अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net
औरंगाबाद: औरंगाबाद बिहार के महत्वपूर्ण ज़िलों में से एक है. अपने जीवंत अतीत से अपनी आभा व करिश्मे के बल पर यह ज़िला किसी पर भी जादू चला सकता है. लेकिन इस बार विधानसभा चुनाव में यहां किसका जादू चलेगा, यह बिल्कुल भी स्पष्ट नहीं है.
तमाम दल यहां अपनी पूरी ताक़त झोंक रहे हैं. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की भी यहां सभा हो चुकी है. गृहमंत्री राजनाथ सिंह से लेकर अमित शाह व तमाम केन्द्रीय मंत्री इस धरती पर चुनाव प्रचार कर चुके हैं. वहीं महागठबंधन के लालू प्रसाद हो या बसपा की मायावती या फिर शिवसेना के संजय राउत, सभी यहां आकर अपने पार्टी के पक्ष में वोट मांग चुके हैं. अब देखना दिलचस्प होगा कि यहां की जनता किसे अपना वोट देकर जीत का सेहरा पहनाती है.
औरंगाबाद के शिवेन्द्र बताते हैं, ‘इस बार यहां की जनता उसे ही वोट देगी, जो इस क्षेत्र का विकास करेगा.’ वो आगे बताते हैं कि नीतिश सरकार में यहां विकास के कई काम हुए हैं. सिर्फ औरंगाबाद ब्लॉक में 80 सड़कों का निर्माण हुआ है. कई बांध बने हैं और कई के निर्माण को मंजूरी मिली है. 50 गांवों में तार पोल और ट्रान्सफार्मर बदले गए हैं.
ऐसे में कम से कम यह तो ज़रूर स्पष्ट है कि यहां महागठबंधन के मुक़ाबले एनडीए गठबंधन को अधिक मेहनत करना पड़ेगा, जो कि एनडीए कर भी रही है. और लोगों की शिकायत है कि जब बात विकास के मुद्दों पर नहीं बन पा रही है तो वोटों के ध्रुवीकरण करने वाले हथकंडे भी बखूबी अपनाए जा रहे हैं.
दाऊदनगर के निवासी नसीम अहमद का कहना है, ‘पहले यहां के लोगों में नक्सली वारदातों का डर रहता था. जिसका मुक़ाबला हिन्दू-मुसलमान दोनों मिलकर करते थे, पर अब डर दंगों का रहता है. कब कुछ मतलबी लोग यहां के लोगों को आपस में लड़ा दें, कुछ कहा नहीं जा सकता.’
नसीम बताते हैं, ‘अभी गेवल बिगहा गांव में बकरीद के दिन जानवरों की क़ुर्बानी को लेकर साम्प्रदायिक तनाव का माहौल बना था. मई महीने में भी हमारे इलाक़े में पशु विवाद को लेकर मुसलमानों पर हमला किया गया था. 23 साल के क़ादिर को उन लोगों ने मार दिया. कई लोग घायल हुए. इस दिन को याद करके रूह दहल जाता है. आज यहां सबके दिलों में डर बसा रहता है.’
वो बताते हैं कि पिछले साल नवम्बर महीने में भी इसी दाऊदनगर में कुछ शरारती लोगों ने एक धार्मिक स्थल तोड़कर साम्प्रदायिक तनाव फैलाया था. इसमें भी कई लोग घायल हुए. दुकानों को लूट लिया गया.
स्थानीय पत्रकार अकमल अहमद बताते हैं कि छोटी-छोटी बातों पर साम्प्रदायिक तनाव पैदा कर देना यहां आम बात है. अगस्त महीने की ही कहानी है. कुटुंबा में क़ब्रिस्तान की ज़मीन को लेकर तनाव बनाया गया. उससे पहले कझपा गांव में मोबाईल रिजार्च कराने को लेकर मारपीट हुई और उसे फिर एक साम्प्रदायिक रंग दे दिया गया.
खैर, औरंगबाद की एक खास बात यह है कि यह कभी वामपंथ का गढ़ रहा है. कभी लोग इसे मगध के लेनिनग्राद के नाम से जानते थे. लेकिन वामपंथ का क़िला यहां पिछले चुनाव में ही ध्वस्त हो चुका है. पिछले चुनाव में ही हालात इतने बुरे हो गए थे कि ओबरा विधानसभा क्षेत्र को छोड़कर किसी क्षेत्र में चार अंकों से अधिक वोट नहीं मिल पाएं. सिर्फ ओबरा में 18 हज़ार वोट हासिल करके माले तीसरे नंबर पर रहा था. इस बार वामपंथियों की लड़ाई अपने इस दरकते क़िले के अस्तित्व को बचाना का भी होगा. वैसे माना जा रहा है कि सिर्फ़ गोह विधानसभा क्षेत्र वामपंथ कुछ कर गुज़रने के मूड में दिख रही है.
वैसे कांग्रेस भी इस जिले में पिछले 20 सालों से एक सीट के लिए तरस रही है. इस बार दो विधानसभा क्षेत्र यानी औरंगाबाद व कुटुंबा (आरक्षित सीट) से कांग्रेस अपनी किस्मत की आज़माईश कर रही है. लड़ाई महागठबंधन बनाम एनडीए के हो जाने से स्थिति काफी बेहतर है. कांग्रेसियों का मानना है कि इस बार क़िला फ़तह होना लगभग तय है.
भविष्य में क्या होगा, यह 8 नवम्बर को आने वाले नतीजे ही बेहतर बताएंगे. औरंगाबाद ज़िले के 6 सीटों पर चुनाव दूसरे चरण यानी 16 अक्टूबर को है.