चम्पारण के गरीब किसान फिर से सत्याग्रह के मूड में, कल से होगा ‘किसान मुक्ति यात्रा’ के चौथे चरण का आगाज़

अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net

बेतिया (बिहार) : चम्पारण सत्याग्रह शताब्दी वर्ष के सरकारी सेलिब्रेशन से सरकार ने यहां के किसानों को भले ही ग़ायब कर दिया हो, लेकिन इस चम्पारण सत्याग्रह शताब्दी वर्ष में यहां के किसान बड़े आन्दोलन की तैयारी में हैं. 


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गांधी जयंती के अवसर पर जहां एक तरफ़ ‘किसान मुक्ति यात्रा’ के चौथे चरण का आगाज़ हो रहा है, वहीं पश्चिम चम्पारण में भूमि-व्यवस्था के निराकरण के लिए 3 अक्टूबर से गौनाहा प्रखण्ड स्थित भीतिहरवा आश्रम के सामने 100 घंटे के उपवास का भी आरम्भ होगा.

‘अखिल भारतीय खेत व ग्रामीण मजदूर सभा’ के प्रांतीय अध्यक्ष वीरेन्द्र प्रसाद गुप्ता बताते हैं कि, ‘अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति’ के आह्वान पर पूरे देश में चल रही ‘किसान मुक्ति यात्रा’ के प्रति चम्पारण के किसानों ने भी अपनी एकजुटता व्यक्त की है.

वो आगे बताते हैं कि, खेत, खेती, किसान को बचाने के लिए कार्पोरेट राज के ख़िलाफ़ आज जितना किसानों को संघर्ष की ज़रूरत है उतना ही खेत मज़दूरों को भी. कार्पोरेट किसानों के साथ-साथ खेत मज़दूरों को भी लूट रहे हैं.

चम्पारण में चीनी मिलों के कृषि फ़ार्मों में मज़दूरों को न्यूनतम मज़दूरी से आधा से भी कम मज़दूरी देने की बात बताते हुए वीरेन्द्र गुप्ता कहते हैं कि, चीनी मिलें गन्ना किसानों का हर तरह से शोषण कर रही हैं. नीतीश सरकार बटाईदारों को किसान नहीं मान रही है, जबकि खेती की बड़ी जवाबदेही बटाईदार संभाले हुए हैं. उन्हे बाढ़ से बर्बाद फ़सलों का मुआवज़ा न देकर सरकार खेती को नष्ट कर रही है. ।2 हेक्टेयर से अधिक ज़मीन पर हुए फ़सल नुक़सान का मुआवज़ा नहीं देने की सरकार की घोषणा भी खेती को बर्बाद करने वाली है.

वो आगे बताते हैं कि, किसान मुक्ति यात्रा के चौथे चरण की शुरूआत 2 अक्टूबर से सत्याग्रह भूमि चम्पारण के भीतिहरवा से हो रही है, जो मोतिहारी से सीवान होते हुए उतर प्रदेश, उत्तराखंड तक जाएगी. जिसमें यूपी से वी.एम. सिंह, हरियाणा से योगेंद्र यादव और प्रेम सिंह गहलौत, मध्यप्रदेश विधायक डा. सुनीलम, महाराष्ट्र सांसद राजू सेट्टी, पंजाब से रूल्दू सिंह,  उत्तराखंड से पुरूषोत्तम शर्मा  व अन्य राष्ट्रीय किसान नेता आ रहे हैं.

बताते चलें कि भितिहरवा में 9 बजे सुबह से गांधी जी की प्रतिमा पर माल्यार्पण के बाद सभा होगी. सभा के बाद ‘किसान मुक्ति यात्रा’ वहां से प्रस्थान करेगी, जो नरकटियागंज, बेतिया होते मोतिहारी पंहुचेगी.

वहीं आगामी 3 अक्टूबर से पश्चिमी चम्पारण के गौनाहा प्रखण्ड स्थित भीतिहरवा आश्रम के सामने 100 घंटे का उपवास आरम्भ होगा. ये उपवास ‘लोक संघर्ष समिति’ के बैनर तले किया जा रहा है.

‘लोक संघर्ष समिति’ से जुड़े प्रो. प्रकाश श्रीवास्तव बताते हैं कि, पश्चिमी चम्पारण देश के उन चन्द ज़िलों में है, जहां ज़मींदारी प्रथा क़ानूनी तौर पर ख़त्म होने के बावजूद आज भी पूरी तरह मौजूद है. आज भी अनेक भूधारियों के क़ब्ज़े में हज़ारोंहज़ार एकड़ ज़मीन है.

प्रो. प्रकाश का कहना है, 9 मार्च, 2017 को बिहार के मुख्यमंत्री नीतिश ने कुमार कहा था कि ‘इस चम्पारण सत्याग्रह शताब्दी वर्ष में गरीबों को ज़मीन मिलनी चाहिए, अन्यथा शताब्दी वर्ष में होने वाले आयोजन इवेंट बनकर रह जाएंगे.’ लेकिन अभी तक उनके कहे अनुसार कोई ठोस काम नहीं दिख रहा है. पिछले आठ महीनों में एक भी सिलिंग केस का आख़िरी तौर पर फैसला नहीं हुआ है. आज भी पश्चिम चम्पारण के तीन एसडीओ कोर्ट में तक़रीबन 200 सिलिंग संबंधित कैसे धूल फांक रहे हैं. वहीं विस्थापितों के पुनर्वास के लिए भी कोई काम नहीं हो रहा है. लेकिन अब हम लड़ेंगे और गांधी के रास्ते लड़ेंगे.

वो बताते हैं कि, 100 घंटे का ये उपवास 03 अक्टूबर से शुरू होकर 07 अक्टूबर तक चलेगा. 07 अक्टूबर को सभा होगी और उसी सभा में सत्याग्रह की तारीख़ की घोषणा की जाएगी.

बताते चलें कि 1867 ई. में बेतिया राज ने कुछ आर्थिक संकटों के कारण 85 लाख रूपये का क़र्ज़ अंग्रेज़ों के एक प्रतिष्ठान से लिया था. बदले में उन्हें लगभग सवा लाख एकड़ ज़मीन लीज़ पर उन्हें देना पड़ा. इसी ज़मीन पर कालांतर में अंग्रेज़ निलहों की 70 कोठियां स्थापित हो गयीं. इन कोठीवालों ने क़ानून बनाकर किसानों को प्रत्येक बीघा में तीन कट्ठा नील उपजाने के लिये बाध्य किया. नीलवरों के अत्याचार, बढ़ते लगान और अनेक तरह के नाजायज़ टैक्स के कारण किसान बड़े पैमाने पर बेदख़ल होकर मज़दूर बनने के लिए मज़बूर हो गए. 1890 आते-आते नीलवर लगान बढ़ाते गए और किसान उसकी भरपाई नहीं करने के कारण अपनी ज़मीन से बेदख़ल होते गए. यहां के किसानों ने संघर्ष किया. इस संघर्ष की शुरूआत 1906 में साछी गांव से हुआ. शेख़ गुलाब इस संघर्ष की क़यादत कर रहे थे. चम्पारण के किसानों की आन्दोलन के नतीजे में गांधी जी अप्रैल 1917 में चम्पारण आए और महज़ 55 दिनों के शांतिमय लोक-जागरण और क़ानूनी लड़ाई से तीन-कठिया क़ानून समाप्त हो गया. अंग्रेज़ तो कोठियों से गए, लेकिन उनकी ज़मींदारी की ज़मीन को 25 रूपये से 30 रूपये प्रति बीघा की दर से अनेक लोगों ने मूल निवासी का फ़र्ज़ी कागज़ बनाकर खरीद लिया, जो अधिकांशतः बाहर के थे और नये ज़मींदार बन बैठे. जब बिहार में 1970 में सिलिंग क़ानून लागू हुआ, तो ये तथाकथित ज़मीनंदार कोर्ट में चले गए और उन मुक़दमों का फैसला आज तक नहीं हो सका है.

(अफ़रोज़ आलम साहिल ‘नेशनल फाउंडेशन फ़ॉर इंडिया’ के ‘नेशनल मीडिया अवार्ड -2017’ के अंतर्गत इन दिनों चम्पारण के किसानों व उनकी हालत पर काम कर रहे हैं. इनसे [email protected] पर सम्पर्क किया जा सकता है.)

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