TwoCircles.net Staff Reporter
लखनऊ : ‘दलित उत्पीड़न घटना नहीं, विचारधारा है. दलित उत्पीड़न के उन तमाम औजारों का इस्तेमाल देश के अल्पसंख्यक समुदाय के खिलाफ़ भी किया जाता रहा है. गाय के बहाने यदि अल्पसंख्यकों पर हमले होते हैं तो उन हमलों से दलितों को भी नहीं बचाया जा सकता. इस तरह दलित उत्पीड़न और साम्प्रदायिक उत्पीड़न एक ही है. जो दलित विचारधारा की राजनीति करने का दावा करते हैं, वह वास्तविक विचारधारा की लड़ाई नहीं लड़ते हैं, बल्कि दलित जातियों का वोट बैंक सत्ता पाने के अवसरों के रूप में करते हैं.’
यह बातें गुरूवार को यूपी प्रेस क्लब, लखनऊ में रिहाई मंच द्वारा ‘सामाजिक न्याय की चुनावी राजनीति और सांप्रदायिक गठजोड़’ विषय आयोजित एक सेमिनार में वरिष्ठ पत्रकार व राजनीतिक विश्लेषक अनिल चमड़िया ने कहा. चमड़िया इस सेमिनार के मुख्य वक्ता थे.
अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने कहा कि –‘बेटी का सम्मान महज़ नारा नहीं है यह भी विचारधारा है. यदि जेएनयू की बेटियों को वैश्या कहने की छूट दी जाएगी तो किसी भी महिला चाहे वो राजनेता ही क्यों न हो वह भी इस हमले से नहीं बच सकती है. हमारी लोकतांत्रिक व सामाजिक न्याय की चेतना को खंडों में विभाजित किया जा रहा है. इसलिए हम न केवल कश्मीर के मुद्दे पर बल्कि श्रमिकों, आदिवासियों आदि वंचित समुदाय के मुद्दों पर भी खामोशी अख्तियार कर लेते हैं. युवा उम्र से नहीं होता, युवा का संबन्ध चेतना से है, एक युवक भी जड़ बुद्धि का हो सकता है और एक बुजुर्ग या उम्रदराज भी बुनियादी परिवर्तन के सपने तैयार कर सकता है.’
सूबे व देश के मौजूदा राजनीतिक हालात पर बोलते हुए उन्होंने कहा कि –‘चुनाव की राजनीति महज़ वोटों के गठजोड़ से नहीं होती बल्कि उसका जोर सामाजिक न्याय और लोकतांत्रिक मुद्दों पर एकताबद्ध वोटों में विभाजन की बनावटी दीवार भी खड़ी करने की होती है. दलित चेतना के उत्पीड़न के लिए सामाजिक न्याय की चुनावी पार्टियों भी राज्य मशीनरी का उतना ही दुरुपयोग करती हैं जितना कि सांप्रदायिक विचारधारा की पार्टियां सांप्रदायिक हमले के लिए करती हैं. जो मुसलमान धार्मिक हैं व साम्प्रदायिक नहीं हैं और जो हिंदू साम्प्रदायिक है वह धार्मिक नहीं हैं.’
अनिल चमड़िया ने कहा कि –‘जो जातिवादी होगा वह सांप्रदायिक होगा और जो सांप्रदायिक होगा वह जातिवादी होगा. इनका गहरा संबन्ध है. सामाजिक न्याय की लड़ाई का मूल्यांकन इस तरह से करना चाहिए कि क्या कारण है कि इस दौर में सांप्रदायिकता का विस्तार तेजी से हुआ है, क्योंकि सामाजिक न्याय की लड़ाई जातिवादी दिशा में भटक गई है. यह इसलिए हुआ क्योंकि चुनावी राजनीती के लिए ऐसा करना इन पार्टियों के लिए लाभकारी हो सकता है.’
इस सेमिनार में रिहाई मंच नेता शाहनवाज़ आलम ने अपनी बातों को रखते हुए कहा कि –‘सामाजिक न्याय के नाम पर ढ़ाई दशकों से चल रही साम्प्रदायिक राजनीति की निर्मम समीक्षा की ज़रूरत है. इसे अब सिर्फ अस्मितावादी नज़रिए से देखना संघ परिवार के एजेंडे को ही बढ़ाना है.’
आगे उन्होंने कहा कि –‘हमें इस पर बहस करने की ज़रूरत है कि 90 के शुरूआती दौर में ‘मिले मुलायम कांशी राम, हवा में उड़ गए जय श्री राम’ का नारा लगाने वाली सपा और बसपा ने भाजपा के साथ गुप्त और खुला गठजोड़ क्यों कर लिया? कथित सामाजिक न्यायवादियों के मज़बूती के साथ ही साम्प्रदायिक हिंसा शहरों से गांवों की तरफ क्यों पहुंची? अम्बेडकर ने 1950 में दलित मुसलमानों के आरक्षण को ख़त्म किए जाने पर चुप्पी क्यों साध ली? आखिर कथित सामाजिक न्याय का राजनीतिक विस्तार हिंदुत्व के सामाजिक विस्तार में क्यों तब्दील हो गया? बेटियों के अधकारों पर बात करने वाला कथित संघ विरोधी हुजूम कश्मीर की बेटियों के साथ भारतीय सेना द्वारा बलात्कार किए जाने पर सड़कों पर क्यों नहीं दिखता? इन सवालों पर बहस के बिना सामाजिक न्याय की वास्तविक धारा को विकसित नहीं किया जा सकता. आज इस बहस के ज़रिए हम इन सवालों पर लम्बे वैचारिक मंथन की प्रक्रिया को शुरू करना चाहते हैं.’
इस सेमिनार के अध्यक्ष एडवोकेट मोहम्मद शुऐब थे, जो रिहाई मंच के संस्थापक अध्यक्ष हैं. उन्होंने अपने अध्यक्षीय सम्बोधन में कहा कि –‘भारतीय समाज को अब एक नए वैचारिक-राजनैतिक रक्त संचार की ज़रूरत है. जिसका केंद्रीय मुद्दा इंसाफ़ होगा, क्योंकि पूरी मौजूदा व्यवस्था ही नाइंसाफ़ी पर टिकी है. इसीलिए इंसाफ़ के सवाल उठाने वाले सत्ता के निशाने के पर हैं.
आगे उन्होंने कहा कि –‘हमारी सरकारें इंसाफ़ की मांग करने वालों से डरती हैं. इंसाफ़ की अवधारणा वास्तविक विपक्ष की अवधारणा है. चूंकि विपक्षी पार्टियां भी नाइंसाफ़ी के साथ खड़ी हैं, इसीलिए भारतीय राजनीति से विपक्ष गायब हो गया है. इस विपक्ष को खड़ा करना ही हमारी राष्ट्रीय जिम्मेदारी है.’
कार्यक्रम का संचालन रिहाई मंच नेता राजीव यादव कर रहे थे.