अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net
पटना : नीतिश कुमार हमेशा से शिक्षा के ज़रिए सूबे की तक़दीर बदलने का दावा करते नज़र आए हैं. पिछले दिनों अपनी वर्तमान सरकार के एक साल पूरे होने पर जारी किए गए रिपोर्ट कार्ड में शिक्षा को लेकर एक से बढ़कर एक उपलब्धियों की जानकारी दी है. मगर ज़मीनी तस्वीर इससे एकदम अलग है.
ये बात वही लोग कह रहे हैं, जो शिक्षा के क्षेत्र में अरसे से सक्रिय हैं और इस क्षेत्र के हर डेवलपमेंट को बहुत क़रीब से देखते आए हैं.
बिहार शिक्षा अधिकार मंच से जुड़े सुरेश प्रसाद का कहना है, ‘सरकार कहती बहुत कुछ है, लेकिन वो जो कहती है, वो करती नहीं हैं. और जो करती है वो दिखता नहीं है. सरकार ने जितने स्कूल खोलने की बात कही है, उसमें से एक भी धरातल पर नहीं है. सिर्फ़ विद्यालयों को उत्क्रमित करने का काम किया गया है. प्राथमिक को मध्य, मध्य को उच्च माध्यमिक और उच्च माध्यमिक को उत्क्रमित करके उच्चतर माध्यमिक कर दिया गया है. लेकिन दुर्भाग्य की बात यह है कि इनमें शिक्षकों का पदस्थापन नहीं किया गया. वही प्राथमिक के शिक्षक मध्य स्तर के छात्रों को पढ़ा रहे हैं. वर्तमान में यहां के स्कूल सिर्फ़ सर्टिफिकेट बांटने का काम कर रही हैं. वास्तव में सरकार बच्चों को शिक्षा नहीं दे रही है.’
सुरेश प्रसाद पटना के अदालतगंज के कन्या मध्य विद्यालय में सहायक शिक्षक से लेकर यहां के प्रभारी प्रधानाध्यापक रहते हुए 2014 में सेवानिवृत्त हुए हैं. इस दौरान वो शिक्षक संघ से जुड़े रहे. बिहार शिक्षा अधिकार मंच के ज़रिए शिक्षा, समाज के दबे-कुचले तबक़ों के शिक्षा और शिक्षा नीति के संदर्भ में हमेशा अलग-अलग तहरीक से जुड़े रहे हैं.
आशुतोष कुमार राकेश पटना के एक मध्य विद्यालय में विज्ञान के शिक्षक हैं. साथ ही बिहार राज्य प्राथमिक शिक्षक संघ से जुड़े हुए हैं. 1996 से लगातार शिक्षकों के समस्या पर काम कर रहे हैं. उनके मुताबिक़ इन्होंने हमेशा उस शिक्षा नीति का विरोध किया जो आम लोगों के हक़ में हैं.
आशुतोष कुमार राकेश एक लंबी बातचीत में बताते हैं, ‘नीतिश कुमार सिर्फ़ दावे व वादे पर टिकी हुए हैं. ज़मीन पर कोई कार्य नहीं है. 50 फ़ीसदी शिक्षक गैर-शैक्षिक कार्यों में लगा दिए गए हैं. जिनका काम स्कूल में बच्चों को पढ़ाने का है, वो सरकार के दूसरे कामों में लगे हुए हैं.’
बिहार में शिक्षा जगत से जुड़े अन्य जानकारों के मुताबिक़ नीतिश कुमार की तमाम योजनाएं व क़दम सिर्फ़ काग़ज़ों की शोभा बढ़ाते रह गए. ज़मीन पर आज भी ग़रीब और पिछड़े समुदाय के बच्चों के लिए न स्कूल जाने की सुविधा है और न ही अन्य सुविधाएं हैं. सरकारी स्कूलों में शिक्षा की गुणवत्ता की तो बात ही मत पूछिए. पढ़ाई की गुणवत्ता उन्हीं स्कूलों में रह गई है, जो न सिर्फ़ ऊंचे तबक़े के लोगों के लिए हैं बल्कि उनकी फ़ीस और अन्य शुल्क इस क़दर विकराल होते जा रहे हैं कि आम इंसान के बस की बात नहीं.
पटना में रहने वाले 85 साल के प्रो. वसी शिक्षा के इस पूरे मसले को एक अलग नज़रिए से देखते हैं. TwoCircles.net के साथ एक लंबी बातचीत में वो बताते हैं, ‘शिक्षा हमेशा से पूरी दुनिया में एक राजनीतिक सवाल रहा है. कौन पढ़ेगा? कौन नहीं पढ़ेगा? और पढ़ेगा तो कितना पढ़ेगा? सच तो यह है कि रूलिंग क्लास की दिलचस्पी इस बात में कभी नहीं होती कि सबको सही शिक्षा मिल जाए.’
वो आगे बताते हैं, ‘रामायण में शंभू के कान में शीशा डालकर उसका वध क्यों कर दिया जाता है? महाभारत में एकलव्य का अंगूठा काट दिया गया. उसका जुर्म क्या था? इतिहास के इन सवालों का जवाब ढूंढिएंगा तो वर्तमान की शिक्षा की सारी नीतियां खुद-ब-खुद समझ में आ जाएंगी.’
प्रो. वसी के मुताबिक़ ईल्म पर पहरेदारी हर दौर में रहा है. ये हमेशा से सत्ता की धरोहर रही है. बिहार के स्कूलों में कपड़ा मिलेगा, साईकिल मिलेगी, स्कॉलरशिप मिलेगी लेकिन पढ़ाई नहीं मिलेगी. अप्रैल में सत्र शुरू होता है और किताबें सितम्बर-अक्टूबर के बाद मिलती हैं.
TwoCircles.net ने बिहार के कई ज़िलों में जाकर सरकारी स्कूलों का मुआयना किया. ख़ासतौर पर प्राथमिक विद्यालयों में शिक्षा व्यवस्था को दुरस्त करने के दिशा में काफी प्रयास का दावा सरकार हमेशा करती नज़र आई है, लेकिन धरातल पर तो कहीं भी प्राथमिक शिक्षा का हाल बेहतर नहीं दिखता है. भवन व भूमि के अभाव से लेकर शिक्षकों तक की कमी प्राथमिक शिक्षा की बदहाली का सबसे बड़ा कारण है. आलम तो यह है कि आज के ज़माने में भी बच्चे ज़मीन पर बोरे व चटाई पर बैठकर शिक्षा ग्रहण करने को बेबस हैं. यह स्थिति सिर्फ़ प्राथमिक विद्यालयों तक ही सीमित नहीं है. माध्यमिक विद्यालयों में भी कक्षा की कमी से लेकर संसाधनों का अभाव एक बड़ी समस्या है. उच्च शिक्षा की हालत भी राम भरोसे ही नज़र आया.
ऐसे में देखें तो बिहार में शिक्षा का ढांचा ही खड़ा नहीं हो सका है. दूर-दराज के इलाक़ों में हालात बेहद ही चिंताजनक और बिखरे हुए प्रतीत होते हैं. ऐसे में नीतिश कुमार अपने रिपोर्ट कार्ड में उपलब्धियां गिनाकर अपने राजनीतिक संदेश को पुख्ता ज़रूर कर सकते हैं, मगर जब तक ज़मीनी स्तर पर कोई ठोस कार्रवाई नहीं होगी तो इस संदेश के मायने सिर्फ़ कागज़ों पर ही रह जाएंगे.
खुद सूबे के आईटी एवं शिक्षा मंत्री अशोक चौधरी शनिवार 17 दिसम्बर को गया जिले के एक कॉलेज में शिलान्यास व उद्घाटन समारोह में खुलेआम कह चुके हैं कि ‘बिहार बजट का 25 प्रतिशत पैसा शिक्षा पर खर्च कर रहा है. खर्च करने के मामले में हम प्रथम स्थान पर है. लेकिन गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देने में नीचे से तीसरे स्थान हैं. इतनी बड़ी राशि करने के बाद उसका कोई आउटपुट नहीं मिल रहा है. हम सरकारी विद्यालय और महाविद्यालयों में बच्चों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देने में बहुत पीछे हैं.’
बताते चलें कि बिहार प्राचीनकाल से ही शिक्षा का प्रमुख केन्द्र रहा है. शिक्षा का प्रमुख केन्द्र नालन्दा विश्वविद्यालय, विक्रमशिला विश्वविद्यालय, वर्जासन विश्वविद्यालय एवं ओदन्तपुरी विश्वविद्यालय थे. मध्यकाल में भी यही कहानी रही. हालांकि इस समय अधिकांशत: मुस्लिम ही उच्च शिक्षा ग्रहण करते थे. शिक्षा का माध्यम फ़ारसी ज़रूर था, लेकिन बावजूद इसके संस्कृत के भी यहां कई शिक्षण संस्थान थे.