Fahmina Hussain, TwoCircles.net
सच्चर कमिटी रिपोर्ट के मुताबिक़ ग्रामीण इलाकों में मुस्लिम आबादी के 62.2 प्रतिशत के पास कोई ज़मीन नहीं है, जबकि इसका राष्ट्रीय औसत 43 प्रतिशत है. यहां तक कि शहरी इलाकों में 60 प्रतिशत मुस्लिम स्कूलों का मुंह नहीं देख पाते हैं. ग्रामीण इलाकों में गरीबी रेखा से नीचे के 94.9 प्रतिशत मुस्लिम परिवारों को मुफ्त राशन नहीं मिलता है.
महिला एवं बाल विकास मंत्रालय द्वारा मुस्लिम महिलाओं की शैक्षणिक प्रगति की योजना तैयार करने के उद्देश्य से बनाई गई एक रिपोर्ट में बताया गया है कि मुस्लिम लड़कियों का उच्च शिक्षा से दूर रहने के सबसे सामान्य कारण उनकी युवावस्था, महिला टीचर की कमी, लड़कियों के लिए अलग स्कूल न होना, परदा प्रथा, धर्मनिरपेक्ष शिक्षा का विरोध, जल्दी शादी होना और समाज का विरोधी और दकियानूसी रवैया है. यानी मुस्लिम औरतों के हक़ तथा तालीम की राह का इतिहास बड़ा पेचीदा है.
इन ही सारी बातों को रखते हुए ‘बेबाक कलेक्टिव’ द्वारा आयोजित ‘मुसलमान औरतों की आवाज़: सड़क से संसद तक’ विषय पर दो दिवसीय सम्मेलन के आख़िरी दिन इन मुद्दों पर चर्चा हुई. भारत के 14 राज्यों से आई महिलाओं ने जहां इस आयोजन में अपने उपस्तिथि दर्ज कराई, वहीं समाज में औरतों की हक़ और अधिकारों पर गहराई से चर्चा की गई.
इस दो दिवसीय सम्मेलन के आख़िरी दिन हमने ऐसी कई महिलाओं से बात की जो अपने अधिकार को पाने की लड़ाई लड़ रही हैं और साथ ही ऐसी कई औरतें जो मुस्लिम और मज़लूम औरतों की आवाज़ बन रही हैं.
जुलेखा बानो बताती है वो सालो पहले अपने पति से अलग हो गई थी, क्यूंकि उनके पति कोई काम नहीं करते थे, ना ही उनको कभी घर से निकलने देते थे. छोटे-छोटे चार बच्चों को पालना जब मुहाल हो गया, तब उन्होंने अपने दम पर ‘खुला’ लेकर अपने बच्चों को जहां पाला-पोसा, वहीं नारी-शक्ति नामक संस्था से भी जुडी. अपनी संस्था के द्वारा कोई ऐसी औरतों के अधिकार के लिए लड़ी, जो घरेलु हिंसा की शिकार रहीं.
रुकैया खातुन बताती हैं कि इस्लाम में लड़की की पसंद की शादी का पूरा अधिकार दिया गया है, लेकिन हमारे समाज के कुछ ठेकेदारों को ये पसंद नहीं है, जिसके लिए कहीं पसंद की शादी पर फ़तवा जारी किया जाता है तो कहीं खाप पंचायत जैसे समूह के लोग सर क़लम करने से भी बाज नहीं आते हैं.
ज़या जो कि लॉ की प्रोफेसर हैं, उनका कहना है कि मुसलमान औरतें कभी पीछे नहीं रहीं, चाहे वो खिलाफ़त आंदोलन हो या असहयोग आंदोलन या फिर भारत छोड़ो आंदोलन… मुसलमान महिलाओं की इन सभी में काफी बड़ी हिस्सेदारी रही है.
तब्बसुम जो कि पेशे से टीचर हैं, बताती हैं कि शादी से पहले वो घर के आस-पास की ग़रीब लड़कियों को क़ुरआन पढ़ाती थीं, लेकिन अब वो तालीम के साथ-साथ उन्हें सिलाई-कढ़ाई और खाना बनाने की भी तालीम देती हैं. ताकि मुस्लिम लड़कियां अपने आपको घरेलु ज़िंदगी को भी सही तरीके से अपनी ज़िम्मेदारी को निभा सकें.
जाहिदा जो कि सोशल वर्कर हैं, कहती हैं कि मानवाधिकार का सवाल आज नया है, परंतु इतिहास में यह पहले से मौजूद रहा. हम वहीं औरतें हैं, जो अपनी निगरानी में महल तामीर कराती हैं, बाग लगवाती हैं, नहरे निकलवाती हैं, मस्जिदें और मदरसे, मुसाफिर-खाने और कुतुब खाने (पुस्तकालय) बनवाती हैं. आज लड़कियां हर चीज़ में आगे हैं, लेकिन ये भी सच है कि आज भी हमारे समाज में ऐसी कितनी ही औरतें हैं जो घर की चार-दिवारी में अपनी ज़िंदगी बिताने को बेबस हैं.
स्पष्ट रहे कि मुसलमानों के खिलाफ़ बढ़ते द्वेष के कारण औरतों को समुदाय की इज़्ज़त का प्रतीक बना दिया जाता है और खुद मुस्लिम परिवार और समाज उन पर हर तरह की रोक-टोक लगाता है. इन कड़वी गोलियों को खुद औरतों की सुरक्षा की नाम पर निगलवाने की कोशिश करती है. ऐसे में मुसलमान औरतों की शिक्षा, उनके आनेजाने और नौकरी तक पर रोक लग जाती है. लेकिन अब हर तरफ़ से बात साफ़ है कि देश के हालातों पर ध्यान देना होगा. जो इस दो दिवसीय सम्मेलन में बहस का सबसे अहम मुद्दा रहा.