अफ़रोज़ आलम साहिल, Twocircle.net
पटना: समानता की बात करते हमारे लोकतंत्र में ऐसी कई असमानताएं हैं कि सुनकर हैरानी ही होती है. जेल में बंद रहकर चुनाव लड़ने और चुनाव जीतने का बड़े-बड़े नेताओं का अच्छा-खासा रिकार्ड रहा है लेकिन यदि एक क़ैदी इस अधिकार का इस्तेमाल करना चाहे तो नहीं कर सकता. शायद इसके लिए लोकतंत्र में कोई गुंजाइश नहीं है.
‘नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो’ के अब तक के उपलब्ध आंकड़े बताते हैं कि बिहार के 57 जेलों में 31259 (अब यह संख्या घट या बढ़ भी सकती है) क़ैदी बंद हैं, जो इस बिहार चुनाव में वोट नहीं कर सकेंगे.
बिहार में क़ैदियों के अधिकार के लिए काम कर रही एडवोकेट सविता अली का कहना है, ‘ये बात कितनी हास्यास्पद है कि जेल में रहकर आप चुनाव तो लड़ सकते हैं, लेकिन आपको वोट देने का अधिकार नहीं है. ये जेल में रहने वाले नागरिकों के अधिकारों का हनन है.’
हालांकि वो बताती हैं कि चुनाव के समय कई अपराधियों को निषेधात्मक हिरासत में लिया जाता है. सिर्फ उन्हें पोस्टल वोटिंग का अधिकार है लेकिन पोस्टल वोटिंग की प्रक्रिया की पेचीदगी के कारण ही शायद वे इस अधिकार का इस्तेमाल कर पाते हैं. ज्ञात हो कि बिहार में निषेधात्मक हिरासत में लिए गए लोगों की संख्या भी हज़ारों में होती है.
बताते चलें कि चुनाव से पहले हिरासत में लिए गए क़ैदी चुनाव आयोग के नियमानुसार डाक मत-पत्रों द्वारा मतदान कर सकते हैं. इसके लिए उन क़ैदियों को एक फार्म भरना होता है, जिसमें वो वोट करने की इच्छा ज़ाहिर करते हैं.
मानव अधिकार कार्यकर्ता मो. आमिर ख़ान का कहना है, ‘हर कामयाब नेता के पीछे जेल का हाथ होता है. देश ही नहीं, पूरी दुनिया में कई अहम लोग जेल में बंद होने के बाद ही नेता बने हैं.’
आमिर अपने जेल के दिनों को याद करते हुए बताते हैं, ‘जब जेल से बाहर की दुनिया में चुनाव का मौसम आता था तो हम जेल के क़ैदी बहुत विचार करते थे कि हमें वोट देने का अधिकार क्यों नहीं? हमारे दिल में यह सवाल बार-बार आता था कि जब जेल से चुनाव लड़ा जा सकता है तो फिर हम क्यों वोट देने के अधिकार से वंचित हैं. आखिरकार यह हमारा संवैधानिक अधिकार है.’
आमिर आगे बताते हैं कि जेल के अंदर उनके जैसे कई क़ैदी चुनाव को लेकर काफी जागरूक थे. वे कहते हैं, ‘हम अक्सर अख़बार में छपी ख़बरों व राजनीतिक दलों के वादों-दावों व मैनिफेस्टो पर बहस भी करते थे. क़ैदियों को वोट देने के अधिकार पर हमारी व अदालतों को ज़रूर सोचना चाहिए लेकिन साथ ही यह भी सुनिश्चित करना होगा कि जेल से मतदान निष्पक्ष तरीक़ों से हो, क्योंकि जेल में उन्हीं की चलती है जो दबंग, शक्तिशाली या किसी पार्टी के नेता हैं.’
‘एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफार्म’ से जुड़े सेवानिवृत्त मेजर जेनरल अनिल वर्मा सवालिया लहज़े में कहते हैं, ‘हमारे देश में ऐसी कौन-सी संस्था है जो खुद अपनी तनख्वाह तय करती हो? ऐसी कौन-सी संस्था है जिस पर कोई क़ानून लागू नहीं होता हो? जवाब होगा – पॉलिटिक्स. आपको जानकर हैरानी होगी कि देश में हर आम आदमी के लिए क़ानून है, लेकिन राजनीतिक दलों के लिए कोई क़ानून नहीं है. ये खुद को आरटीआई के दायरे में लाना भी नहीं चाहते. इन्होने सुप्रीम कोर्ट के आदेश तक की कोई परवाह नहीं की. ऐसे में यह समझना गलत नहीं होगा कि हमारे देश में क़ानून के पैमाने नेताओं व आम आदमियों के लिए अलग-अलग हैं. ऐसा नहीं होना चाहिए. सबके लिए समान अधिकार होने चाहिए.’
स्पष्ट रहे कि 2014 में यौन शोषण प्रकरण में देहरादून के जेल में बंद निलम्बित संयुक्त सचिव एसएस वल्दिया ने सीईओ राधा रतूड़ी को पत्र भेजकर वोट डालने की अनुमति मांगी थी. वल्दिया का तर्क था कि संविधान वोट का अधिकार देता है लेकिन इस मामले में आईजी जेल ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि आरपी एक्ट-1951 की धारा 62(5) के तहत यदि कोई व्यक्ति जेल में बंद है, वह सजायाफ्ता या अंडरट्रायल क़ैदी हैं, तो उसे वोट डालने का अधिकार नहीं है. हालांकि सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस ए.के. पटनायक और जस्टिस एस.जे. मुखोपाध्याय की बेंच ने अपने एक फैसले में कहा था कि संविधान के आर्टिकल-326 के तहत जो भी भारतीय है उसे वोट देने और चुनाव लड़ने का हक़ है. जो लोग संविधान के तहत अयोग्य नहीं हैं, वे चुनाव में वोटिंग कर सकते हैं और चुनाव लड़ सकते हैं.
क़ैदियों का अपना लोकतंत्र है. किसी क़ैदी को भले ही वोट देने का अधिकार न हो लेकिन जेल से चुनाव लड़ने का पूरा अधिकार है. हालांकि पटना हाईकोर्ट ने अपने एक फैसले कहा था कि जेल या पुलिस कस्टडी में रहने वाला शख्स चुनाव नहीं लड़ सकता. पटना हाई कोर्ट के इस फ़ैसले को बरक़रार रखते हुए 10 जुलाई 2013 को सुप्रीम कोर्ट ने भी अपने एक फ़ैसले में स्पष्ट तौर पर कहा था कि जेल और पुलिस कस्टडी में रहने वाले शख्स को वोटिंग का अधिकार नहीं है, ऐसे में उन्हें चुनाव लड़ने का भी अधिकार नहीं है.
जेल से भी लड़ सकते हैं चुनाव
लेकिन इस फ़ैसले के कुछ ही दिनों बाद सुप्रीम कोर्ट ने संसद के जन-प्रतिनिधित्व कानून में संशोधन को मंजूरी दे दी. इस संशोधन में जेल में बंद नेता चुनाव लड़ सकते हैं. लोकसभा ने सितम्बर में जन-प्रतिनिधित्व (संशोधन व मान्यकरण) बिल 2013 को सिर्फ 15 मिनट की बहस के बाद ही पास कर दिया गया था. हालांकि फरवरी 2015 में एक बार फिर सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा और पीसी पंत ने 97 पेज के अपने एक फ़ैसले में कहा है कि आपराधिक पृष्ठभूमि का खुलासा नहीं करने वाले उम्मीदवारों को अयोग्य ठहराया जा सकता हैं.
आंकड़े बताते हैं कि उत्तर प्रदेश के पिछले 16वें विधानसभा चुनाव में 69 प्रत्याशियों ने जेल से ही चुनाव लड़ा था. अभी हालिया बिहार विधान परिषद चुनाव में रीतालाल यादव ने बेउर जेल से स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़कर अपनी जीत दर्ज की है.