Home Adivasis मोदी जी! क्या लड़कियां सिर्फ़ अचार बेचने के लिए हैं?

मोदी जी! क्या लड़कियां सिर्फ़ अचार बेचने के लिए हैं?

फ़हमिना हुसैन, TwoCircles.net

इन दिनों सोशल मीडिया पर पीएम नरेन्द्र मोदी का एक बयान पर काफी कुछ शेयर किया जा रहा है, जिसमें उन्होंने कहा था कि –‘लड़की बेचे तो ज़्यादा बिकेगा अचार.’

हालांकि पीएम मोदी का यह बयान पुराना है. यह बयान आज से ठीक एक साल पहले पीएम मोदी ने मुद्रा बैंक के उदघाटन के अवसर पर दिए गए भाषण के दौरान दिया था.

भाषण पुराना ज़रूर है. लेकिन यह सच है कि पीएम मोदी जिस विचारधारा वाला संगठनों से संबंध रखते हैं, उन्हें औरतें सदा सामान बेचने का ज़रिया नज़र आती हैं. क्योंकि उन्हें नहीं मालूम कि इस देश की आज़ादी में महिलाओं का क्या रोल रहा है? और मालूम भी कैसे हो? ये तो आज़ादी की लड़ाई में अंग्रेज़ों का साथ जो दे रहे थे.

बताते चलें कि भारत में महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी तथा अधिकारों के लिए उनके संघर्ष का ‘प्रथम चरण’ 20वीं शताब्दी के औपनिवेशिक शासन से ही प्रारम्भ हो जाता है. स्वाधीनता आंदोलन की लड़ाई सिर्फ़ पुरुषों की हिस्सेदारी से ही आज़ादी का क़िला फ़तह नहीं किया गया, बल्कि इस महायज्ञ में महिलाओं की भूमिका भी उल्लेखनीय है. यह बात सिर्फ़ कहने भर के लिए नहीं है और न नाम गिनाने के लिए.

महात्मा गाँधी द्वारा प्रोत्साहित महिलाओं ने सर्वप्रथम तो ‘गृह शासन’ (1916) के आंदोलन में भाग लिया. उन्होंने बाद के नमक सत्याग्रह एवं सविनय अवज्ञा आंदोलन में भी भाग लिया. इन आंदोलनों में जो महिलाएं अग्रणी रही हैं उनमें ‘एनी बेसेंट’ जैसी यशस्वी महिला का नाम सबसे उपर आता है.

अन्य सुविख्यात महिलाएं जैसे सरोजनी नायडू, कमला देवी चट्टोपाध्याय, राज कुमारी अमृत कौर, लेडी फिरोज़ मेहता, अरूणा आसफ़ अली, दुर्गा बाई देशमुखी आदि ने स्वतंत्रता संग्राम में बहुत ही सक्रिय भूमिका निभाई हैं.

भारत में महिलाओं के इतिहास पर जानकार बताते हैं कि राष्ट्रीय आंदोलन और महात्मा गाँधी का नेतृत्व, ये दो ऐसी प्रमुख शक्तियां थीं, जिन्होंने महिलाओं के लिए राजनीतिक समानता प्राप्त करने में उत्प्रेरक का काम किया. इन दोनों ने उन्हें अपने राजनीतिक अधिकारों और उत्तरदायित्वों के प्रति जागरूक बनाया और उन्हें घर की सुरक्षा में परदे के पीछे से मुक्त करके सार्वजनिक क्षेत्र में उतारा.

क्रांतिकारी गतिविधियों का सामाजिक दायरा काफी संकीर्ण था. उस दौरान झांसी रानी रेजिमेंट में विभिन्न जिलों से जिस तादाद में महिलाओं की भर्ती हुई वह भी स्वाधीनता आंदोलन का एक बेमिसाल अध्याय है. इसके अलावा यह महिलाएं जिन जगहों से आई थी वह सब अब बांग्लादेश में है. लेकिन आख़िर वह कौन सी ऐसी बात थी जिसने उस समय इन महिलाओं को ब्रिटिश हुकुमत के खिलाफ़ बग़ावत का झंडा उठाने की प्रेरणा दी थी? इस सवाल का जवाब अब तक नहीं मिला है.

स्वतंत्रता से पहले की अवधि का एक महत्वपूर्ण अभिलेख, एक उप-समिति की रिपोर्ट है जो जवाहरलाल नेहरू द्वारा 1939 में नियुक्त किया गया था. जिसमें ‘नियोजित अर्थव्यवस्था में महिलाओं की भूमिका’ सबसे महत्वपूर्ण बताया गया. इस रिपोर्ट में मुख्य रूप से इस बात को शामिल किया गया था कि महिलाओं को व्यक्ति के रूप में देख जाये तथा उन्हें भी राजनीतिक, नागरिक एवं कानूनी अधिकार, सामाजिक समानता तथा आर्थिक स्वतंत्रता एवं विकास में पुरूषों के समान हिस्सा मिलना चाहिए.

1947 में स्वतंत्रता प्राप्ति और देश के विभाजन के साथ हुए खून ख़राबे तथा एक बड़ी जनसंख्या के विस्थापन के बाद 1950 तथा 1960 के दशक में धर्मनिरपेक्ष, बहुलतावादी, बहुधार्मिक तथा समन्वित राजनीतिक व्यवस्था को बढ़ावा दिया गया. इस वातावरण तथा संवैधानिक गारंटी से कुछ महिलाएं लाभान्वित हुईं.

मध्यम वर्ग की बहुत सी महिलाओं को विभिन्न सेवाओं एवं शैक्षणिक क्षेत्रों में प्रवेश प्राप्त करने के अवसर मिले. सरकार ने ‘महिला-मण्डलों’ (महिला समूहों) की व्यवस्था की तथा महिलाओं के उत्थान के लिए कार्यक्रम बनाए, हालांकि ये ‘समाज कल्याण’ के परिप्रेक्ष्य से बनाए गये थे.

लेकिन अब इस अवधि में महिला आंदोलन उतना सक्रिय नहीं रह पाया था. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस अपने वादों को पूरा नहीं कर पाई. महिलाओं का मोहभंग तब हुआ जब सामान्य नागरिक कोड जो सभी महिलाओं को कानूनी समानता प्रदान नहीं किया जा सका. हिन्दू कोड बिल भी अपने प्रारंभिक रूप में नहीं पारित किया जा सका.

1955-56 में इसका बहुत ही कटा-छटा रूप चार विभिन्न 3 अधिनियमों के रूप में पारित हो पाया जो विवाह, उत्तराधिकार, संरक्षण, दत्तक-ग्रहण तथा भरण-भत्ते से संबंधित रहा.

यह सत्य है कि वर्तमान समय में स्त्रियों की स्थिति में काफी बदलाव आए हैं, लेकिन फिर भी वह अनेक स्थानों पर पुरुष-प्रधान मानसिकता से पीड़ित हो रही हैं. और सबसे अहम बात यह है कि पीएम नरन्द्र मोदी जिस विचारधारा को मानते हैं, वहां महिलाओं को उपभोग की एक वस्तु से अधिक कुछ भी नहीं समझा गया है. ऐसे में महिलाओं को, खासतौर पर दलित, आदिवासी व अल्पसंख्यक समुदाय से संबंध रखने वाली महिलाओं को ही आगे आकर देश में होने वाले इंसाफ़ियों के ख़िलाफ़ लड़ना होगा. देश के विकास और अपने उत्थान के बारे में सोचना होगा, क्योंकि इस सरकार का अब तक का जो रवैया है, उसमें महिलाओं के उत्थान के बारे में सोचना बेमानी है. इनका बस चले तो यह महिलाओं से सिर्फ़ अचार ही बनवाए व बेचवाएंगे…