By TwoCircles.net staff reporter,
सागर: एक लंबे समय से चल रहे इजरायल और फिलिस्तीन के अंतर्विरोध पर भारत की सत्ताधारी पार्टी की स्थिति समझ में नहीं आ रही थी. हाल में संयुक्त राष्ट्र में फिलिस्तीन पर आए संकट की बाबत हुई वोटिंग में भारत ने इज़रायल के खिलाफ़ अपना मतदान किया. अमरीका की बारहा याचना और संस्तुति के बाद भी दक्षिण एशिया के लगभग सभी देशों ने इजरायल का विरोध किया.
भारतीय सरकार द्वारा इज़रायल के खिलाफ़ मतदान करने के बाद भी भारतीय जनता पार्टी के बारे में कई कयास लगाए जा रहे थे. बतौर दक्षिणपंथ केन्द्र, सरकार के मत बाद यह कयास लगाए जा रहे थे कि संभवतः भाजपा इस संघर्ष के दौर में फिलिस्तीन के पक्ष में है. लेकिन संघ प्रमुख मोहन भागवत के हालिया बयान के बाद अब यह स्पष्ट होता दिख रहा है कि भाजपा और उसकी सहयोगी संस्थाओं का झुकाव किस ओर है.
मोहन भागवत (Courtesy: IT)
भाजपा का वैचारिक मूल कहे जाने वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने अप्रत्यक्ष तौर पर भारत को विदेशी ताकतों से बचने के लिए इज़रायल से सीख लेने की नसीहत दी है. मध्य प्रदेश के सागर में संघ के एकत्रीकरण शिविर के समापन सत्र को संबोधित करते हुए संघ प्रमुख ने कहा, ‘हमारे देश को आज़ादी मिलने के साथ एक और देश अस्तित्व में आया था, वह इज़रायल था.’
उन्होंने आगे कहा कि ‘तमाम विषमताओं और संसाधानिक विपन्नताओं के बावजूद इज़रायल ने आज अपनी श्रेष्ठ जगह बनायी है. इज़रायल ने कई लड़ाईयां लड़ी और जीती हैं. हर बार इज़रायल ने अपनी सीमा का विस्तार किया है. अपने निर्माण से लेकर आजतक इज़रायल ने अपने क्षेत्रफल में डेढ़गुना विस्तार किया है.’
अपनी बात को भारतीय परिवेश से जोड़ते हुए उन्होंने कहा, ‘इज़रायल की तुलना में हम हज़ारों वर्ग किलोमीटर का भूभाग, विशाल जनसंख्या और स्वतंत्रता का उत्साह होते हुए भी कहां खड़े हैं, यह विचारणीय है.’
मोहन भागवत के इस सरीखे बयान कुछ नए नहीं हैं. लेकिन संयुक्त राष्ट्र में वोटिंग के बाद भाजपा के जनक दल की तरफ़ से आया ऐसा बयान सरकार के अंदरूनी रुख को कुछ हद तक साफ़ तो ज़रूर करता है. मुमकिन है कि लोकतांत्रिक मोर्चे पर सरकार सारी संभावनाओं को देखते हुए विचार करे लेकिन उस लोकतांत्रिक समझ पर भी तब सवालिया निशान लग जाते हैं, जब अंदर के जोड़-तोड़ यूं सामने आने लगते हैं.
इज़रायल के खिलाफ़ होने के बावजूद इज़रायल से रक्षा सम्बन्धी सौदों का संपन्न होना यह साफ़ कर देता है कि सरकार की स्थिति दोतरफा है. यहां यह भी साफ़ किये जाने की भरसक ज़रूरत है कि मोहन भागवत के भारत के लिए विदेशी ताक़तों का क्या पैमाना है?