अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net
दिल्ली: गुजरात के उना कांड की चिंगारियां अभी भी सुलग रही हैं. उना में दलितों को इंसाफ़ दिलाने की लड़ाई लड़ रहे जिग्नेश मेवाणी इन दिनों दिल्ली में हैं और चाहते हैं कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी उन्हें मुलाक़ात का समय दें ताकि उनसे दलितों के वैकल्पिक रोज़गार के बारे में बात की जा सके. ऐसा इसलिए क्योंकि गुजरात के दलितों ने मृत पशु न उठाने, मैला न ढ़ोने और सफ़ाई का काम छोड़ने की शपथ ले ली है.
मेवाणी बताते हैं कि इसके लिए उन्होंने प्रधानमंत्री कार्यालय को पत्र भी लिखा है, लेकिन उन्हें अब तक मिलने का वक़्त नहीं मिला है.
जिग्नेश मेवाणी TwoCircles.net के साथ बातचीत में बताते हैं कि वे दलितों की इस लड़ाई को राष्ट्रीय स्तर पर लड़ने के इच्छुक और आमादा दोनों हैं. उन्होंने इस बातचीत में यह साफ़ कर दिया कि उनका यह अभियान एक सामाजिक उत्तरदायित्व और इंसाफ़ की लड़ाई के तौर पर बढ़ाया जा रहा है, न कि किसी राजनीतिक पार्टी के दांव-पेंच के तौर पर. इस बात को और पुख्ता करने के लिए उन्होंने आम आदमी पार्टी के पद से इस्तीफ़ा देने की भी बात कही और स्पष्ट तौर पर बताया कि अब वे किसी पार्टी के साथ नहीं हैं. यह अब जनता की लड़ाई है और जनता के साथ मिलकर ही लड़ी जाएगी.
जिग्नेश दावा करते हैं कि दलितों को इंसाफ़ दिलाने की ख़ातिर उना से शुरू हुए इस संघर्ष को वे अब उत्तर प्रदेश के गांव-क़स्बों तक ले जाएंगे. वहां की जनता को बताएंगे कि ये ‘सबका साथ–सबका विकास’ का मॉडल नहीं, यह तो सामान्य लोगों के उत्पीड़न व विनाश का मॉडल है.
जिग्नेश बताते हैं कि देश में दलितों को जिस तरह से प्रताड़ित किया जा रहा है, मुसलमानों को जिस तरह से टारगेट किया जा रहा है, जिस तरह से आदिवासियों की ज़मीनें छीनी जा रही हैं, यह काफी भयावह स्थिति है. ऐसे में उत्तर प्रदेश के लोगों को यह बताना ज़रूरी हो गया है कि गुजरात मॉडल का सच क्या है. क्योंकि गुजरात मॉडल के नाम पर जिस तरह से देश के लोगों को ठगा व छला गया, उसकी सचाई उत्तर प्रदेश के लोगों को जानना ज़रूरी है.
जिग्नेश बताते हैं कि दलितों की हालत देश में हर जगह लगभग एक जैसी ही है. उन पर शोषण और ज़ुल्म हर हिस्से में हो रहा है. लेकिन अच्छी बात यह है कि इस उना आन्दोलन के बाद दलितों की चेतना जागृत हुई है और उससे भी अच्छी बात यह है कि सभी धर्म व जाति के लोग इस आन्दोलन का समर्थन कर रहे हैं. मुसलमान खासतौर पर हमारे साथ खड़े नज़र आए और यह वक़्त की भी ज़रूरत है कि दलित-मुस्लिम एकता पूरे देश में क़ायम की जाए.
जिग्नेश एक लंबी बातचीत में कई तथ्य भी सामने रखते हैं. उनके मुताबिक़ सिर्फ़ गुजरात में 2002 से 2015 तक 15 हज़ार से अधिक दलित उत्पीड़न के मामले सामने आए हैं. गुजरात के 1590 गांव में आज भी 98 प्रकार के छूआछूत व भेदभाव के तरीक़े पाए गए हैं. 119 गांव में दलित आज भी पुलिस प्रोटेक्शन में जी रहे हैं. 2005 से 2015 तक 55 गांव से दलितों को खदेड़ कर गांव से निकाल दिया गया. 55 हज़ार से अधिक दलित आज भी गुजरात में मैला उठाने का काम कर रहे हैं. एक लाख के क़रीब सफ़ाई-कर्मियों को न्यूनतम वेतन तक नहीं दिया जा रहा है.
2004 में गुजरात के 24 दलित बहनों का बलात्कार हुआ था, 2014 में यह आंकड़ा 74 तक पहुंच गया है. यानी 300 प्रतिशत का इज़ाफ़ा, लेकिन एक सचाई यह भी है कि दलितों के मामलों में सिर्फ़ 3 प्रतिशत केसों में ही सज़ा दी गई है.
मुसलमानों के संबंध में जिग्नेश बताते हैं कि गुजरात में मुसलमानों की परिस्थिति दलितों जैसी ही है. 2002 दंगे के बाद उन्हें दलितों की तरह एक साथ अपने खुद की कॉलोनियों में रहना पड़ रहा है, और इन कॉलोनियों में बुनियादी सुविधाएं तक उपलब्ध नहीं हैं.
जिग्नेश ने दलितों को जागृत करने के लिए एक नारा भी गढ़ा है. उनका नारा है – ‘मरी हुई गाय की दुम तुम रखो, हमें हमारी ज़मीन दो’
उन्होंने सरकार को 15 सितंबर तक की चेतावनी दी है. अगर इस बीच में सरकार दलितों के इंसाफ़ के तौर पर 5 एकड़ ज़मीन देने की प्रक्रिया की शुरूआत नहीं करती है तो 15 सितम्बर से वे गुजरात में ‘रेल रोको’ अभियान की शुरूआत करेंगे. यह अभियान गुजरात के साथ-साथ देश के बाक़ी हिस्सों में भी चलाया जाएगा. इसलिए सरकार 15 सितंबर से पहले उन सभी दलितों को पांच-पांच एकड़ ज़मीन आवंटित करे जो मरे हुए पशुओं का चमड़ा निकालने जैसे काम बंद कर रहे हैं.
क्या पांच-पांच एकड़ ज़मीन आवंटित करने के मांग व्यावहारिक है? तो इस सवाल के जवाब में जिग्नेश बताते हैं कि यह हमारा हक़ है. हमारे संविधान में भूमिहीनों को ज़मीन देने की बात कही गई है. और वैसे भी सरकार जब अडानी व रिलायंस जैसे बड़ी-बड़ी कंपनियों को ज़मीन आवंटित करती आई तो देश के भूमिहीनों के लिए ज़मीन का आवंटन क्यों नहीं किया जा सकता? और वैसे भी सरकार के पास ख़ाली ज़मीन की कोई कमी नहीं है और अगर कमी है तो फिर वो ज़मीन ख़रीद कर भी दलितों को दे सकती है.
जिग्नेश ने यहां तक चेतावनी दी कि अगर सरकार ने हमारी बातों पर ध्यान नहीं दिया तो यह पूरा आन्दोलन हिंसात्मक राह पर भी जा सकता है. और इसकी पूरी ज़िम्मेदारी सरकार की होगी.
वे बताते हैं कि समता सैनिक दल में लोगों के पास लाठियां थी. पर वो सिर्फ़ दिखाने के लिए थीं, चलाने के लिए नहीं. लेकिन इस आन्दोलन में कोई चला भी ले तो हमें कोई अफ़सोस नहीं होगा.
बताते चलें कि 1980 में गुजरात के मेहसाना में जन्मे जिग्नेश मेवाणी बीते हफ़्तों से गुजरात में चल रहे दलित आंदोलन का सबसे प्रमुख चेहरा हैं. चार साल पत्रकारिता करने के बाद जिग्नेश एक्टिविस्ट बने. इस दौरान क़ानून की पढ़ाई की और अब गुजरात उच्च न्यायालय में पेशेवर वकील हैं. साथ में राजनीति भी शुरू की और आम आदमी पार्टी के प्रवक्ता बने.