By Bhanwar Meghwanshi
आपका अगर कोई भी काम नही हो पा रहा हो… सरकार मुख्य सचिव नहीं बना रही हो… या प्रमोशन में देरी हो रही हो… आपका ट्रान्सफर नहीं किया जा रहा हो… आप पर करप्शन का कोई असली या फ़र्जी केस चल रहा हो…
तो इस तरह के हर निजी परेशानी तथा सरकारी परेशानी का एक पुख्ता इलाज़ मिल गया है. यह अचूक औषधि उमराव सालोदिया उर्फ़ उमराव खान साहब ने हाल ही में खोजी है. उनको इसका काफी फायदा हुआ है. अब श्रवण लाल जो कि दलित पुलिस ऑफिसर हैं. वे भी इसका फायदा लेने वाले हैं. सुना है कि उन्होंने भी श्रवण लाल नहीं रहने का फैसला करने का मन बना लिया है. वे भी शायद जल्द ही श्रवण लाल के बजाय सरवर खान बन जायेंगे.
दरअसल, दलित समुदाय के कतिपय अफ़सरों ने प्रगति की नयी राह पकड़ ली है. वे जाति से रहित समाज का हिस्सा बनने का भी दावा करते दिखाई पड़ रहे हैं. उनके लिए इस्लाम कोई धर्म नहीं होकर एक अनलिमिटेड ऑफर की तरह है या किसी सरकारी स्कीम की तरह कि यह ना मिले तो वह ले लो जैसा.
पद न मिले, प्रमोशन ना मिले और यहाँ तक कि मनचाही जगह पर पोस्टिंग या ट्रान्सफर नहीं मिले तो इस्लाम कबूल कर लो. सरकार की अक़्ल ठिकाने आ जायेगी. मनुवादी हिन्दू डर के मारे थर-थर कांपने लगेंगे. संघ मुख्यालय नागपुर में भूचाल आ जायेगा. भाजपा का अध्यक्ष दढ़ियल अमित शाह भी ख़ौफ़ खायेगा.
सौ मर्ज़ की एक ही दवा है. वर्तमान युग का परखा हुआ नुस्खा है. देर मत कीजिये… इस्लाम क़बूल फरमाईये. मीडिया को बुलाइए. अपनी तकलीफ़ बयां कीजिये और लगे हाथों मासूमियत से यह भी बता दीजिये कि परेशानियां तो खूब रही ज़िन्दगी में, पर जबसे इस्लाम में रूचि बढ़ी है. तब से अल्लाह तआला का ऐसा करम फ़रमा है कि हर परेशानी से निज़ात हासिल हो गयी है. यहां तक कि जिस सड़ी, गली, गन्दी वाली जाति में जन्म लिया और जिसकी वजह से नौकरी वौकरी मिली, उस जात-समाज से भी मुक्ति मिल गयी है.
अब हम समानता के साथ जिएंगे इन गलीज़ दलितों से दूर… वैसे तो पहले भी हम तो इन गंदे लोगों से दूर ही रहे. नौकरी मिलते ही इनके गली-मोहल्ले तक छोड़ दिये थे. कभी मजबूरी में जाना भी पड़ा तो गए बाद में, आये उससे भी जल्दी. बच्चों को तो वैसे भी इन लोगों के बीच हमारा जाना कभी रास नहीं आया. मूर्ति पूजा के भी हम शुरू से ही घोर विरोधी ही रहे हैं. हमने तो उस काली कलूटी मूरत वाले अम्बेडकर की मूरत पर कभी दो फूल तक नहीं चढ़ाये. जिन इलाकों में पोस्टेड रहें, वहां मूर्ति तक नहीं लगने दी. हम तो सदैव क्रांतिकारी ही रहे. किसी तरह गिन-गिन कर दिन निकाले कि कब यह दलित होने के नाते मिली नौकरी का अभिशाप हमारा पीछा छोड़े. पेंशन के हक़दार हो जायें तो अपनाएं इस्लाम…
राजस्थान की फिजाओं में आजकल यही सब चल रहा है. सरकारी भेदभाव से नाराज़ दलित अफ़सरों में नाराज़गी ज़ाहिर करने का सबसे सुगम समाधान इस्लाम धर्म स्वीकार करना हो गया है. वह भी सिर्फ प्रचार पाने के लिए… मीडिया की लाइम लाइट मं आने के लिए… हिंदूवादी सरकार के साथ बार्गेनिंग करने के लिए…
सच तो यह है कि इन अवसरवादी अफ़सरों की इस तरह की हरकतों ने इस्लाम को ही एक मज़ाक जैसा बना डाला है. हर कोई कह रहा है. मेरी यह बात मानो, वह बात मानो वरना मैं इस्लाम कबूल कर लूंगा. इन लोगों की इस्लाम को लेकर इतनी सतही समझ है कि इन्होंने इस्लाम को शांति के बजाय बदला लेने का धर्म बना दिया है.
ऐसा सन्देश जा रहा है कि इस्लाम की दावत क़बूलने के लिए इस्लाम को समझने की कोई ज़रुरत नहीं है. सिर्फ किसी से नाराज़ होना ही काफी है. इस्लाम इतना सस्ता हो गया है कि कोई भी सरकारी अफ़सर अपने दफ्तर में जाये, थोड़ी देर बैठे. मौलवी को बुलाने के बजाय ख़बरनवीसों को बुलाये और इस्लाम क़बूल कर ले. हालात ऐसे हो गए है कि अब दलित अफ़सरान बिना क़लमा पढ़े ही ख़बरें गढ़कर ही मुसलमान हुये जा रहे हैं. आज की इस ताज़ा ख़बर पर भी लगे हाथों मुलाहिज़ा फरमाइए-
राजस्थान में इस्लाम क़ुबूल करेगा एक और दलित अफ़सर !
जयपुर : राजस्थान के आईएएस अफ़सर उमरावमल सालेदिया के बाद अब पुलिस अफ़सर श्रवण लाल भी इस्लाम मज़हब अपनाना चाहते हैं. श्रवणलाल ने ये इलज़ाम लगाया कि उनके दलित होने की वजह से उन्हें भेदभाव का सामना करना पड़ता है. मीडिया को बुलाकर उन्होंने कहा कि उनका बेवजह तबादला कर दिया गया, जबकि वो डेढ़ साल के बाद रिटायर होने वाले हैं और वो भी ऐसी हालत में जबकि उनकी बीवी अक्सर बीमार रहती हैं. अफ़सरों से अपनी परेशानी साझा करने के बाद भी उन्हें कोई राहत नहीं मिली. उनका कहना है कि हाई कोर्ट का हुक्म भी यहां लोग मानना नहीं चाहते. श्रवण लाल इस बीच इस्लाम से ख़ास प्रभावित हुए और अमन के मज़हब के क़रीब आने लगे. इस्लाम में ज़ात-पात का भेद ना होने की वजह से वो इस्लाम क़ुबूल करना चाहते हैं. (साभार: कोहराम डॉटकॉम)
सवाल ये है कि व्यवस्था से नाराज़ ये लोग कल इस्लाम में भी किसी बात से नाराज़ हो जायेंगे. मान लें की वे हज़ के लिए आवेदन करें और उनका नम्बर नहीं लगे तो नाराज़ होकर क्या घर वापसी कर लेंगे? अनुभव बताते है कि आवेश और बदले की नियत से, गुस्से में किसी को चिढ़ाने या दिखाने की गरज से किये जाने वाले धर्म-परिवर्तन अक्सर परावर्तन में बदल जाते हैं.
इस्लाम के अनुयायियों और इस्लामिक विद्वानों के लिए यह महत्वपूर्ण भूमिका अदा करने का समय है. उनकी ज़िम्मेदारी है कि वे इस्लाम को इस्तेमाल होने से बचाये. जिस तरह से भौतिक पद प्रतिष्ठाओं के मिलने या नहीं मिलने के कारण इस्लाम का सरेआम बेहूदे तरीक़े से ग़लत इस्तेमाल हो रहा है, यह इस्लाम की तौहीन से कम नहीं है.
इस पर इस्लामिक स्कॉलर्स को गहन चिंतन मनन करना चाहिए कि इस्लाम को बदनाम करने के प्रयासों पर कैसे रोक लगे. सिर्फ़ अख़बारी इस्लामिक क़बूल मात्र नहीं हो, बल्कि इस्लाम की न्यूनतम अर्हताओं की पूर्ति करने वाला सच्चा खोजी ही दीन की दहलीज़ तक पंहुच पाये.
रही बात हर मूर्खतापूर्ण धर्मान्तरण या मज़हब बदलने की घोषणा मात्र पर सड़कों पर आ कर ख़ुशी से नाचने वाले अति उत्साही मूलनिवासी बहुजन दलितों की तो यह उनके लिए भी आत्मचिंतन और मंथन का समय है. ब्राह्मणवादियों को सबक़ सिखाने के नाम पर कहीं वे बाबा साहब जैसे महामानवों के मिशन से खिलवाड़ तो नहीं कर रहे हैं? आज यह सवाल ज़रुरी है कि जो बाबा साहब को तो मानने का ढोंग करें किन्तु बाबा साहब की एक ना माने, ऐसे लोग दलित बहुजन मूवमेंट के दोस्त हैं या दुश्मन?
यह वक़्त उन भगौड़े दलित अधिकारी-कर्मचारियों के लिए भी सोचने और समझने का है कि कहीं उनकी ज़रा सी चूक पूरे इतिहास और बाबा साहब डॉ. भीमराव अम्बेडकर के संघर्ष को बर्बाद तो नहीं कर देगी? वैसे भी एक-दो राव, उमराव अथवा श्रवण लालों के इधर-उधर हो जाने से समाज में कुछ भी व्यापक बदलाव आने वाला नहीं है. सच यह है कि सभी दलित वंचित वक़्त, व्यवस्था और समाज नामक बहेलियों के जाल में फंसे हुए पखेरू है, अगर उन्होंने सामूहिक उड़ान ली तो जाल सहित उड़ सकते है, वरना तो स्वर्ग-नर्क को छोड़कर जन्नत तथा दोज़ख़ में गिरने जैसा ही है.
देखा जाये तो यह बदलाव कुछ भी नहीं है. यह एक फालतू की क़वायद है. जिसके पक्ष में नारे, ज्ञापन, रैलियां करके उसे प्रोत्साहित करने के बजाय हतोत्साहित किये जाने की ज़रुरत है.
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं. उनसे [email protected] पर सम्पर्क किया जा सकता है.)