Afroz Alam Sahil, TwoCircles.net
देशद्रोह… कन्हैया कुमार… जेएनयू… लगभग पिछले दस दिनों से देश की राजनीति, ख़बरें, मुहल्ले की चर्चाएं इन तीन शब्दों में सिमटी नज़र आती हैं. कन्हैया कुमार देशद्रोह का चेहरा बन गए हैं और जेएनयू इसका अड्डा. लेकिन ‘देशप्रेम’ और ‘देशद्रोह’ की राजनीति करने वाले जानते हैं कि कन्हैया कुमार को ‘देशद्रोह’ का ‘पोस्टर ब्वाय’ बनाना अन्त में उनके लिए फ़ायदे का सौदा साबित नहीं होगा.
इसलिए यह बहुत ज़रूरी है कि अब इस ‘देशद्रोह’ मामले को कोई मुस्लिम चेहरा दे दिया जाए. क्योंकि अफ़ज़ल गुरू के साथ कन्हैया कुमार को जोड़ना उनको अटपटा लगता है और इससे उनके राजनीतिक हित भी नहीं सधते. कट्टर हिन्दूवादी संगठन वामपंथियों के ख़िलाफ़ रहे हैं. और कन्हैया कुमार भी वामपंथी हैं. लेकिन बौद्धिक स्तर पर यह एक सीमित समूह के लिए तो इन दोनों का टकराव समझ में आने की बात हो सकती है, लेकिन आम जनता के लिए कन्हैया कुमार एक हिन्दू ही हैं या कम से कम उनका नाम तो हिन्दू ही है.
दरअसल, रोहित वेमुला प्रकरण पहले ही हिन्दूवादियों को चोट पहुंचा चुका है और बहुजनों व ब्रहमणों के बीच खाई स्पष्ट दिखाई देने लगी है. अब हिन्दूवादी संगठन एक और हिन्दू चेहरे को ज़्यादा दिनों तक ‘राष्ट्रद्रोही’ के रूप में प्रचारित करके नुक़सान नहीं उठाना चाहेंगे. इसलिए बहुत मुमकिन है कि कन्हैया कुमार ज़मानत पर बाहर आ जाएं और जेएनयू में हुए नारेबाज़ी के लिए कुछ मुस्लिम चेहरों को गिरफ़्तार कर लिया जाए. फिर देशद्रोह का ठप्पा अपनी सही जगह पर लगेगा या कम से कम उस जगह जिससे हिन्दूवादियों को फ़ायदा है.
मुसलमानों को देशद्रोही के रूप में प्रचारित करना राजनीतिक रूप से धर्म की राजनीति करने वालों के लिए फायदे का सौदा होगा. इसलिए अगर राष्ट्रद्रोह का कोई मुस्लिम चेहरा आपके सामने आ रहा है तो चौंकिएगा मत. यह एक सोची-समझी एक रणनीति के तहत उठाया गया हिन्दूवादी सत्ता का अगला राजनीतिक क़दम भी हो सकता है.
मीडिया ने तो उमर खालिद नाम का एक चेहरा भी चुन लिया है. टीवी स्क्रीन पर लाल घेरों में उसका चेहरा भी दिखाया जाने लगा है. टीवी चैनलों के एंकर नाम लेकर उसे देशद्रोही बताने में जुट गए हैं.
मीडिया के ज़रिए बताया जा रहा है कि उमर खालिद ‘देशद्रोही नारों’ का ‘मास्टरमाईंड’ है. बल्कि कुछ टीवी चैनलों ने तो उसे आतंकी संगठनों से भी जोड़कर यह भी बता रहे हैं कि उमर खालिद पाकिस्तान जाकर ट्रेनिंग भी ले चुका है. एक चैनल का तो यह भी दावा है कि इसके संबंध आईएसआईएस से भी हैं.
ख़ैर, कन्हैया के बाद अब दिल्ली पुलिस को उमर खालिद की तलाश है. उमर खालिद पर गंभीर आरोप है कि उसने जेएनयू में अफ़ज़ल गुरू की याद में ‘शहीदी दिवस’ मनाते हुए ‘भारत विरोधी’ नारे लगाएं. ये आरोप बेहद ही गंभीर हैं. अगर इसमें सच्चाई है तो उमर ख़ालिद पर निसंदेह कार्रवाई होनी चाहिए.
मगर यहां कुछ सवाल भी खड़े होते हैं कि आख़िरकार दिल्ली पुलिस अभी तक उमर ख़ालिद की कथित ‘भारत विरोधी’ गतिविधियों का सबूत क्यों नहीं पेश कर रही है? आख़िर मीडिया द्वारा किस आधार पर उसे ‘भारत विरोधी’ साबित किया जा रहा है? क्यों अचानक उमर खालिद के नाम को रातों-रात आगे कर दिया गया है? क्यों मीडिया में सारी बहस एक ही नाम पर केन्द्रित होती जा रही है? जबकि उमर के साथ बनोज्योत्सना लाहिरी, अनिर्बन भट्टाचार्या, कोमल भारत मोहिते जैसे 9 और छात्र-छात्राओं का नाम हैं. उमर खालिद के बहाने कहीं ये विभाजनकारी राजनीत को चमकाने की कोशिश तो नहीं हो रही है?
इस मुल्क में किसी को भी भारत विरोधी गतिविधियां करने की इजाज़त नहीं दी जा सकती है. चाहे वो किसी भी नस्ल, धर्म-मज़हब, जाति का हो, मुल्क से गद्दारी किसी भी सूरत में किसी को भी मंज़ूर नहीं है. मगर क़ानून किसी भी तरह के गंभीर से गंभीर आरोपों का सबूत मांगता है. आख़िर क्यों उन सबूतों से मुंह चुराया जा रहा है? क्यों मीडिया उमर खालिद के घर वालों का पक्ष नहीं रख रही है. क्यों उमर के बैकग्राउंड पर तवज्जों नहीं दी जा रही है? यह सोचने वाली बात है कि जो शख्स इस्लाम को ही नहीं मानता, वो जेहादी कैसे बन गया?
यह सारे सवाल बेहद ही गंभीर हैं और संवेदनशील भी. इससे पहले कि ये सवाल साम्प्रदायिक राजनीति के चिंगारी का रूप ले ले, इसका जवाब हमें ज़रूर तलाश कर लेना चाहिए.
उमर खालिद जिस परिवार से ताल्लुक़ रखता है, वो लोग भी अब खुलकर सामने आ गए हैं. उनके मुताबिक़ उमर कम्यूनिस्ट सोच से प्रभावित है. वो मज़दूरों-किसानों समेत दबे-कुचले तबक़ों के हक़ की बात करता है, पर वो भारत विरोधी क़तई नहीं हो सकता. उनका यह भी कहना है कि जब उमर के पास पासपोर्ट ही नहीं है, तो पाकिस्तान कैसे चला गया?
उमर ख़ालिद के पिता डॉ. क़ासिम रसूल इलियास ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के एक्सक्यूटिव कमिटी के सदस्य और वेलफेयर पार्टी ऑफ इंडिया के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं. वो पूरी ज़िम्मेदारी के साथ उमर का पक्ष रखते हुए बताते हैं कि –‘इस बात की खोज होनी चाहिए कि नारे किसने लगाएं? जो लड़का भारत के आम आदमी की लड़ाई लड़ रहा हो. देश के किसानों, दलितों और आदिवासियों की लड़ाई लड़ रहा हो. जिसकी पूरी ज़िन्दगी जंतर-मंतर पर शोषित वर्ग के अधिकारों के संघर्ष में गुज़र गई हो. जो भारत के आदिवासियों पर पीएचडी कर रहा हो. जिसे विदेशों से पढ़ने का ऑफर मिल रहा हो, लेकिन जिसने विदेशी स्कॉलरशिप को ठुकरा कर अपने देश में रहना पसंद किया हो, वो लड़का देशद्रोही कैसे हो सकता है.’
उनका स्पष्ट तौर पर कहना है कि –‘उमर को ज़बरदस्ती फ्रेम किया जा रहा है. वो एक बड़ी साजिश का शिकार हुआ है. उमर को देशद्रोही किस आधार पर कहा जा रहा है और वो आधार ‘देशद्रोह’ है या नहीं, इसका फैसला कोर्ट को करने दिया जाए तो बेहतर होगा.’
पिता के इन बातों को कुछ देर के लिए दरकिनार कर दिया जाए तो पूरे मामले में यह आशंका भी सर उठाती जा रही है कि कहीं उमर ख़ालिद के नाम पर पूरे मामले को साम्प्रदायिक रंग देने की कोशिश तो नहीं की जा रही है. जिस तरह से मीडिया ट्रायल चल रहा है और जिस तरह से बीजेपी ने इस मुद्दे को हाथों-हाथ उठा लिया है और अब जिस तरह से संसद समेत देश का माहौल गर्माने की तैयारी हो रही है, उसमें उमर ख़ालिद कहीं सबसे माकूल चेहरा तो नहीं साबित होगा? क्योंकि बीजेपी जिस पॉलिटिक्स की आदी हो चुकी है, उसके लिए तो उमर खालिद का नाम व चेहरा दोनों ही सुट करता है.
यहां यह भी स्पष्ट रहना चाहिए कि अगले कुछ महीनों व सालों में कई अहम राज्यों में चुनाव होने हैं. चुनावों को मुद्दा चाहिए. देश को मुसलमानों से ख़तरा हिन्दू वोटों को जोड़ने का मुद्दा हो सकता है.
कन्हैया कुमार के लिए हज़ारों लोग सड़कों पर भी उतरे हैं. प्रदर्शनों ने सरकार की नींद भी हराम की है. और कन्हैया को गिरफ़्तार किए जाने पर मीडिया में भी व्यापक चर्चा हुई है. लेकिन कल जब ‘देशद्रोह’ को एक मुस्लिम चेहरा मिलेगा तो न इस पर प्रदर्शन होंगे और न बहसें. होगा सिर्फ़ ये कि कुछ नौजवान देशद्रोही के आरोप में कुछ महीनों या सालों के लिए जेल चले जाएंगे और हिन्दूवाद के कट्टर समर्थकों को यह संदेश मिलेगा कि उनकी प्यारी सरकार मुसलमानों को उनकी जगह दिखा रही है. और साथ ही जेएनयू में कार्रवाई पर घिड़ी सरकार को इस मुद्दे का फ़ायदेमंद अन्त मिल जाएगा.