TwoCircles.net Staff Reporter
‘आपकी मानसिकता भेदभावपूर्ण है तो आप भलाई का काम नहीं कर सकते. यह भेदभाव सामाजिक ही नहीं, सरकारी स्तर पर होता है. 1950 का वो परिपत्र अभी तक नहीं बदला गया है, जिसमें संवेदनशील पदों पर मुसलमानों को नहीं रखने की बात लिखी गई है.’
इन बातों को वरिष्ठ पत्रकार कुर्बान अली ने सच्चर समिति रिपोर्ट के 10 साल पूरा होने पर सोशलिस्ट युवजन सभा (एसवाईएस), पीयूसीएल और खुदाई खिदमतगार के ज़रिए दिल्ली में 22 दिसंबर को आयोजित एक संगोष्ठी रखा.
आगे कुर्बान अली ने कहा कि -‘सच्चर समिति की रिपोर्ट पर मुसलमानों के तुष्टीकरण का आरोप लगता रहा है. हालांकि इस रिपोर्ट में कुछ भी नया नहीं था. ये सारे आंकड़ें ‘मुस्लिम इंडिया’ के अंक में लगातार प्रकाशित हो चुके थे. खैर, मधु लिमये जी ने एक जनसभा को संबोधित करते हुए एक सवाल खड़ा किया था कि मुसलमानों का तुष्टीकरण कहां हो रहा है? क्या वह सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और शैक्षिक स्तर पर हुआ है?’
इस संगोष्ठी को संबोधित करते हुए पूर्व केंद्रीय मंत्री मणिशंकर अय्यर ने कहा कि –‘तुष्टीकरण का आरोप एक गलत सोच का नतीजा है. जब हिंदू पर्सनल लॉ है तो मुस्लिम पर्सनल लॉ पर आपत्ति नहीं होनी चाहिए. विविधता भारत की पहचान है. यूनिफार्म सिविल कोड के लागू करने के पीछे सबकी समानता का विचार न होकर, मुस्लिमों की पहचान ख़त्म करने की मंशा है.’
उन्होंने स्वीकार किया कि सच्चर की सिफ़ारिशों पर कांग्रेस की सरकारों ने भी वाजिब काम नहीं किया. इन सिफ़ारिशों को लागू किया जाना चाहिए.
वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैय्यर ने सच्चर कमेटी की रिपोर्ट के संदर्भ में कहा कि –‘इस रिपोर्ट ने असलियत से पर्दा उठाने का काम किया है. मुस्लिमों को उनके अधिकार मिलें. आज के समय में मुस्लिमों की स्थिति बद से बदतर हुई है. उनके साथ अच्छा बर्ताव नहीं हो रहा है. पहले राजनीति को मज़हब से नहीं जोड़ा जाता था, मगर आज राजनीति पर मज़हब हावी हो गया है. संविधान के तहत सभी समान हैं. हम सभी को अपना दिल टटोलना चाहिए कि हम कैसा समाज चाहते हैं. सच्चर रिपोर्ट आज भी उतनी प्रासंगिक है, जितनी वह पहले थी.’
सच्चर समिति के सदस्य रहे प्रो. टी.के ओमन ने कहा कि –‘सच्चर रिपोर्ट एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ है. इस रिपोर्ट के ज़रिए मुस्लिम समाज के बहाने पूरी भारतीय समाज की झलक मिलती है. मनुष्य को जीवन जीने के लिए सिर्फ़ रोटी ही नहीं, बल्कि समानता, सुरक्षा, पहचान और सम्मान भी चाहिए. आज अल्पसंख्यक समुदाय में जिन लोगों के पास भौतिक संसाधन मौजूद हैं उन्हें भी नागरिक के नाते सम्मान नहीं मिलता जिसके संविधान के तहत वह अधिकारी हैं. सुरक्षा की जब हम बात करते हैं तो हम शारिरिक हिंसा को ही हिंसा मानते हैं, मगर हिंसा संरचनात्मक और प्रतीकात्मक भी होती है जिसे समझना अति आवश्यक है. मुसलमानों को इस तरह की हिंसा का अक्सर सामना करना पडता है. उदाहरण के लिए उन्हें बीफ़ खाने का वाला बताने का मामला मनोवैज्ञानिक और मानसिक उत्पीड़न का जीता-जागता उदाहरण है.’
सच्चर समिति में सरकार की तरफ़ से ओएसडी नियुक्त किए गए सय्यद महमूद ज़फ़र ने बताया कि –‘मुसलमान भारत में 14.2 प्रतिशत हैं, जो तमाम अल्पसंख्यक समुदायों के 73 प्रतिशत हैं. अनुच्छेद -46 में समाज के कमज़ोर वर्गों को विशेष देख-रेख का प्रावधान है. सच्चर रिर्पोट के अनुसार मुस्लिम समाज सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक स्तर पर खासा पिछड़ा हुआ है और 2006 से इनका स्तर नीचे गिरता जा रहा है. सच्चर की सिफ़ारिशों में से अब तक मात्र 10 प्रतिशत ही लागू किया गया है. इसका एक बड़ा कारण प्रशासनिक पदों पर मुस्लिमों का नाम-मात्र का प्रतिनिधित्व भी है.’
जमीयत उलेमा-ए-हिंद के महासचिव मौलाना महमूद मदनी ने कहा कि –‘आज मुसलमानों के प्रति समाज में विश्वास ख़त्म होता जा रहा है. सामाजिक तौर पर आज वह अलग-थलग पड़ गए हैं. मुसलमान होना आज ख़तरे का निशान बन चुका है. हमें मुस्लिम बच्चों व युवाओं की तालीम पर ध्यान देना चाहिए तथा सरकार और मीडिया को भी इस मुद्दे पर ध्यान देना चाहिए.’
जमात-ए-इस्लामी हिंद के महासचिव डॉ. सलीम इंजीनियर ने कहा कि –‘सच्चर की सिफ़ारिश से पहले भी कई सिफ़ारिशें की गई, मगर यह अलग और अनूठी रिपोर्ट है. वास्तविक है. ज़मीनी स्तर पर काम किया गया है. लेकिन क्या कारण है कि ऐसी चर्चित रिपोर्ट के बावजूद अल्पसंख्यकों की वास्तविक स्थिति में कोई बदलाव नहीं आ रहा है? इसके पीछे का कारण है सरकार और राजनैतिक पार्टियों की नीयत में खोट और प्रतिबद्धता की कमी. भारतीय जेलों में सबसे ज्यादा संख्या में अल्पसंख्यक मौजूद हैं. ‘सबका साथ –सबका विकास’ एक भावनात्मक जुमला है, वास्तविकता इसके उलट है.’
दिल्ली यूनिवर्सिटी के डॉ. प्रेम सिंह ने इस संगोष्ठी के अंत में निष्कर्ष वक्तव्य देते हुए कहा कि –‘सच्चर समिति की रिपोर्ट सिर्फ़ आंकड़ें नहीं देती, बल्कि सभ्य समाज के क्या तकाजे हैं? एक सभ्य समाज के रूप में भारत को दुनिया में कैसे रहना चाहिए? उसकी जानकारी देती है. सच्चर की सिफ़ारिशों पर अमल बहुत कम और वादे बहुत ज्यादा हुए हैं. हमें एक समतामूलक, लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष समाज की ओर बढ़ना चाहिए था, मगर नतीजा उसके उलट है.’
इस संगोष्ठी में जस्टिस राजेन्द्र सच्चर में मौजूद रहें. इस संगोष्ठी का मक़सद यह जानना था कि समिति की सिफ़ारिशों पर पिछले दस सालों में कितना अमल हुआ है. संगोष्ठी के अंत में एक प्रस्ताव भी पेश किया गया, जिसे गांधी पीस फाउंडेशन की सभागार में मौजूद लोगों ने स्वीकार किया. प्रस्ताव में ख़ास तौर पर सच्चर की सिफ़ारिशों के आधार पर मुस्लिम बहुल विधानसभा सीटों को अनारक्षित करने और समान अवसर आयोग बनाने की मांग की गई.