरूषों की अवहेलना की सरकारी सोच को बेपर्दा करती है. साथ ही एक ही ज़िले में एक ही स्थान पर दो महापुरूषों की स्मृतियों के साथ ये लापरवाही और बदसलूकी बहुत कुछ सोचने पर मजबूर कर देती है.

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