अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net,
पटना: बिहार में चुनावी जंग भले ही जंगलराज बनाम विकासराज के मुद्दे पर हो रहा हो, लेकिन इस लड़ाई में जाति या धर्म के मुद्दे को बार-बार बहस के बीच लाया जा रहा है.
जाति… यह सिर्फ़ चाय की दुकानों, चौपालों व राजनीतिक सभाओं में ही नहीं, बल्कि मीडिया कवरेज और चुनावी सर्वे में भी इसका बेतहाशा इस्तेमाल किया जा रहा है. हद तो यह हो गई है कि स्थानीय चैनलों व अन्य मीडिया संस्थान चुनाव की रिपोर्टिंग या सर्वे में यह बता रहे हैं कि किस जाति के कितने प्रतिशत वोट किस उम्मीदवार या किस पार्टी को मिलेंगे. इतना ही नहीं, बार-बार मतदाताओं को यह भी याद दिलाया जा रहा है कि तुम्हारी जाति क्या है और इस आधार पर उनका मनपसंद जनप्रतिनिधि किसे होना चाहिए.
खुद मीडिया संस्थान खुलकर यह बता रहे हैं कि सर्वे करते वक्त हमने इस बात का खास ध्यान रखा कि सभी जातियों, समुदायों व धर्मों की राय इसमें शामिल की जाए. सर्वे करने वाले यह भी बता रहे हैं कि सर्वे के दौरान उन्होंने किस जाति या समुदाय के कितने प्रतिशत लोगों से बात की. मीडिया रिपोर्टिंग में इस बात को बोलने से भी परहेज़ नहीं किया जा रहा है कि बिहार की लड़ाई अगड़ी-पिछड़ी जातियों का है. स्थानीय न्यूज़ चैनलों की हालत तो यह है कि उनके रिपोर्टर खुलेआम पूछते हैं कि आपकी जाति क्या है? और सामने वाले व्यक्ति अपनी राय यदि अपनी बिरादरी के लोगों से अलग दे रहा है तो रिपोर्टर फौरन सवाल होता है कि आपकी जाति के लोग तो इस पार्टी के साथ जाते हैं या आपकी जाति का उम्मीदवार फलां हैं.
यह अजीब है कि जिन शब्दों को बोलने की आज़ादी नेताओं को भी नहीं है, उन्हीं शब्दों का इस्तेमाल मीडिया अपनी रिपोर्टिंग व ओपिनियन पोल में धड़ल्ले से कर रहा है. जबकि यही मीडिया नेताओं के जातिसूचक भाषणों पर हमेशा सवाल करते दिखा है. जब लालू यादव राघोपुर में यह कह दिया कि यदुवंशियों सावधान! अपने वोट को छितराने नहीं देना. भाजपा वाला यादव के वोट को बांटने का सब उपाय कर दिया. यादव को कमजोर करना चाहता है. अरे, जब यादव को भैंस कमज़ोर नहीं कर सका, तो इस सब क्या है? जाग जाओ. दलाल को पहचानो. कमंडल के फोड़ देवे ला हऊ. यह लड़ाई बैकवर्ड-फॉरवर्ड की है. लालू का इतना बोलना था कि मीडिया ने बवाल खड़ा कर दिया. लेकिन वही मीडिया हर रोज़ अपने चैनल पर दिन-रात बैकवर्ड-फॉरवर्ड, यादव- मुसलमान करता नज़र आ रहा है.
इसी मीडिया को पूर्व उप-मुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी के बयान ‘दलितों के सबसे बड़े नेता पासवान हमारे साथ हैं. मुसहर के बेटा मांझी को नीतीश ने बेइज्ज़त करके हटा दिया. दलित-महादलित का एक भी वोट नीतीश को नहीं मिलेगा’ से कोई प्रॉब्लम नहीं है. आलम तो यह है कि पिछले लोकसभा चुनाव में तो नरेंद्र मोदी तक की जाति खुलेआम बताई गई, लेकिन चुनाव आयोग तक को इस पर कोई खास आपत्ति नहीं हुई. गिरिराज सिंह के बयान कि मुख्यमंत्री पिछड़ी जाति का ही होगा, पर भी शोर नहीं मचा.
जबकि चुनावी आचार संहिता में स्पष्ट तौर पर चुनाव आयोग ने कहा कि कोई भी दल या नेता ऐसा काम न करेगा, जिससे जातियों और धार्मिक या भाषाई समुदायों के बीच मतभेद बढ़े या घृणा फैले. तो महत्वपूर्ण सवाल यह है कि मीडिया अपनी रिपोर्टिंग या सर्वे में जिस प्रकार जाति या समुदाय शब्द का प्रयोग कर रहा है , क्या वह चुनाव आयोग के उन दिशा-निर्देशों का सीधा उल्लंघन नहीं है, जिसके तहत धर्म व जाति के आधार पर वोट न देने की बाती कही जाती है. और उससे भी बड़ा सवाल कि क्या चुनाव आयोग को उन मीडिया रिपोर्ट्स या सर्वे का स्वयं संज्ञान नहीं लेना चाहिए, जिसमें वह जाति व समुदाय के आधार पर वोट करने को प्रेरित कर रहे हैं. क्या एक सर्वे इस बात का भी नहीं होना चाहिए मीडिया ने अपनी रिपोर्ट या सर्वे में कितने बार जाति शब्द या समुदाय शब्द का प्रयोग किया या कितनी बार जाति या धर्म लोगों पर थोपने की कोशिश की, ताकि मीडिया के भी असलियत का पता चले.