By अविनाश चंचल
पिछले हफ्ते रामाशंकर यादव विद्रोही नहीं रहे. पिछले मंगलवार यूजीसी के खिलाफ छात्रों के एक विरोध प्रदर्शन में जाते हुए उनका निधन हुआ. वे ज़ाहिरा अर्थों में जनकवि थे. जनता के सुख-दुख और लड़ाईयों में साझा रहने वाले कवि के रूप में उन्हें याद किया जायेगा. रमाशंकर यादव भारतीय परंपरा के एक विद्रोही कवि थे और यह भारतीय परंपरा कबीर और रैदास की उज्जवल परंपरा है, जिसने समय-समय पर समाज की बुराईयों, रुढ़ियों को तोड़ने का प्रयास किया है.
विद्रोही की कविता मौखिक कविता की परंपरा है. कबीर की तरह वे भी लिखते नहीं थे, बल्कि कहते थे और इतनी ताक़त और दम लगाकर कहते थे कि सुनने वाला श्रोताओं को एक-एक कहा गया शब्द ‘ठक’ से जाकर लगता था. उनकी कविता का संसार सिर्फ भारतीय समाज नहीं था बल्कि उनकी चिंताओं में पूरा देश और दुनिया की चिंताएँ शामिल थीं, वे चिताएँ मानव जाति को बचाने की चिंता थी, वे मुनाफाखोर संस्कृति के खिलाफ, लूट, भ्रष्टाचार, गरीबों के शोषण के खिलाफ व्यक्त की गयी चिंताएं थीं. विद्रोही की कविताओं में मोहनजोदड़ों भी था तो इजरायल भी और समाज का क्रुर जाति व्यवस्था भी. उनकी कविताओं में जली हुई औरत का दर्द था तो भारत-पाकिस्तान बंटवारे में फंस गए नूर मियां भी. उनकी कविताओं का पात्र हवा-हवाई कोई काल्पनिक नायक नहीं थे बल्कि लोक जीवन और यथार्थ की खुरदुरी जमीन पर टिके पात्र उनकी कविताओं के नायक थे और काव्य विषय भी. भगवान के नाम पर हो रही धंधेबाजी के खिलाफ विद्रोही कहते हैं, “मैं किसान हूँ/आसमान में धान बो रहा हूँ/कुछ लोग कह रहे हैं कि पगले! आसमान में धान नहीं जमा करता/मैं कहता हूँ पगले!/अगर ज़मीन पर भगवान जम सकता है/तो आसमान में धान भी जम सकता है/और अब तो दोनों में से कोई एक होकर रहेगा/या तो ज़मीन से भगवान उखड़ेगा/या आसमान में धान जमेगा.”
भारतीय समाज और खासकर, हिन्दी साहित्य में अभिजात्य का कब्जा हमेशा से रहा है. विद्रोही ने अपनी कविताओं में उस अभिजात्यपन को तोड़ने का प्रयास किया. इस क्रम में पूरे अभिजात्य समाज से उतनी ही प्रताड़ना भी मिली. प्रताड़ित करने वाला यह अभिजात्य समाज किसी एक धारा का नहीं था. इसमें समाज के सामंत तो हैं ही, बल्कि हिन्दी साहित्य के सामंत भी शामिल हैं. ये सामंत किसी बड़े विश्वविद्यालयों में प्रगतिशील प्रोफेसर का चोला ओढ़े है तो किसी बड़े साहित्यिक संस्थान में जनवादी आलोचक बना बैठा है. जनकवि विद्रोही को सत्ता के हर खेमे ने उपेक्षित किया और ऐसा स्वाभाविक ही था क्योंकि विद्रोही जिस प्रतिरोध की संस्कृति और कविता के गायक थे, उसकी चिंता निजी नहीं थी बल्कि पूरा समाज और हाशिये पर धकेल दिया गया मानव संसार उनकी चिंता के केन्द्र में है. उनकी कविता का मूल स्वर प्रतिरोध का स्वर है, वे कहते हैं, “मेरा सर फोड़ दो, मेरी कमर तोड़ दो, पर ये न कहो कि अपना हक़ छोड़ दो”. लेकिन अफ़सोस खुद शोषण और हाशिये पर धकेल दिये समाज कि चिन्ता करने वाले कवि को अभिजात्य समाज ने उपेक्षित किया.
रमाशंकर यादव अस्सी के दशक में जेएनयू के प्रतिभाशाली छात्र थे, जिसे हिन्दी साहित्य में शोध करने के लिये देश के बड़े विश्वविद्यालय में दाखिला मिला था. लेकिन एक पिछड़े परिवार से आने की वजह से शायद जेएनयू के कथित प्रगतिशील प्रोफेसरों को रमाशंकर नाम का वह प्रतिभाशाली युवक रास नहीं आया. उन्हें प्रोफेसरों द्वारा बैल कहकर बुलाया जाता था. इस बीच विद्रोही छात्र आंदोलन में सक्रिय रहे और छात्रों के सवाल पर लगातार मुखर रहने का ही परिणाम हुआ कि 1983 में उन्हें इन्हीं प्रोफेसरों ने विश्वविद्यालय से बाहर का रास्ता दिखा दिया. लेकिन विद्रोही ने जेएनयू नहीं छोड़ा.
पिछले तीन दशकों से दिल्ली में होने वाले किसी भी प्रतिरोध के आयोजनों में विद्रोही अपने बगावती तेवर के साथ मौजूद रहे. चाहे वह किसानों की आत्महत्या के खिलाफ हो, चाहे महिलाओं पर हो रहे अत्याचार के खिलाफ, चाहे देश की प्राकृतिक संसाधनों को उद्योगपतियों के हाथ मे बेचने के खिलाफ या फिर धार्मिक कठमुल्लेपन के खिलाफ विद्रोही ने न सिर्फ अपनी कविताओं में बल्कि स्वयं भी तमाम विरोध-प्रदर्शनों में उपस्थित होकर मोर्चा लिया है.
आज जब समाज में साहित्य की भूमिका न के बराबर रह गयी है, जब कविता-कहानी की लोकप्रियता घटकर अपने न्यूनतम समय पर है, ऐसे समय में विद्रोही अपनी कविताओं के माध्यम से जनता से सीधा संवाद स्थापित करते थे. विद्रोही जनश्रुति की परंपरा के कवि थे और शाय़द इसलिए भी अपनी कविताओं को उन्होंने कभी लिखने की जरुरत नहीं समझी. हालांकि कुछ लोगों के प्रयास से उनकी कविताओं का एक संग्रह नयी खेती नाम से प्रकाशित किया गया.
विद्रोही के जाने के बाद सोशल मीडिया पर बहुत से लोगों ने शोक व्यक्त किया. कई अखबारों में उन पर प्रोफाइल भी प्रकाशित हुए और शायद कुछ हिन्दी की पत्रिकाएँ उन पर कवर स्टोरी छापने की तैयारी में भी जुट गयी होंगी. लेकिन तल्ख सचाई यही है कि विद्रोही जब तक जेएनयू में रहे, बुरे हालातों में रहे. तमाम तरह की बीमारियों और अभावों में अपना जिन्दगी बसर करते रहे. उनको सहजने और सलीके से रखने का काम न तो उनकी विचारधारा के प्रगतिशील खेमे के लोगों ने किया न ही व्यापक जनसमाज ने अपने इस महान कवि की सुध ली. कभी हिन्दी के सांमत और नामवर आलोचकों ने उनपर लिखना जरुरी नहीं समझा, साफ-सुथरी पगार पाने वाले जनवादी कवियों ने उन्हें कवि नहीं माना, दिल्ली के अभिजात्य बुद्धिजीवी वर्ग ने भी उन्हें उपेक्षित किया. अंतिम दिनों में रमाशंकर यादव विद्रोही को किसी अजायबघर की चीज बना दिया गया था, जिसका परिचय था कि यह आदमी जेएनयू में चालीस सालों से रह रहा है बस, जिससे लोग कन्नी काटते थे.
कभी कवि मुक्तिबोध के मरने पर शरद जोशी ने लिखा था, मरा हुआ कवि बहुत काम का होता है. जनकवि विद्रोही के मरने के बाद भी दिल्ली का साहित्य संसार विद्रोही को काम की चीज बनाने में जुटा है. शोक सभाएँ की जा रही हैं, उनकी रचनाओं को छपवा कर संपादक बनने की जुगत लगायी जा रही है, बड़े-बड़े लेख छापे जा रहे हैं. लेकिन सच्चे अर्थों में विद्रोही जैसे जनकवि मरते नहीं हैं, वे अपनी कविताओं में, छात्रों की दिवालों पर, यूनिवर्सिटी में, सड़कों पर, जंतर-मंतर पर हर जगह उपस्थित रहेंगे. विद्रोही के मरने पर शोक सभा की जगह कविता का उत्सव होना चाहिए. उनकी कविताओं को जनता के बीच, उसके तपते संघर्षो में खड़ा किया जाना चाहिए यही उस महान जनकवि को आखिरी सलाम होगा. खुद विद्रोही के शब्दों में, मैं भी मरूंगा/ और भारत के भाग्य विधाता भी मरेंगे/ लेकिन मैं चाहता हूं/ कि पहले जन-गण-मन अधिनायक मरें/ फिर भारत भाग्य विधाता मरें/फिर/साधू के काका मरें/यानी सारे बड़े-बड़े लोग पहले मर लें/फिर मैं मरूं – आराम से/उधर चल कर वसंत ऋतु में/ जब दानों में दूध और आमों में बौर आ जाता है/या फिर तब जब महुवा चूने लगता है/या फिर तब जब वनबेला फूलती है/नदी किनारे मेरी चिता दहक कर महके/और मित्र सब करें दिल्लगी/ कि ये विद्रोही भी क्या तगड़ा कवि था/ कि सारे बड़े-बड़े लोगों को मारकर तब मरा.
[अविनाश चंचल मानवाधिकार कार्यकर्ता और एक्टिविस्ट हैं. वे स्वतंत्र पत्रकार भी हैं. उनसे [email protected] पर संपर्क किया जा सकता है.]