अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net
पटना: पूरी दुनिया में बिहार की शान ख़ुदा बख़्श ओरिएन्टल पब्लिक लाइब्रेरी बदहाली के दौर से गुज़र रही है. इस लाइब्रेरी का प्रबंध तंत्र लगभग नाकाम हो चला है. आलम यह है कि लाइब्रेरी को सम्हालने के लिए एक बेहद ही ज़रूरी निदेशक का पद अरसे से खाली पड़ी है. ऐसे में कोई ज़िम्मेदार अधिकारी न होने के चलते लाइब्रेरी के भीतर संरक्षित दुर्लभ पुस्तकों का भी कोई ख़ैर-ख़्वाह नहीं है.
स्पष्ट रहे कि डॉ. इम्तियाज़ अहमद के बाद जून 2014 से इस लाइब्रेरी के निदेशक का पद खाली है. हालांकि निदेशक की बहाली के लिए जुलाई 2014 में विज्ञापन भी निकला. 10 अप्रैल 2015 को इसके लिए इंटरव्यू हुआ. इसका अनुमोदन बिहार के राज्यपाल (जो बोर्ड के अध्यक्ष होते हैं) के द्वारा किया गया. इसके बाद जून 2015 में सेलेक्शन बोर्ड के ज़रिए चयनित प्रार्थी का नाम अप्वाईंटमेंट्स कमिटी कैबिनेट (ए.सी.सी.) को अनुमोदन से संबंधित तमाम दस्तावेज़ों के साथ भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय को भेज दिया गया. लेकिन अब तक ए.सी.सी. का अनुमोदन हासिल नहीं हुआ है. सूत्रों की मानें तो यह फ़ाईल पिछले एक साल से प्रधानमंत्री कार्यालय में अटकी पड़ी है और इस लाइब्रेरी को एक अदद निदेशक अब तक नसीब नहीं हो सका है.
फिलहाल निदेशक का पद खाली रहने के कारण बिहार के राज्यपाल यानी इस लाइब्रेरी के अध्यक्ष ने पटना प्रमंडल के आयुक्त आनंद किशोर को अतिरिक्त प्रभार सौंपा है, लेकिन सूत्रों की मानें तो आयुक्त आनंद किशोर की इस लाइब्रेरी को विकसित करने में कोई रुचि नहीं है. शायद इसकी वजह यह भी है कि आनंद किशोर इस समय पटना प्रमंडल के आयुक्त के साथ-साथ बिहार स्कूल एग़्ज़ामिनेशन बोर्ड के चेयरमैन, बिहार के जेलों के आई.जी. और अगले वर्ष जनवरी में होने वाले 350वें प्रकाश उत्सव का सफल आयोजन कराने की भी ज़िम्मेदारी भी सम्हाल रहे हैं.
आनंद किशोर की व्यस्तता के नतीजे में इस लाइब्रेरी में जहां पिछले तक़रीबन दो सालों से किसी तरह की कोई खरीददारी नहीं हो सकी है, वहीं सेमिनार और लाइब्रेरी के लेक्चर्स जैसे साहित्यिक-शैक्षणिक कार्यक्रमों का सिलसिला भी पूरी तरह से बंद है. लाइब्रेरी से प्रकाशित होने वाला ख़ुदा बख़्श जरनल भी कई वर्षों से नहीं निकल पा रहा है. ख़ुदा बख़्श अवार्ड की भी यही कहानी है. पांडुलिपियों के डिजिटाइजेशन का काम भी बंद पड़ा है. इस लाइब्रेरी के विस्तार के मद्देनज़र बग़ल में ही दो साल पहले लाइब्रेरी की दूसरी बिल्डिंग बनकर तैयार है, लेकिन बिजली व लिफ्ट न लग पाने के कारण इसे आज तक शिफ्ट नहीं किया जा सका है, जबकि इस लाइब्रेरी के अध्यक्ष यानी बिहार के राज्यपाल ने पिछले साल ही ऐलान किया था कि मार्च 2016 तक इस काम को कर लिया जाएगा.
इस लाइब्रेरी की दुर्दशा व बदहाली का अंदाज़ आप इसी बात से लगा सकते हैं कि इस लाइब्रेरी में सिर्फ़ निदेशक ही नहीं, बल्कि असिस्टेंट निदेशक का पद भी तक़रीबन दो सालों से खाली है. इसके साथ-साथ असिस्टेंट लाइब्रेरियन, इंफोर्मेशन ऑफिसर और कम्प्यूटर इचार्ज का पद भी खाली है. इतना ही नहीं, पिछले दो सालों से इस लाइब्रेरी को यूजीसी के 6 जूनियर रिसर्च फेलो और एक सीनियर रिसर्च फेलो भी नसीब नहीं हो सके हैं, जो सालों-साल से इस लाइब्रेरी को मिलते रहे हैं.
इन सबके बीच केन्द्र सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी है, उसे कोई फ़र्क़ ही नहीं पड़ रहा है. ‘सबका विकास-सबका विकास’ का दावा करने वाली केन्द्र की मोदी सरकार ने बिहार के ज्ञान की रोशनी का केन्द्र रही इस लाइब्रेरी को उपेक्षित हालत में पहुंचाने की पूरी तैयारी मुकम्मल कर ली है.
आगे की कहानी और भी भयावह है. राज्यसभा सांसद अली अनवर अंसारी यह सवाल सदन में भी उठा चुके हैं कि वित्तीय वर्ष 2016-17 का अनुदान लाइब्रेरी को नहीं मिला है, जबकि संस्कृति मंत्रालय के अंतर्गत आने वाले दूसरी लाइब्रेरियों को यह अनुदान पहले ही भेजा जा चुका है. अली अनवर ने यह सवाल सदन में शून्यकाल के दौरान 27 जुलाई 2016 को उठाया था. उनका यह भी कहना था कि अनुदान न मिलने के कारण लाइब्रेरी के कर्मचारियों को विगत तीन महीने से वेतन व पेंशन आदि का भुगतान नहीं किया जा सका है.
हालांकि असिस्टेंट लाइब्रेरियन जावेद अशरफ़ का कहना है कि उनके सदन में सवाल उठाए जाने के बाद भारत सरकार ने फंड रिलीज़ कर दिया है. लाइब्रेरी के सारे कर्मचारियों को एक साथ चार महीने की सैलरी दे दी गई है. अब कोई परेशानी नहीं है.
इस लाइब्रेरी को नया निदेशक कब नसीब होगा? इस सवाल पर इस लाइब्रेरी में मौजूद सभी अधिकारी खामोश हो जाते हैं. कुछ देर की ख़ामोशी के बाद जावेद अशरफ़ बताते हैं कि इस सवाल का जवाब प्रधानमंत्री कार्यालय ही जानती है कि नया निदेशक कब और किसे बहाल किया जाएगा.
सरकार की ओर से मिलने वाले फंड की कहानी भी दिलचस्प है. पिछले साल इस लाइब्रेरी को दो करोड़ रूपये डेवलपमेंट फंड के रूप में मिले थे, लेकिन जब इस लाइब्रेरी के इंचार्ज आनंद किशोर ने कोई खर्च नहीं होने दिया तो केन्द्र सरकार ने इसे वापिस मंगवा लिया. ऐसा लाइब्रेरी के इतिहास में पहली बार हो रहा है. आरोप है कि इस साल का बजट भी आधा-अधूरा ही है.
दरअसल, ये लाइब्रेरी एक ऐसे वक़्त की गवाह है, जब देश के नहीं बल्कि दूसरे देशों के लोग भी यहां मौजूद ज्ञान का प्रकाश हासिल करने पहुंचते थे. इस लाइब्रेरी का बेहद ही शानदार अतीत रहा है. इसे संजोकर रखना सिर्फ़ बिहार के लिए नहीं, बल्कि पूरे मुल्क के लिए गौरव की बात है. मगर केन्द्र सरकार की उदासीनता इस बात की गवाही दे रही है कि उसके लिए तालीम का मतलब भी तबक़ों और फिरक़ों में बंट चुका है.
सवाल यह है कि प्रधानमंत्री कार्यालय के कान पर जूं क्यों नहीं रेंग रही है? सवाल यह भी है कि इस तथ्य के जानकारी में लाए जाने के बाद भी क्यों पीएमओ हाथ पर हाथ धरे बैठा है? कहीं ये इस लाइब्रेरी को इतिहास के में दफ़न करने की साज़िश तो नहीं?
हालांकि बीते मंगलवार को राज्यपाल रामनाथ कोविन्द की अध्यक्षता में ख़ुदा बख्श ओरिएंटल पब्लिक लाइब्रेरी के बोर्ड की बैठक हुई. इस बैठक में केन्द्र सरकार के प्रतिनिधि के तौर पर मानव संसाधन विकास मंत्रालय के संयुक्त सचिव पंकज राग भी शामिल हुए. इसमें यह निर्णय लिया गया कि लाइब्रेरी के निदेशक की नियुक्ति प्रक्रिया शीघ्र पूरी की जाएगी. वर्षों से बंद पड़ा ‘खुदा बख्श अवार्ड’ फिर से चालू होगा. साथ ही इस लाइब्रेरी के विभिन्न रिक्त पदों की नियुक्ति प्रक्रिया प्रारंभ करने के लिए नियामवली में संशोधन कर अनुमोदन के लिए केन्द्र सरकार को भेजा जाएगा.
बैठक में यह भी निर्णय हुआ कि नव-निर्मित भवन में लाइब्रेरी के स्थानान्तरण के साथ-साथ, पुराने भवन की मरम्मत एवं सुदृढ़ीकरण के लिए डीपीआर तैयार कर भारत सरकार को भेजा जायेगा. पुरानी महत्वपूर्ण पुस्तकों के रख-रखाव को सुदृढ़ करने की भी व्यवस्था होगी. बोर्ड की अगली बैठक फरवरी, 2017 के अंतिम सप्ताह में करने का निर्णय लिया गया. लेकिन इस लाइब्रेरी से हमदर्दी रखने वालों का मानना है कि इस बैठक का कोई औचित्य नहीं है. ऐसी कई बैठकें इससे पूर्व में भी हो चुकी हैं और यह सारे निर्णय पिछले बैठक में भी लिए गए थे.
बताते चलें कि भारत की सबसे प्राचीन लाइब्रेरियों में से एक यह लाइब्रेरी दक्षिण तथा मध्य एशिया की बौद्धिक और सांस्कृतिक विरासत का सबसे बड़ा भंडार है. छपरा के मौलवी ख़ुदा बख़्श ख़ान के द्वारा संपत्ति एवं पुस्तकों के निज़ी दान से शुरु हुई यह लाइब्रेरी देश की बौद्धिक संपदाओं में काफी प्रमुख है. ख़ुदा बख़्श ख़ान के उस दान में लगभग चौदह सौ पांडुलिपियां और कई दुर्लभ पुस्तकें शामिल थीं. ख़ुदा बख़्श ख़ान ने 1888 में लगभग 80 हज़ार रुपये की लागत से एक दो-मंज़िले भवन में इस लाइब्रेरी की शुरुआत की. 05 अक्टूबर, 1891 को गवर्नर सर चार्ल्स एलिट के हाथों इसका विधिवत उद्घाटन कराकर जनता की सेवा में समर्पित कर दिया. उस समय पुस्तकालय के पास अरबी, फ़ारसी और अंग्रेज़ी की चार हज़ार दुर्लभ पांडुलिपियां मौज़ूद थीं. इन दिनों यह संख्या क़रीब 21 हज़ार है. क़ुरआन की प्राचीन प्रतियां और हिरन की खाल पर लिखी क़ुरानी पृष्ट भी मौजूद हैं. इसके अलावा हज़ारों की संख्या में जर्मन, फ्रेंच, पंजाबी, जापानी व रूसी, अरबी, फारसी, उर्दू, अंग्रेजी और हिंदी में मुद्रित पुस्तकें हैं.
भारत सरकार ने संसद में 1969 में पारित एक विधेयक द्वारा इसे राष्ट्रीय महत्व के संस्थान के रूप में प्रतिष्ठित किया. इस लाइब्रेरी के अवैतनिक अध्यक्ष बिहार के राज्यपाल होते हैं. यह लाइब्रेरी पूरी तरह भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय के अनुदानों से संचालित है.