Home India Politics मौजूदा माओवादी उठापटक के पीछे का सच

मौजूदा माओवादी उठापटक के पीछे का सच

By TwoCircles.net staff reporter,

रायपुर/ बस्तर : छत्तीसगढ़ के माओवादी मूवमेंट के पीछे की सबसे बड़ी घटना ने तब रूप धरा जब ठीक उस समय भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी इन लाल गलियारों के दौरे पर थे. मुख्यधारा के अखबारों और टीवी चैनलों ने खबरों को इस तरह चलाया जैसे छत्तीसगढ़ और देश की भाजपा सरकारों के सांठगांठ के बूते देश के माथे पर लगे ‘माओवाद’ के कलंक को धोने में बड़ी मदद मिलेगी, लेकिन माओवादियों द्वारा 300 आदिवासियों को कथित रूप से बंधक बनाए जाने के बाद सारा खेल उल्टा पड़ गया.

ऐसे में यह कहा जाना और देश के अल्ट्रा-लेफ्ट तबके पर यह आरोप लगाया जाना लाज़िम था कि ‘देखिए साहब! ऐसे होते हैं ये नक्सली’. इसे मीडिया और सरकारी तंत्र ने माओवाद और लेफ्ट मूवमेंट को खत्म करने का एक और बहाना साबित कर दिया, जिससे लोगों को यह लगे कि जब प्रधानमंत्री की मौजूदगी में ऐसी घटनाएँ हो रही हैं, तो इस समस्या का समूल नाश होना ही चाहिए. लेकिन इस पूरी बहस को सिर्फ़ एक पक्षीय तरीके से देखा गया, जिसे साफ़ करना ज़रूरी है.



छविन्द्र कर्मा (साभार – डेलीमेल)

अभी यह न कहीं लिखा गया है न कहीं दर्ज किया गया है कि छत्तीसगढ़ सरकार अनाधिकारिक तरीके से माओवादी आंदोलन का सफाया करने के लिए बहुचर्चित ‘सलवा-जुडूम’ को फ़िर से प्रभाव में लाना चाह रही है. इसकी घोषणा बीती 5 मई को सलवा-जुडूम के संस्थापक और माओवादियों द्वारा मार दिए गए महेंद्र कर्मा के बेटे छविन्द्र कर्मा ने की. रोचक बात यह है कि यह घोषणा सर्वोच्च न्यायालय के उस फैसले के बाद की गयी, जिसमें अदालत ने सलवा जुडूम के पहले संस्करण को गैरकानूनी और असंवैधानिक घोषित किया था और इसे बंद करने का आदेश दिया था. ऐसे में यह साफ़ समझ आता है कि किस कदर सलवा-जुडूम को लेकर राष्ट्रीय हैसियत की सभी पार्टियां न्यायालय को आड़े हाथों लेती रही हैं.

सलवा जुडूम-१ के समय छतीसगढ़ में जो भी हुआ, उसे न मीडिया ने दिखाया न ही सरकार ने उस पर कोई कदम उठाया. छतीसगढ़ में माओवाद के नाम पर आदिवासियों के साथ जो भी बर्बरताएं हुई हैं, उसे जाने के लिए सुकमा, दंतेवाड़ा और बस्तर के कोनों-अतरों को छानना होगा. ३०० लोगों को बंधक बनाने की घटना हर हाल में निंदनीय है, लेकिन यह आदिवासियों की संपदा और उनके जीवन को बचाने के लिए सलवा-जुडूम का विरोध है. ज़ाहिर है कि बस्तर के अल्ट्रा-लेफ्ट ने अपनी बात रखने के लिए वही वक्त चुना जब प्रधानमंत्री बस्तर की यात्रा पर थे.



(इंडिया टाइम्स से साभार)

कहा जा रहा है कि तीस सालों में पहली बार किसी प्रधानमंत्री ने इस इलाके की यात्रा की है. लेकिन यहां यह बात भी पाठकों और जनसामान्य को जाननी चाहिए कि साठ सालों में माओवाद के नाम पर हर सरकार ने इस इलाके के प्राक्रतिक और ह्यूमन रीसोर्स का कितना दोहन किया है. बस्तर में टाटा स्टील, लम्बोदर सीमेंट, रिलायंस जैसे बड़े औद्योगिक संस्थान अपना काम सुचारू रूप से चलने देने के लिए माओवादियों को धनराशि देते रहते हैं. जिसे ‘लेवी’ कहा जाता है. इस लेवी की ही बदौलत बड़े उद्योगपति बरास्ते रेड कॉरिडोर अपना व्यापार चला रहे हैं. इस लेवी का ही योगदान है कि अब माओवाद पर यह आरोप लगाना आसान हो गया है कि माओवाद आंदोलन का एक बड़ा हिस्सा अपने एजेंडे से भटक गया है.

इन तथ्यों को जानकार यह कहना आसान हो गया है कि बस्तर की संपदा किसी भी सरकार के लिए क्यों ज़रूरी हैं? नरेन्द्र मोदी सरकार पर पहले से ही उद्योगपतियों की करीब होने का आरोप लगता रहा है. ऐसे में देश के उन अनछुए और गैर-औद्योगिक इलाकों को उद्योगपतियों की शरण में लाने का एक प्रयास हो सकता है, जिसके साथ-साथ भूमि-अधिग्रहण बिल को लेकर भी जन-सामान्य के करीब पहुंचा जा सकेगा.