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भारतीय न्याय व्यवस्था के समक्ष चुनौती या अवसर

मोहम्मद ईनामुल हक़, TwoCircles.net के लिए

12 जनवरी को भारत की न्यायपालिका में एक ऐतिहासिक घटना सामने आई, जिसमें सर्वोच्च न्यायलय के चार वरिष्ठम न्यायधीशों ने एक प्रेस कांफ्रेंस करके कहा कि, सर्वोच्च न्यायलय के प्रशासन में सब ठीक नहीं चल रहा है.

उन्होंने यह भी कहा कि राष्ट्र एवं इस संस्था के प्रति अपना कर्त्तव्य समझते हुए हमने मुख्य न्यायधीश को ये समझाने की कोशिश की कि आप इसमें सुधारात्मक क़दम उठाएं. दुर्भाग्यवश हमारी ये कोशिश नाकाम रही. इसलिए हमको ये प्रेस कांफ्रेंस करना पड़ा ताकि भविष्य में ये न कहा जाए कि हमने अपनी आत्मा बेच दी.

मुख्य न्यायधीश को लिखे पत्र में उन्होंने कहा है कि, ऐसे ही चलने से न्यायिक कार्य-प्रणाली, उच्च न्यायालयों की स्वतंत्रता एवं सर्वोच्च न्यायालय की प्रशासनिक कार्य प्रणाली पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा.

भारतीय न्यायपालिका के इतिहास में ये अपने तरह का पहला मामला है, जिसमें सर्वोच्च न्यायालय के न्यायधीशों को अपना न्यायिक कार्य बीच में छोड़कर प्रेस कांफ्रेंस करना पड़ा.

न्यायधीशों की इस प्रेस-कांफ्रेंस पर लोगों की दो तरह की राय सामने आईं. जिनमें से एक पक्ष न्यायधीशों की इस प्रेस-कांफ्रेंस को उनका एक साहसिक क़दम बता रहे हैं, वहीं दूसरा पक्ष इस प्रेस-कांफ्रेंस को न्यायिक व्यस्था के लिए बड़ा नुक़सान बता रहा है. कहा जा रहा है कि इससे जनता का सर्वोच्च न्यायलय पर जो विश्वाश बना हुआ है उसमें कमी आएगी.

बहरहाल ये लोगों की अपनी राय हो सकती है और एक बार मामला जनता के बीच आ जाने से हर व्यक्ति या ग्रुप को ये अधिकार है कि वो इसकी व्याख्या अपने अनुसार करे और यही लोकतंत्र का सौंदर्य है. परन्तु जब मामला किसी संस्थान का हो, तब उस मामले में विचार संस्थान के सिद्धांतों के अनुसार करना चाहिए, तभी हम एक बेहतर संस्थान का निर्माण कर सकते हैं.

भारत के संविधान निर्माताओं ने भारतीय लोकतंत्र में मुख्य रूप से तीन स्तंभों का निर्माण किया. तीनों स्तंभों में स्पष्ट शक्तियों के बंटवारे की कोशिश की गई. हालांकि स्पष्ट शक्तियों का बंटवारा लिखित रूप में संभव नहीं है, परन्तु जहां तक संभव हो सकता था उसकी कोशिश की गई.

संविधान निर्माण का कार्य पूरा होने पर डॉ. अम्बेडकर ने कहा था कि संविधान के लिखे जाने मात्र से यह स्पष्ट नहीं हो जाता कि भविष्य में सब बेहतर हो जाएगा, परन्तु ज़रुरत इस बात की है कि संविधान की भावना को ध्यान में रखते हुए आने वाले समय में इन संस्थाओं को स्वयं को तमाम प्रतिमानों पर खरा बनाना होगा और लगातार उनमें निहित सिद्धांतों को जीवंत करना होगा.

ये बात सभी संस्थानों पर बराबर लागू होती है, परन्तु इस लेख का प्रयत्न है कि न्यायपालिका के सन्दर्भ में इसका विश्लेषण किया जाए.

न्यायपालिका को संविधान के प्रहरी के रूप में देखा गया है, और ये महसूस किया गया है कि न्यायपालिका को अपना कार्य ठीक तरह से करने के लिए उसका स्वतंत्र होना अतिआवश्यक है. इसलिए संविधान में न्यायपालिका को पूरी तरह से स्वतंत्र बनाने की कोशिश की गई है.

इसमें न्यायधीशों की नियुक्ति से लेकर न्यायपालिका के प्रशासन को चलाने की पूरी स्वतंत्रता न्यायपालिका के पास है, यहां तक कि न्यायपालिका पर होने वाले व्यय के बजट पर भी संसद को वोटिंग का अधिकार नहीं है और न ही न्यायधीशों को मिलने वाले वेतन एवं भत्तों पर किसी भी तरह की कोई कटौती की जा सकती है.

हालांकि न्यायधीशों की नियुक्ति के बारे संविधान में प्रारंभिक रूप से ये प्रावधान था कि राष्ट्रपति सर्वोच्च न्यायालय की सलाह से न्यायधीशों की नियुक्ति करेगा, परन्तु मौजूदा प्रावधानों में न्यायपालिका की सलाह को न्यायपालिका द्वारा राष्ट्रपति के लिए बाध्यकारी कर दिए जाने से ये शक्ति भी पूरी तरह से न्यायपालिका के पक्ष में हो गई है. अर्थात वर्तमान में न्यायधीशों की नियुक्ति में राष्ट्रपति को कोई विशेष शक्ति प्राप्त नहीं है. 

वहीं दूसरी ओर न्यायधीशों को उनके पद से हटाए जाने वाली प्रक्रिया भी बहुत कठिन है. इस प्रक्रिया को कई बार महाभियोग का नाम भी दिया जाता है. हालांकि संविधान में महाभियोग शब्द का उपयोग केवल राष्ट्रपति को हटाने की प्रक्रिया के लिए किया गया है. इस प्रकार भारत में न्यायपालिका पूरी तरह से स्वतंत्र रूप से अपना कार्य करती है.

अब प्रश्न उठता है कि क्या न्यायपालिका बिना किसी उत्तरदायित्व के अपना काम कर सकती है या ये किसी संस्था के प्रति जवाबदेह है?

न्यायपालिका सीधे तौर पर किसी भी अन्य संस्था के प्रति उत्तरदायी नहीं है. परन्तु यदि न्यायपालिका का कोई न्यायधीश स्पष्ट रूप से संविधान का उल्लंघन करता है या अपने कार्य को करने के अयोग्य पाया जाता है या उस पर कोई संगीन आरोप लगते हैं और जांच में वो पूरी तरह से सही पाए जाते हैं तो संसद द्वारा उसे उसके पद से हटाया जा सकता है.

यह प्रक्रिया बहुत जटिल है क्योंकि उच्च न्यायालय एवं सर्वोच्च न्यायालय के किसी न्यायधीश को पद से हटाने के लिए विशेष बहुमत की आवश्यकता होती है.

न्यायपालिका को किसी अन्य संस्था के प्रति जवाबदेह नहीं बनाए जाने के पीछे की मंशा पर चर्चा करने से आज की स्थिति थोड़ी स्पष्ट हो सकती है.

न्यायपालिका, विशेष रूप से सर्वोच्च न्यायालय एवं उच्च न्यायालय में न्यायधीश के पद पर पदासीन होने वाले व्यक्ति क़ानून एवं न्यायिक प्रणाली के विशेषज्ञ होते हैं. जिस प्रकार उच्च स्तर के शोध कार्यों का किसी पूर्व निर्धारित प्रतिमान पर मूल्यांकन नहीं किया जा सकता है. उसी प्रकार न्यायधीशों की विशेषज्ञता को परखने के लिए किसी वस्तुनिष्ठ सिद्धांत पर आधारित परीक्षा प्रणाली का विकास संभव नहीं हो सका है.

इस तरह के विशेषज्ञ पदों के कार्यों की प्रकृति ही कुछ ऐसी है कि उनके लिए पहले से स्पष्ट तौर पर कोई प्रतिमान नहीं बनाए जा सकते. इसीलिए इन शीर्ष अदालतों पर नियुक्त होने के लिए जिन प्रतिमानों को बनाया गया है, वह उम्मीदवार को परखने के लिए कम बल्कि अपात्रों को आने से रोकने के लिए अधिक हैं.

एक बार न्यायधीश के पद पर नियुक्त होने वाले व्यक्ति की क़ानून के प्रति उनके ज्ञान पर कोई संदेह नहीं किया जा सकता. न्यायपालिका के अंदर ही ऐसी प्रणाली बनाने का प्रयास किया गया है कि न्यायपालिका पर अविश्वास का कोई कारण न बचे.

न्यायधीश के पद को निष्पक्ष बनाने के लिए कुछ प्रावधान किए गए हैं. उन प्रावधानों में ये निहित है कि न्यायधीशों को सेवानिवृत्ति के बाद उन पदों पर नियुक्त नहीं किया जा सकता, जिनकी लालसा उनकी निष्ठा पर प्रश्नचिन्ह लगाए. परन्तु इन सब से परे न्यायपालिका के निष्पक्ष रहने में स्वयं न्यायपालिका द्वारा विकसित की गई कार्य-प्रणाली एवं परंपरा की भूमिका है. क्यूंकि जो प्रावधान संविधान में किए गए हैं वो सिर्फ़ नकारात्मक हैं, जो न्यायपालिका को पक्षपात से रोकने के लिए है.

जबकि किसी भी संस्था को स्वयं को निष्पक्ष साबित करने एवं अपने सिद्धांतों को जीवंत बनाने के लिए कुछ सकारात्मक क़दम उठाने होते हैं. न्यायपालिका के इतिहास को देखते हुए ये स्पष्ट हो जाता है कि न्यायपालिका ने इस काम को बख़ूबी किया है.

न्यायपालिका ने आज़ादी के बाद से अब तक जनता के अधिकारों को बचाने से लेकर कार्यपालिका एवं विधायिका के कार्यों की समीक्षा करते हुए तमाम मामलों में संविधान की आत्मा को ध्यान में हुए रखते हुए फ़ैसले सुनाए हैं, जिससे जहां एक ओर न्यायपालिका की विश्वशनीयता में लगातार वृद्धि हुई है वहीं दूसरी ओर भारत में लगातार लोकतन्त्र मज़बूत हुआ है.

आज भारत में एक नागरिक से लेकर संस्था तक सर्वोच्च न्यायलय में श्रद्धा रखते हुए इस संस्थान को आख़िरी व प्रभावी विकल्प के रूप में देखते हैं. परन्तु चार वरिष्ठतम न्यायधीशों ने अपनी पीड़ा जो मीडिया के सामने आकर रखी. इस घटना के दूरगामी क्या परिणाम हो सकते है ये अभी बहस का मुद्दा है.

ये चार वरिष्ठम न्यायधीश न्यायलय का हिस्सा हैं. ये भी उसी परंपरा से आए हैं जिस परंपरा से सर्वोच्च न्यायलय के अन्य न्यायधीश इस संस्था में पदासीन है.

ऐसा समझना कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी कि उन्होंने अपने बयान में जो कुछ कहा है उससे बहुत ज़्यादा उनके मन में रहा होगा. क्योंकि उन्होंने सिर्फ़ उतनी ही बात कही होगी जितनी की बहुत ज़रूरी है और उनके पद की गरिमा के अनुसार हो.

ये बात भी सच है कि भारत के सर्वोच्च न्यायलय ने अपनी विश्वसनीयता में जितनी अधिक वृद्धि की है उतनी विश्वसनीयता भारत की विधायिका या कार्यपालिका ने नहीं बढ़ाई है. इसलिए न्यायालय पर किसी कम विश्वसनीय संस्था द्वारा कोई प्रश्नचिन्ह लगाने पर प्रश्न उठाने वाली संस्था पर ही प्रश्न खड़ा होने लगता है. ऐसी स्थिति में इस न्यायालय में होने वाली किसी गड़बड़ी को कौन उजागर करेगा?

कोई भी संस्था कितनी ही विश्वसनीय क्यों न हो जाए, उसमें कुछ कमियों के होने की संभावना से पूरी तरह से इंकार नहीं किया जा सकता. हम देख सकते हैं कि जहा एक तरफ़ न्यायपालिका ने अपनी विश्वसनीयता को क़ायम किया, वहीं दूसरी ओर न्यायपालिका पर आरोप भी लगते रहे हैं.

हालांकि न्यायपालिका पर प्रश्नचिन्ह लगाने पर न्यायलय की अवमानना का आरोप न लग जाए, इस डर से खुले तौर पर न्यायालय को किसी नागरिक द्वारा चुनौती देना भी कठिन हो गया है. ऐसे में इन वरिष्ठम न्यायधीशों का जनता के सामने आना इस बात का द्योतक है कि न्यायालय में व्याप्त गड़बड़ी को सुधारने का समय आ गया है.

आख़िर में यहां मुख्य रूप से तीन प्रश्न उठ रहे हैं. क्या यही एक रास्ता बचा था इन न्यायधीशों के पास अपने शिकायत दर्ज कराने का? क्या ये मसला न्यायपालिका की आतंरिक कार्यप्रणाली के तहत ही हल नहीं करना चाहिए था? और जनता के सामने इस बात को लाने से न्यायालय की साख पर बट्टा लगने के अलावा क्या हासिल होगा?

तो हमें ये समझ लेना चाहिए कि जो मुद्दा इन न्यायधीशों ने उठाया है, वो मुद्दा विशेष तौर पर मुख्य न्यायधीश को मिली विवेकाधीन शक्तियों का है. इन विवेकाधीन शक्तियों का प्रयोग यद्यपि मुख्य न्यायधीश अपनी विवेकानुसार करता है, परन्तु उनसे ये उम्मीद की जाती है कि वो इन शक्तियों का उपयोग इस प्रकार करे जिससे कि भारतीय न्यायव्यवस्था और अधिक मज़बूत हो सके.

इसके लिए मुख्य न्यायाधीश को न्यायालय द्वारा दशकों में बनाई गई न्यायिक परंपरा का पालन भी करना चाहिए या कम से कम इतना ध्यान तो अवश्य ही रखना चाहिए कि उनका कोई भी विवेकाधीन फैसला स्वयं न्यायालय द्वारा बनाई गई परंपरा के ख़िलाफ़ न हो. साथ ही इस प्रतिष्ठित पद पर पदासीन व्यक्ति से उसके नैतिक रूप से मज़बूत होने एवं उसका स्वयं के नैतिक अभिकर्त्तव्य को और ऊंचाइयों पर ले जाने की उम्मीद की जाती है. ताकि उसका आचरण एवं कार्य-प्रणाली समस्त न्यायपालिका के लिए एक नज़ीर बन सके और न्यायिक प्रणाली को और अधिक दक्ष एवं विश्वसनीय बनाने में मदद कर सके.

अब चूंकि ये कार्य प्रणाली न्यायालय द्वारा दशकों में विकसित की गई है, इसलिए ये मसला न्यायालय के अंदर ही हल किया जा सकता है. परन्तु यदि मुख्य न्यायधीश अपने सहकर्मियों की किसी सलाह को कोई अहमियत न दे. यहां तक कि उनकी मनमर्ज़ी से न्यायायिक प्रणाली को नुक़सान पहुंचे तो ऐसे में सहकर्मियों का ये दायित्व बनता है कि इस स्थिति से निपटा जाए.

कुछ लोगों का यह भी मानना है कि इस मुद्दे पर राष्ट्रपति या कार्यपालिका से बात की जा सकती थी. प्रथम दृष्टया ये बात ठीक लगती है परन्तु हम जानते हैं कि राष्ट्रपति तक बात ले जाने का अर्थ है कि इस पर कार्यपालिका द्वारा ही कोई निर्णय लिया जाएगा तो कुल मिलाकर कार्यपालिका ही एक मात्र विकल्प है.

लेकिन आरोप के अनुसार मुख्य न्यायधीश विशेष तौर पर राजनीतिक तौर पर संवेदनशील मुद्दों को कुछ विशेष न्यायधीशों की पीठ को भेज देते हैं. ऐसे में सवाल यह है कि ऐसा करने के पीछे मुख्य न्यायधीश की मंशा किसी पोलिटिकल पार्टी विशेष को फ़ायदा पहुंचाने की है या उनका व्यक्तिगत फ़ायदा मात्र है या ये सिर्फ़ मुख्य न्यायधीश का अहंवाद है. इन प्रश्नों के चलते कार्यपालिका से इसमें उचित दख़ल की उम्मीद की जाए ये ज़रूरी नहीं है.

तीसरा प्रश्न ये है कि इस मुद्दे को जनता के सामने लाने से न्यायधीशों को क्या हासिल हुआ? कुछ लोगों का मानना है कि इससे ये मसला तो हल नहीं होगा बल्कि न्यायालय की साख़ कमज़ोर होगी. लोग न्यायालय को अगर पक्षपात वाली संस्था की दृष्टि से देखने लगेंगे तो समस्या ज़्यादा विकराल हो जाएगी.

प्रथम दृष्टया ये तर्क ठीक लगता है और तमाम संभावनाओं में से ये भी एक संभावना है. इसलिए दावे के साथ इस संभावना को नकारा नहीं जा सकता. परन्तु सच्चाई ये है कि अभी गेंद न्यायालय के पाले में है. वो जैसी चाहे वैसी तस्वीर खींच सकते हैं.

विश्वसनीयता कोई पत्थर की ईमारत नहीं है कि इसको एक बार खड़ा कर दिया जाए तो ये हमेशा उसी तरह खड़ी रहेगी. हालांकि पत्थर की ईमारत में भी कुछ अपरदन होता रहता है.

विश्वसनीयता को समय के साथ बार-बार परीक्षाओं से गुज़ारना होता है और हर बार खुद को पुनर्निर्मित करना पड़ता है. लोकतान्त्रिक संस्थाओं को भी अपनी विश्वसनीयता को बार-बार पुनर्निर्मित करना चाहिए.

लोकतान्त्रिक संस्थाएं कोई धार्मिक संस्था नहीं है कि जिसकी विश्वसनीयता को एक बार क़ायम करने के बाद उस पर कोई प्रश्न नहीं उठ सकता या उनको दुबारा अपनी विश्वसनीयता को साबित नहीं करना पड़ेगा. बल्कि इसके उलट लोकतान्त्रिक संस्थाओं को समय-समय पर अपनी विश्वसनीयता को साबित करना होता है और ये स्थापित करना होता है कि वो सिद्धांत जिन पर ये संस्था क़ायम है, वो जीवंत रूप में उस संस्था में कार्यरत है.

लोकतान्त्रिक संस्थाओं के सिद्धांत धर्म की किसी ईमारत में कहीं कोने में सजी हुई निष्प्राण किताब की तरह नहीं है, बल्कि न्यायालय के सिद्धांत अपने जीवंत और सर्वाधिक सक्रिय रूप में इस संस्थानों की आत्मा बन के रहते हैं.

इसलिए आज हमारी न्यायपालिका के हाथ में ये मौक़ा है कि वो उनमें उजागर की गई सब कमियों को दूर करके एक नई सुगंध के साथ पुनः पहले से अधिक विश्वसनीय संस्था के रूप में उभरे. इस काम से मौजूदा मुख्य न्यायधीश का नाम इतिहास के पन्नो में दर्ज हो सकता है. इसलिए इस समय संस्थान की विश्वसनीयता को संवारने के सभी मौक़े न्यायालय के पास हैं. यदि न्यायालय इस पर कोई सकारात्मक सुधार नहीं करता है तो विश्वसनीयता गिरना लाज़िमी है.

(लेखक जेएनयू में रिसर्च स्कॉलर हैं. इन्हें [email protected] पर सम्पर्क किया जा सकता है.)