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उत्तर प्रदेश सरकार, भ्रष्ट न्यायाधीश और नूर सबा की जंग

अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net

नई दिल्ली: समाज में इंसाफ़ और क़ानून व्यवस्था साथ-साथ चलते हैं. इसलिए जहां इंसाफ़ नहीं होगा, वहां विद्रोह होना कोई बड़ी बात नहीं है.

उत्तर प्रदेश के रामपुर की 73 साल की विधवा नूर सबा की कहानी भी कुछ ऐसी ही है. 36 सालों से नूर सबा इंसाफ़ के लिए संघर्ष कर रही थीं, लेकिन जब इंसाफ़ के सारे रास्ते लगभग बन्द हो गए, तब उन्होंने बग़ावत का रास्ता अपना लिया है.


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पद्मश्री सहित राष्ट्रपति द्वारा उत्कृष्ट सेवा पदक व कई राष्ट्रीय एवं राज्य स्तरीय पुरस्कारों से सम्मानित शिक्षक एवं शिक्षाविद मसूद उमर ख़ान की विधवा और जामिया मिल्लिया इस्लामिया के संस्थापकों में शामिल रहे जस्टिस सरदार वली खान की बहु नूर सबा बीते 19 नवम्बर, 2015 से अपने ऊपर हुए ‘न्यायिक आतंकवाद’ के विरूद्ध दिल्ली के जंतर-मंतर पर अनिश्चितकालीन धरने पर बैठी हैं.


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इससे पूर्व अप्रैल में नूर सबा का यह मामला जदयू राज्यसभा सांसद अली अनवर संसद में भी उठा चुके हैं. तब नूर सबा की दास्तान को सुनकर पूरी सदन हैरान रह गयी थी. सरकार की ओर से वित्त मंत्री अरुण जेटली ने यह भरोसा दिलाया कि वे इस मसले पर यूपी के मुख्य सचिव को पत्र लिखकर यह सुनिश्चित करेंगे कि नूर सबा के इंसाफ़ में अब और देरी न हो.

दरअसल, नूर सबा का आरोप है कि उनके पति मसूद उमर खान रामपुर के गवर्मेंट पब्लिक स्कूल में प्राचार्य के पद पर कार्यरत थे, जिनका सेवानिवृत्ति वर्ष 1994 था. लेकिन उनका देहांत 1980 में ही हो गया. पति के मृत्यु के बाद वह अपने पति की पेंशन, ग्रेच्यूटी, इनश्योरेन्स इत्यादि के लिए सरकारी विभागों के चक्कर काटने लगीं, लेकिन सरकारी अधिकारियों ने उनसे रिश्वत की मांग की, जिसे नूर सबा ने देने से इंकार कर दिया. इंकार करने के बाद सरकारी अधिकारियों ने कागज़ों में उनके पति को सरकारी प्रिसिंपल के बजाए प्राईवेट स्कूल का प्रिसिंपल बताने लगे.


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नूर सबा 17 सालों तक यूपी के सरकारी दफ़्तरों का चक्कर काटती रहीं. लेकिन कोई फ़ायदा हासिल न हुआ तब उन्होंने इलाहाबाद हाईकोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया. लंबी कार्यवाही के बाद 2008 में हाईकोर्ट ने फ़ैसला नूर सबा के पक्ष में दिया और साथ ही सरकार को निर्देशित भी किया परंतु सरकार ने उस पर कोई कार्यवाही नहीं की. तब नूर सबा ने सुप्रीम कोर्ट की शरण ली.

नूर सबा का आरोप है कि राज्य सरकार ने खुद के बचाव के लिए सुप्रीम कोर्ट में झूठे आदेश और दस्तावेज़ों का सहारा लिया, जो झूठा साबित हुआ और माननीय सुप्रीम कोर्ट ने भी नूर सबा के पक्ष में ही आदेश दे दिया. लेकिन इसके बाद भी प्रदेश सरकार ने इस आदेश पर कोई कार्यवाही नहीं की और नूर सबा को किसी भी प्रकार की कोई आर्थिक सहायता नहीं मिली.

नूर सबा ने दोबारा सुप्रीम कोर्ट में इस सम्बन्ध में एक केस दाखिल किया. लेकिन नूर सबा आरोप लगाती हैं कि इस बार तत्कालीन बेंच ने प्रदेश सरकार के दिखाए कागज़ातों के आधार पर नूर सबा के विरुद्ध फैसला दे दिया. इसके बाद उन्होंने इसकी शिकायत राष्ट्रपति महोदय से की और सम्बंधित बेंच के तीनों जजों के खिलाफ़ मुक़दमे की मांग की. राष्ट्रपति ने 15 पत्र इस सम्बन्ध में जारी किये हैं. साथ ही सम्बंधित न्यायाधीशों के विरुद्ध मुक़दमा दर्ज करवाने का आदेश भी दिया है, परंतु अभी तक मुक़दमा दर्ज नहीं हुआ है.

नूर सबा इसे ‘न्यायिक आतंकवाद’ मानती हैं और उक्त तीनों न्यायाधीशों को गिरफ्तार करना चाहती हैं. अपने इसी मंशा के तहत 27 नवम्बर को नूर सबा अपने अधिवक्ता बेटे आबिद और मुम्बई की विख्यात समाजसेविका सोनिका क्रांतिकारी व उनके पति के साथ जंतर-मंतर से सुप्रीम कोर्ट की तरफ़ आगे बढ़ने ही वाली थी कि दिल्ली पुलिस ने उनको आगे जाने से रोक दिया गया.

नूर सबा कहती हैं कि जब उन्होंने अपने इंसाफ़ के लिए आवाज़ उठाना शुरू किया तो हक़ व इंसाफ़ के बदले उन्हें जजों और भ्रष्ट अधिकारियों से पंगा न लेने की धमकी मिलने लगी. उनका आरोप है कि उनकी आवाज़ दबाने के लिये रामपुर ज़िला न्यायालय के चीफ़ न्यायिक मजिस्ट्रेट व खरीदे गये लोकल गुंडों द्वारा उन्हें सिविल व क्रिमनल के झूठे मुक़दमों में फंसाया गया. गुण्डों के ज़रिए उनके घर को नाजायज़ रजिस्ट्री करवाकर छिनवाया गया. उनके घर में लूट करवाई गयी. मजिस्ट्रेट के फ़र्जी हस्ताक्षरों से आदेश जारी करवाते हुए उनके ऊपर 307 का मुक़दमा दर्ज करवाया गया. इतना ही नहीं, इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा मामले की न्यायिक जांच करवाये जाने के बाद भी ज़िला जज रामपुर द्वारा यूपी सरकार के अधिकारियों के दबाव में गुण्डों के खिलाफ़ कोई भी कानूनी कार्यवाही नहीं की गई.

नूर सबा बताती हैं कि अगर अब भी इंसाफ़ नहीं मिला तो वे जल्द ही अपने पति को मिले सारे पुरस्कार राष्ट्रपति भवन के सामने जला देंगी. साथ ही अपने साथ होने वाले नाइंसाफ़ी की पूरी दास्तान को लिखकर 22 देशों के राष्ट्रपति को उन देशों के एम्बेसी के ज़रिए भेजेंगी.

उनका कहना है, ‘मेरे साथ होने वाले इस नाइंसाफ़ी ने न सिर्फ इंसानियत बल्कि कानून व संविधान दोनों को शर्मसार कर दिया है. देश में कानून व न्यायिक शक्तियों को ब्लैकमेल के हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है. ऐसे में जब मेरे सामने इंसाफ़ के सारे रास्ते बन्द हो चुके हैं तब मैंने जुल्म के खिलाफ़ बगावत का रास्ता अपनाया है और मेरी इस लड़ाई में ऐसे कई लोग शामिल हो गए हैं जो ‘न्यायिक आतंकवाद’ के शिकार से परेशान हैं.’ नूर सबा आख़िर में यह भी कहती है, ‘हमें अपने देश के संविधान पर पूरा भरोसा है, मगर भ्रष्ट न्यायाधीशों पर नहीं… लेकिन हम ईमानदार न्यायाधीशों की इज्ज़त करते हैं.’