क्या मुसलमान सैय्यद शहाबुद्दीन के सपनों को आगे बढ़ा सकते हैं?

अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net

सैय्यद शहाबुद्दीन का जाना हिन्दुस्तानी मुसलमानों के लिए एक बड़ा झटका है. उनकी शख़्सियत भारतीय मुसलमानों को अपने हक़ के लिए लड़ने और जूझने का एहसास कराती थी. वो उस दौर में मुसलमानों की एक ताक़तवर आवाज़ बने, जब भारतीय मुसलमानों को वाक़ई में ऐसे किसी नेतृत्व की ज़रूरत थी. बेशक़ उम्र के इस पड़ाव में उनकी सरगर्मियां कम हो गई थीं मगर उनका जाना इस बात का एहसास कराता है कि जैसे घर का मुखिया चला गया.


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मेरे लिए उनका जाना निजी नुक़सान है. सभाओं, गोष्ठियों व आयोजनों में अक्सर मुलाक़ातें हुआ करती थीं. आरटीआई व दूसरे अहम मसलों पर काम को लेकर उनसे गुफ़्तगू भी हुई. उनसे आख़िरी मुलाक़ात ऑल इंडिया मुस्लिम मजलिस-ए-मशावरत के दफ़्तर में हुई, जब नए अध्यक्ष नवेद हामिद के शपथ-ग्रहण समारोह में वो शिरकत के लिए आए थे. उनकी तबीयत काफ़ी नासाज़ थी. सांस लेने में तकलीफ़ हो रही थी. मशीन लगी हुई थी. बावजूद इसके वो मुशावरत के शपथ ग्रहण समारोह में पहुंचे. इससे पता चलता है कि मुस्लिम समाज के सवालों पर वह भीतर से कितने गंभीर थे और अक्सर चिंतित रहते थे.

मुस्लिम मसलों के प्रति उनकी संजीदगी और मशावरत में उनकी दिलचस्पी इस क़दर थी कि वे मशावरत के इस प्रोग्राम में तय वक़्त से पहले पहुंच गए थे. बोल सकने में लाचारी के बावजूद वो बड़े गौर और इत्मिनान से सभी को सुन रहे थे. शहाबुद्दीन ख़ुद भी 1979 से 1984 तक ऑल इंडिया मुस्लिम मजलिस-ए-मशावरत के वर्किंग प्रेसीडेन्ट रहे. 1982-85 और 1995-99 में वाइस प्रेसीडेन्ट और 2000-07 और 2010-11 तक प्रेसीडेन्ट के पद पर रहकर काम करते रहे.

जब वो जाने लगे तो मैंने पीछे-पीछे जाकर उनसे बात करने की कोशिश की, मगर वो जवाब देने की हालत में नहीं थे. इसके बावजूद उन्होंने मुझे घर आने का न्योता दिया. मुझे इस बात का गहरा अफ़सोस है कि मैं उनके न्योते का एहतराम नहीं कर सका. और अब ये कभी मुमकिन नहीं हो सकेगा. सैय्यद शहाबुद्दीन सदा के लिए हमसे विदा ले गए.

बिहार के रांची में जन्मे (तब रांची बिहार में ही था) भारतीय विदेश सेवा के अधिकारी रहे शहाबुद्दीन ने सहाफ़त, सियासत और क़ौम की ख़िदमत समेत तमाम क्षेत्रों में अपनी सशक्त मौजूदगी दर्ज कराई. ‘बिहार के नॉटी ब्वॉय’ शहाबुद्दीन की सबसे बड़ी ख़ासियत यही थी कि उन्होंने जिस भी क्षेत्र में क़दम रखा, उसके शीर्ष तक अपने नाम की धमक का अहसास करा दिया. बिहार के किशनगंज से चुनाव जीतकर वो संसद तक पहुंचे. जमकर मुसलमानों की सियासत की. 1989 में उन्होंने खुद की सियासी पार्टी ‘इंसाफ़ पार्टी’ भी बनाई और कामयाब न होने पर उसे एक साल के अंदर ही तहलील भी कर दिया.

सहाफ़त में शहाबुद्दीन अपने गंभीर, दूरदर्शी व शोधपरक लेखों से मुस्लिम समाज की दशा व दिशा को दुनिया के सामने लाने का काम बखूबी अंजाम दिया. सभी इनके क़लम के कायल थे. सच्चर कमिटी की रिपोर्ट ने मुसलमानों के बदहाली की बातें कहीं, उससे बहुत सालों पहले ही शहाबुद्दीन ने चींख़-चींख़ कर अपनी क़लम से दस्तावेज़ों व आंकड़ों के आधार पर ये बातें अपने मैग्ज़ीन ‘मुस्लिम इंडिया’ में कह रहे थे कि मुसलमान कितना बदहाल है. कितना परेशान है. उन्होंने बार-बार ये सवाल किया कि भले ही मुसलमान इतना पढ़ा-लिखा नहीं है कि वो सिविल सर्विसेज़ में जा सके, लेकिन इतना भी कम पढ़ा-लिखा नहीं है कि वो किसी विभाग या दफ़्तर में चपरासी भी न बन सके.

इन सबसे बढ़कर उन्होंने क़ौमी एकता के लिए ज़बरदस्त कोशिशें की. बाबरी मस्जिद एक्शन कमिटी के सदर के तौर पर इस मसले को साम्प्रदायिक दुश्मनी में तब्दील होने से रोकने की पूरज़ोर कोशिशें की, जिसे लेकर क़ौम की तरफ़ से इनके ऊपर कई आरोप भी लगे. लेकिन क़ौमी हितों के लिए उन्होंने हमेशा इस बात पर ज़ोर दिया कि दो समुदायों के बीच किसी भी सूरत में नफ़रत का ज़हर घूलने न पाए.

सैय्यद शहाबुद्दीन के दौर में दंगे बहुत हुए. सच्चाई यह है कि इस दौर में मुसलमानों के हक़ में सबसे अधिक आवाज़ उठाने की कमी महसूस हो रही थी और सैय्यद शहाबुद्दीन उस कमी को धारदार ढंग से पूरा कर रहे थे. सैय्यद शहाबुद्दीन पर सांप्रदायिक और कट्टर होने के आरोप लगे. मगर ज़माना चाहे कुछ भी कहे, सैय्यद शहाबुद्दीन ने कभी भी ऐसी कोई बात नहीं कही, जो मुल्क के संविधान या क़ौमी एकता के खिलाफ़ हो.

उन्होंने सिर्फ़ मुसलमानों के हक़ में बातें कहीं, वो हक़ जो मुसलमानों के जायज़ हक़ थे. लेकिन लोग नतीजे में इन्हें साम्प्रदायिक नेता मानते रहे. लेकिन मेरा मानना है कि किसी को साम्प्रदायिक घोषित करने के पीछे एक पैमाना ज़रूर रखना चाहिए. दरअसल साम्प्रदायिक वो है जो किसी दूसरे मज़हब व क़ौम से नफ़रत रखता है. लेकिन सैय्यद शहाबुद्दीन की 82 साल की ज़िन्दगी में कभी कोई ऐसा लम्हा नहीं आया, जिसमें उन्होंने कभी भी अपने वतन-ए-अज़ीज़ के ख़िलाफ़ कोई बात कही हो. उनके अंदर कभी धार्मिक विद्वेष फैलाने की भावना नहीं रही.

शहाबुद्दीन के इंतक़ाल पर पूरी क़ौम को मलाल है. मगर मुसलमानों के अंदर एक सवाल ज़रूर अक्सर घुमड़ता है कि जिस दौर में सियासत के मैदान में शहाबुद्दीन अपने शीर्ष पर रहे, वो कोई भी ऐसा कारनामा अंजाम नहीं दे पाए, जिससे कि मुसलमानों के हालात में कोई निर्णायक बदलाव आ सके. अब जब शहाबुद्दीन इस दुनिया को छोड़कर चले गए हैं तो ज़रूरत इस बात की है कि उनकी ज़िन्दगी से रोशनी लेते हुए इस दिशा में सोचने की पहल की जाए.

सैय्यद शहाबुद्दीन जैसे शख़्स शताब्दियों में विरले ही होते हैं. हमारी आज की पीढ़ी को उनकी शख़्सियत से सीखने की बेहद सख्त ज़रूरत है. अच्छा रहेगा अगर उनके पढ़े-लिखे को नई पीढ़ी के दिलो-दिमाग़ तक ले जाने की मुकम्मल सूरत तैयार की जा सके. इन्होंने ‘मुस्लिम इंडिया’ नाम की मैग्ज़ीन निकाली थी, जो मुसलमानों के समाज, सियासत और समय तीनों ही पहलुओं का सच्चा आईना थी. इसका अंदाज़ा आप इसी से लगा सकते हैं कि जब उन्होंने इस मैग्ज़ीन को बंद करने का ऐलान किया तो उनके विरोधी विचारधारा के लेखक सुधींद्र कुलकर्णी ने इंडियन एक्सप्रेस में एक लेख लिखकर उनकी क़ाबलियत को सलाम किया था. ऐसे में इस मैग्ज़ीन को दोबारा ज़िंदा करना इस महान रूह को सबसे सच्ची और ईमानदार श्रृंद्धाजलि होगी.

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