अफ़रोज़ आलम साहिल, Twocircles.net
फ़िल्म ‘शोले’ की याद आते ही ‘बसंती’ की याद खुद बखुद आ जाती है. लेकिन सवाल यह है कि बसंती तांगे वाली याद है तो तांगा कैसे ज़ेहन से उतर गया? कभी शान की सवारी कहलाने वाला तांगा आज न सिर्फ अपनी पहचान बल्कि अस्तित्व को भी पूरी तरह से खो चुका है. लेकिन इस बार होने वाले बिहार विधानसभा चुनाव में राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव के ‘तांगा प्लान’ ने फिर से इस विलुप्त हो चुके तांगे को फोकस में ला दिया है.
मैं इन दिनों गांधी के सत्याग्रह की भूमी ‘चम्पारण’ में हूं. कहा जाता है कि जब पहली बार गांधी कलकत्ता से चम्पारण आए थे, तो बेतिया में आज़ादी के दीवानें गांधी को रिसीव करने बेतिया स्टेशन गए और गांधी को वहां से तांगे पर बैठा कर हजारीमल धर्मशाला लाया गया. फर्क यह था कि जिस तांगे में गांधी बैठे थे, उसे घोड़े की जगह आज़ादी के दीवाने खींच रहे थे…
लेकिन यह सब अतीत की बातें हैं. समय के साथ सब कुछ बदल गया है. बिहार का यह चम्पारण ज़िला भी काफी बदल चुका है. तांगे के बदले लोग टेंपो व मोटरगाड़ी का प्रयोग कर रहे हैं. इस कारण तांगे वालों की हालत खस्ता हो गई है. हालांकि सड़कों पर घोड़े की टाप अभी भी कहीं-कहीं सुनाई देती है, लेकिन तांगे वालों का जो रूतबा पहला था, अब वो नहीं रहा. लेकिन एक बार फिर इन तांगे वालों को उम्मीद है कि कम से कम नेताओं ने ही इस्तेमाल शुरू कर दिया तो उनके ज़िन्दगी पर फ़र्क ज़रूर पड़ेगा.
तांगा चलाने का पेशा छोड़ चुके अब्दुल करीम व जितेन्द्र गद्दी का कहना है कि कम से कम लालू प्रसाद यादव ने हमें याद तो किया. हालांकी अभी तक चम्पारण में कोई भी नेता तांगे पर चुनावी प्रचार करते हुए मिला नहीं है और न ही किसी ने हम लोगों से तांगे के लिए सम्पर्क किया है. हमारी ज़िन्दगी जहां थी, अब भी वही है.
लेकिन दिल में यह उम्मीद ज़रूर है कि हमारे भी अच्छे दिन आएंगे. शुक्रिया लालू जी! आपने तांगे को फिर से जिंदा कर दिया…
तांगा चालक मो. लतीफ कहते हैं कि पहले लोगों को जल्दी नहीं होती थी, हमें उचित किराया भी मिल जाता था. पर क्या करें जब से शहर में टेम्पों चला है तब से घोड़े का खर्च निकालना भी मुश्किल हो गया है. भोला राम मायूस होकर बताते हैं कि अब तो किसी दिन बोहनी भी नहीं होती. रमेश कुमार कहते हैं कि गरीबी के कारण पढ़ाई लिखाई छोड़कर तांगा चलाने को विवश हैं, पर अब लोग पैसे देने की बात तो दूर उचित सम्मान भी नहीं देते.
वर्षों तक तांगा चलाकर जीवन यापन करने वाले अब बेकार हो गये हैं. उनके पास अब कोई दूसरा काम भी नहीं है. आलम यह कि अब उन्हें दो जून की रोटी जुटाने में भी कठिनाई हो रही है. जबकि कभी इसी से उनके परिवारों की जिंदगी संवरती थी. तब लोग तांगे की सवारी शान से करते थे. पर अब तेज़ रफ्तार जिंदगी में तांगा पीछे छूट गया है.
चम्पारण के एक स्थानीय बुजुर्ग मो. रसूल बताते हैं कि तांगा गाड़ी हमारी एक ऐतिहासिक धरोहर है, औऱ ऐसा न हो कि विकास के इस अंधी जंग में हमारी यह धरोहर इतिहास के पन्नों में शामिल हो जाए. स्थानीय पत्रकार पवन कुमार पाठक बताते हैं कि पिछले दिनों पटना जंक्शन के परिसर में पिछले 85 वर्षों से खड़े खूबसूरत तांगा पड़ाव को महज दो घंटे में जमींदोज कर दिया गया. और आज वहां मोटरगाड़ियां लगती हैं. जबकि अंग्रेज यात्री इसी रास्ते का प्रयोग करते थे और तांगे या बग्घी पर सवार होकर अपने गंतव्य पर जाते थे. किन्तु तब वहां बग्घियों के लिए कोई पड़ाव नहीं था. महाराज दरभंगा सर रामेश्वर सिंह ने ज़मीन खरीद कर पटना जंक्शन के परिसर में इस पड़ाव का निर्माण करवाया. इसके छत में लगनेवाली खूबसूरत लाल टाईल, इलाहाबाद की जगमल कंपनी से मंगवाई गयी थी.
यह कंपनी टाइलें बनाने के लिए मशहूर थी. यह बहुत ही खूबसूरत पड़ाव बना था. सन् 1928 के नवम्बर महीने में लार्ड इरविन के हाथों इस पड़ाव का उद्घाटन करवाया गया था.
बिहार के तमाम तांगे वालों की पीड़ा यह है कि बिहार सरकार ने बहुत सारी योजनाओं की उदघोषणाएं की हैं पर इनके उत्थान के लिए कोई योजना नहीं बनाई गई है. इनके अनुसार इन लोगों को उम्मीद है कि आज नहीं तो कल सूबे के मुखिया की नज़र इन पर पड़ेगी और इनके घावों पर भी मरहम लगेगा.
वक्त की रफ्तार में तांगा भले ही पीछे रह गया है लेकिन आज भी यह ग्रामीण क्षेत्रों में यातायात का महत्वपूर्ण साधन है और यदि तांगे को बचाने के लिए बिहार में भविष्य में सरकार की ओर से कोई विशेष स्कीम आई तो इसका अस्तित्व बचाया जा सकता है.
स्पष्ट रहे कि बीजेपी के हाईटेक चुनाव प्रचार के जवाब में वोटरों को लुभाने के लिए राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव ने ‘तांगा प्लान’ बनाया है. बकौल लालू प्रसाद चुनाव प्रचार के लिए 1000 तांगा उतारा जाएगा. इसके लिए पार्टी की राज्य इकाई को तांगा हायर करने के लिए भी कह दिया गया है.
हालांकि लालू यादव के इस ऐलान के बाद पेटा (पीपल फॉर द एथिकल ट्रीटमेंट ऑफ ऐनीमल्स) और एनिमल वेल्फेयर पार्टी (एडब्ल्यूपी) ने इस फैसले का विरोध किया है. वो घोड़ों से चलने वाले तांगे के प्रयोग पर रोक लगाए जाने के लिए ज़रूरी कार्रवाई को लेकर चुनाव आयोग और प्रधानमंत्री कार्यालय को पत्र लिख चुके हैं.
अब आगे इस मामले को लेकर अदालत में जाने की भी तैयारी चल रही है. क्योंकि पिछले महीने मुंबई हाई कोर्ट ने घोड़ों की मदद से खींची जाने वाली गाड़ियों पर, जिसे आमतौर पर मुंबई शहर में ‘विक्टोरिया’ के नाम से बुलाया जाता है, रोक लगाने के हुक्म दिया है.
इसके विपरित बिहार और उत्तर प्रदेश के कई छोटे-छोटे कस्बों में तांगा आज भी चलता है. टूरिस्ट स्थलों पर भी अक्सर तांगा दिख जाता है, लेकिन जिंदगी की सड़क से यह गायब हो गया है.